कभी कश्मीर, कभी बंगाल, कभी कैराना तो कभी करौली

सीता राम शर्मा ‘चेतन’

पिछले कुछ दिनों से पूरे देश में चर्चा का मुख्य विषय रहा है कश्मीर । जिसका कारण है फिल्म कश्मीर फाइल्स । 5 अगस्त 2019 को कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद कश्मीर पर सबसे ज्यादा चर्चा और चिंतन इन दिनों हुआ है । गांव शहर के चौक-चौराहों से लेकर देश की संसद तक में कश्मीर पर खूब चर्चा हुई है और जारी भी है । बहुत देर से ही सही 19 जनवरी 1990 से विकराल हुए आंतकी जेहाद के परिणामस्वरूप कश्मीर से हुए हजारों कश्मीरी पंडितों के पलायन की भयावह त्रासदी पर विस्तार से चर्चा होना देश के भविष्य के लिए एक शुभ संकेत है । शुभ संकेत इसलिए कि भविष्य में फिर कभी देश में कहीं भी वैसी त्रासदी ना हो इसके लिए कश्मीर की उस त्रासदी पर व्यापक चिंतन करते हुए, कमियों त्रुटियों से सीख लेते हुए काम करने की जरूरत है । 1990 में हुई उस भयावह त्रासदी के कारण जिस तरह लाखों कश्मीरी पंडितों को आतंक का सामना करना पड़ा । तरह-तरह के घोर अमानवीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा । वर्षों से रह रहे कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी पंडितों को रातोंरात अपने घर-बार के साथ कारोबार, रोजगार को छोड़कर कई घोर अमानवीय पीड़ा का शिकार होकर कश्मीर छोड़ने को विवश होना पड़ा, अपनों की निर्मम हत्या का दंश झेलना पड़ा, वह बेहद निंदनीय और शर्मनाक था । उस त्रासदी पर चर्चा और चिंतन करते हुए आज सबसे पहले हमें जिन सवालों का जवाब ढूंढना चाहिए वह यह है कि आखिर उस दौरान देश के ही एक हिस्से में हुई उस भयावह मानवीय त्रासदी की जानकारी तब देश को क्यों नहीं हुई ? आखिर उन घटनाओं के घटित होने के समय वहां का जन सुरक्षा का जिम्मेदार राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र क्या कर रहा था ? उसकी इस घटना में कितनी और किस-किस स्तर पर कितनी मिलीभगत थी ? उस मिलीभगत के बड़े-छोटे दोषी कौन कौन-कौन थे ? जो अत्याचार हुए उसके सच को दबाने छिपाने का घिनौना कृत्य किस-किसने किया और क्यों ? तब देश के राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के साथ देश का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला समाचार तंत्र भी क्यों इस सच को उजागर नहीं कर पाया ? सच मानिए, यदि इस चौथे स्तंभ ने भी यदि उस दौरान अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता के धर्म और कर्म का ईमानदारी से पालन करते हुए जन और देश हित के अपने कर्तव्य का पालन किया होता तो निःसदेह ना सिर्फ दोषियों को त्वरित कठोर दंड दिया जा सकता था बल्कि 19 जनवरी 1990 के बाद भी होने वाले कई जघन्य अमानवीय अत्याचारों के साथ हजारों कश्मीरी पंडितों के पलायन को रोका जा सकता था । ऐसा नहीं हुआ, इससे यह सिद्ध होता है कि उस दौरान राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के साथ देश का चौथा स्तंभ भी वहां अपनी बेहद घृणित और षड्यंत्रकारी अवस्था में था । आज हमें सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि 19 जनवरी 1990 को जो घटना वहां घटित हुई उस दौरान वहां के राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के मुख्य नेता और अधिकारी कौन थे ? देखना समझना यह भी जरूरी है कि उस दौरान की राज्य और केंद्रीय सत्ता किसके हाथों में थी ? गौरतलब है कि उस समय जम्मू कश्मीर की सरकार, जो नवंबर 1986 से कांग्रेस के समर्थन से चल रही थी उसके मुख्यमंत्री फारुख अब्दुला ने घटना के महज एक दिन पूर्व ही अपना इस्तीफा दे दिया था, जो किसी भी स्थिति में ना उन्हें निर्दोष सिद्ध करता है और ना ही इस बात का विश्वास दिलाता है कि उस आतंकी षड्यंत्र में उनकी कोई परोक्ष-अपरोक्ष भूमिका नहीं थी क्योंकि उनके पूरे कार्यकाल के दौरान कश्मीर में कश्मीरी पंडितों सहित कई हिंदूओं की हत्याओं का सिलसिला जारी रहा था । बहुत गंभीर सवाल उस दौरान की केंद्र सरकार पर भी उठाए जाने चाहिए, जो भाजपा के समर्थन से चल रही थी ! यदि बेहद गुप्त रूप से एक षड्यंत्र के तहत राज्य सरकार और उसके प्रशासनिक महकमे