वकील व न्यायलय जनता के हितों में कार्यरत हों

Lawyers and courts should work in the public interest

प्रो. नीलम महाजन सिंह

इस सप्ताह भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में अनेक ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ चलती रही! वैसे यदि राज्यों के उच्च न्यायालय अपनी स्वायत्तता द्वारा महत्वपूर्ण निर्णय ले लें, तो वह भी उतने ही सहायक हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय करेगी। तीन केस सुर्खियों में रहे। समय-समय पर न्यायायिक सुधारों की बात होती है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड, 30 नवंबर 2024 में सेवानिवृत्त होंगें। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय की रजिस्ट्री तथा ‘स्पेशल मेंशन’ पर रोक लगाने के अनेक प्रशासनिक निर्णय लिए हैं। परंतु इसके बावज़ूद भी आम जनमानस को सालों-साल न्याय नहीं मिलता है। अधिवक्ता ‘ऑफिसर ऑफ दी कोर्ट’ होकर, तारीख़ पे तारीख़ लेते हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का एतिहासिक भाषण, जिसमें उन्होने न्यायालयों पर कटाक्ष किया, कि जो लोग कोर्ट कचहरी में सालों साल भटकते हैं, वे अपनी संपत्ति और घर बार भी खो देते हैं। यह भी कहना उचित होगा कि अधिवक्ताओं के व्यक्तिगत लालच के कारण भी मामलों के निपटारे नहीं हो रहे हैं। यह तो बहुत-बहुत दुःख और शर्म की बात है कि न्यायालय के आदेशों का पालन तक नहीं हो रहा! सर्वोच्च न्यायालयों के पूर्व जज जस्टिस जोसफ कुरियन ने कुछ वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त होने से पूर्व, 500 से भी अधिक केस, बिना वकीलों के, स्वयं मध्यस्थ होकर सुलझाए थे। जस्टिस जोसफ कुरियन को सलाम। सच तो यह है कि न्यायपालिका, प्रजातंत्र का महत्वपूर्ण अंग है। परंतु आम नागरिक से पूछें की क्या वे न्यायालय जाना चाहेंगे? नहीं! सीजेआई डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने नागपुर में कहा, “लंबित मुकदमों या फैसलों पर वकीलों की टिप्पणी करना बहुत चिंताजनक बात है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ अपने सख्त फैसलों और टिप्पणियों को लेकर अक्सर चर्चा में रहते हैं। सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस बार वकीलों की हरक़त पर टिप्पणी करते हुए उसे चिंताजनक करार दिया है। न्यायपालिका तारीफ के साथ ही, आलोचना भी स्वीकार कर सकती है, लेकिन पेंडिंग केस या फैसलों पर वकीलों की टिप्पणी करना बहुत चिंताजनक है। ‘बार’ के पदाधिकारियों और सदस्यों को न्यायिक निर्णयों पर प्रतिक्रिया देते वक्त यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी ‘अदालत के अधिकारी हैं’, आम आदमी नहीं (officers of the court) हैं। नागपुर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के शताब्दी वर्ष समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि एक संस्था के रूप में ‘बार’ को न्यायिक स्वतंत्रता, संवैधानिक मूल्यों और अदालत की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए ज़रूरी है। अदालत और संविधान के प्रति निष्ठा रखें, बार मेंबर्स! न्यायापालिका बार-बार अपनी स्वतंत्रता और गैर-पक्षपातपूर्णता, कार्यपालिका और निहित राजनीतिक हित से शक्ति के पृथक्करण के लिए आगे आई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और बार की स्वतंत्रता के बीच गहरा संबंध है। एक संस्था के रूप में बार की स्वतंत्रता न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संवैधानिक मूल्यों और अदालत की गरिमा को बनाए रखने की आवश्यक है। एक जीवंत और तर्कपूर्ण लोकतंत्र में, अधिकांश लोगों की एक राजनीतिक विचारधारा या झुकाव होता है। अरस्तू (Aristotle) ने कहा था कि, ‘मनुष्य राजनीतिक प्राणी है’। वकील भी कोई अपवाद नहीं हैं। हालांकि ‘बार’ के सदस्यों के लिए, किसी की सर्वोच्च निष्ठा, पक्षपातपूर्ण हित के साथ नहीं बल्कि अदालत व संविधान के प्रति होनी चाहिए। कोर्ट के फैसले सार्वजनिक संपत्ति है। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फैसले कठिन कार्यवाही, व्यापक न्यायिक विश्लेषण और संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता का परिणाम होते हैं। लेकिन एक बार जब फैसला सुना दिया जाता है तो यह सार्वजनिक संपत्ति है। “एक संस्था के तौर पर हमारे कंधे चौड़े हैं। हम प्रशंसा और आलोचना दोनों स्वीकार करने के लिए तैयार हैं”, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने कहा। लेकिन बार एसोसिएशन के सदस्य व पदाधिकारी होने के नाते वकीलों को अदालत के निर्णयों पर प्रतिक्रिया देते समय आम आदमी की तरह टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। दो अन्य केस जो चर्चा का विषय हैं, वे है, पतंजलि के रामदेव-बालकृष्‍ण के सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का । जस्टिस हिमा कोहली व जस्टिस एहसानुदीन अमानुलाह, ने रामदेव की माफ़ी को स्वीकार क्‍यों नहीं किया ? किसे कहा ‘कागज़ का टुकड़ा’? फ़िर अरविंद केजरीवाल के वकील, डा. अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसी दलील दी कि मुख्य न्यायाधीश ने उस पर गौर करने का आश्वासन दिया। सच तो यह है कि जहा एक ओर जनता के साथ अन्याय हो रहा है तो न्यायालय उनकी दबी हुई सिसकियों को क्यों नहीं सुनता? बड़े-बड़े लोगों के भाषण तो ठीक है परंतु आवश्यकता है, ‘अंत्योदय’ के अंतिम पंक्तियों में खड़े इंसान को न्याय मिले। भारत विश्व का पहले नंबर पर जनसँख्या में वृद्धि के कारण, चीन से भी आगे हो गया है। अधिक न्यायालयों की आवश्यकता है। मेरा सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायमूर्तियों से यह आग्रह है कि वे एक ऐसी घोषणा कर दें कि हर मुकदमा दो से तीन वर्षों में समाप्त कर दिया जाए। सभी केस ‘टाइम लाइन’ कर दिया जायें ताकि आम जनता को न्याय की उम्मीद नज़र आए, अन्यथा ये रॉक स्टार्स, उच्चतम न्यायालय के भाषण ही रह जायेंगें। न्यायालय, न्यायाधीशों व कानून एवं विधि मंत्रालय को भी इसका संज्ञान लेना अनिवार्य है।

(सालिसिटर – अधिवक्ता, वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक व परोपकारक)