ने कुछ अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ मिलकर उस घटना को अंजाम दे भी दिया था तो कम से कम थोड़े विलंब से ही सही केंद्र में सहयोगी की भूमिका निभाती भाजपा ने तत्काल उस घटना के दोषियों पर कठोर कार्रवाई करने के साथ तत्काल पलायन किये लाखों कश्मीरी पंडितों को वापस उनके घर भेजने, उन्हें सुरक्षा देने का अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास क्यों नहीं किया ? सच्चाई यह है कि 19 जनवरी 1990 के बाद भी कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार जारी रहा और वहां से निरंतर उनका पलायन भी होता रहा था ! आतंकित कर और घोर यातना देकर पलायन के लिए मजबूर किये गए पीडितों के मकानों और दुकानों को जलाने, नष्ट करने और उन पर कब्जा करने का दौर अनवरत जारी था ! सबसे बड़ा आश्चर्य और सवाल यह भी कि 1990 के बाद बीत चुके इन 32 वर्षों में भी आज तक कोई भी सरकार आखिर उस प्रायोजित आतंकी षड्यंत्र और हिंसा की जांच करवा कर उस आतंक को अंजाम देने वाले सभी गुनाहगारों को सजा क्यों नहीं दिलवा पाई ? आखिर आज भी जब उस आंतकी वारदात के कुछ सच एक फिल्म के माध्यम से देश के करोड़ों लोगों के सामने आ चुके हैं और अनजान जनता उस काले इतिहास के सच से आक्रोशित है, तब भी सरकार गुनाहगारों को पकड़ने, कठोर दंड दिलाने की व्यवस्था बनाने की बजाय सिर्फ पलायन किये कश्मीरी पंडितों की सुरक्षित घर वापसी का आश्वासन भर क्यों दे रही है ? बेशक आज भी उन कई जघन्य और अक्षम्य अपराध तथा षड्यंत्र की घटनाओं के सैकड़ो दोषी जिदा हैं ! उन पीडितों के घर-जमीन और दुकानों पर दूसरों का कब्जा है ! जिन्हें वापस दिलाने की व्यवस्था सरकार को उन पर अधिकार जमाए बैठे लोगों के साथ बिना कोई हमदर्दी दिखाए और बिना किसी कानूनी बाध्यता के करनी चाहिए । अंत में एक देश के रूप में कश्मीर के उस आतंक और पलायन पर बात करते हुए सबसे ज्यादा जरूरी, ज्वलंत और महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या देश की सत्ता और सरकार तथा प्रशासन की नाकामी और अक्षम्य पापी कर्तव्यहीनता के कारण किसी आतंकवादी, अलगाववादी समूहों के चलते होनेवाले घोर अमानवीय अत्याचार और पलायन का एकमात्र स्थान सिर्फ और सिर्फ कश्मीर है ? जवाब बहुत स्पष्ट, घोर पीड़ादायक, हृदयविदारक और विचलित व्यथित करने वाला है – नहीं । इस देश के कई हिस्सों में भय, आतंक, अमानवीय तांडव और मरणासन्न विवशता में पलायन करने वाले अनगिनत छोटे-बड़े कश्मीर आज भी मौजूद हैं । लाखों लोग आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद और अलग-अलग तरह के आतंक अत्याचार के कारण आज भी अपनी जन्मभूमि, अपने घर-मकान-दुकान और जमीन से दूर रहने को विवश हैं और हो रहे हैं ! यदि देश की सत्ता और सरकारें तत्काल जनहित के लिए उनकी शांति और सुरक्षा के अपने प्राथमिक दायित्व और कर्तव्यों के प्रति पूर्ण निष्ठा, निष्पक्षता और कठोरता के साथ काम नहीं कर पाई, हर संभव और जरूरी नियम कानून बना उसे सफलतापूर्वक लागू करने का काम नहीं कर पाई, पूरे देश में कानून का राज स्थापित नहीं कर पाई, तो कश्मीर का रोना रोते हुए, सिर्फ विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ करने का पापी ढोल पिटते हुए, भविष्य में भी देश के भीतर कई कश्मीर बनने से नहीं रोक पाएगी । कभी आतंकवाद के नाम पर, कभी अलगाववाद के नाम पर, कभी नक्सलवाद के नाम पर तो कभी कई अन्य तरह के विरोध-प्रदर्शन के नाम पर कई और कश्मीर बनते रहेंगे । कभी कश्मीर, कभी बंगाल, कभी कैराना तो कभी करौली का दंश इस देश को भोगने को विवश होते रहना पड़ेगा । अतः बेहतर होगा कि देश और देश की जनता की शांति और सुरक्षा को सर्वोच्च प्रथमिकता देते हुए देश के लोगों के लिए देश में जीवन जीने के कुछ सर्वव्यापी सर्वमान्य कठोर नियम कानून बनें और उन्हें सदैव पूरी प्राथमिकता के साथ व्यवहार में भी लाने की व्यवस्था और बाध्यता बनाई जाए । रही बात कश्मीरी पंडितों की तो उनके लिए अब बात और बहस को बहुत पिछे छोड़कर सिर्फ और सिर्फ पूर्ण न्याय की व्यवस्था यथाशीघ्र करनी चाहिए और वो भी कानून के राज के भय के साथ ।