नृपेन्द्र अभिषेक नृप
नैतिकता और संवैधानिक दोनों दृष्टिकोण से ही राष्ट्र सर्वोपरि होता है। बाकी सारी बातें उसके बाद ही आती हैं और राजनीतिक पार्टियां तो इसलिए ही बनी थी कि देश में लोकतंत्र की बहाली हो सके। राजा- रजवाड़ों के जमाने तब लद चुके थे और हमारा संविधान अस्तित्व में आ चुका था। अतः लोकतंत्र की बहाली के लिए राष्ट्र में एक राष्ट्राध्यक्ष की आवश्यकता थी। जब देश को स्वतंत्रता मिली और संविधान अस्तित्व में आया। तब इन सब में कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। इसमें कोई दो राय नहीं। शायद इसलिए भी स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु जी बने थे।
फिर उनके बाद उनकी सुपुत्री व तेज तर्रार व्यक्तित्व की धनी आयरन लेडी इंदिरा जी प्रधानमंत्री चुनी गईं । उनके साथ जनता की सहानुभूति भी थी। मैं उनकी निष्ठा ,बहादुरी , या नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठा रहा । लेकिन तब की कांग्रेस और आज की कांग्रेस में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है। तब उनकी पार्टी का नेतृत्व दमदार हाथों में था और उनका दमखम देखते बनता था। लेकिन आज उसी पार्टी की स्थिति जर्जर हो चुकी है। एक वक्त था जब इंडिया इस इन्दिरा और इंदिरा इज इंडिया तक बोला जाने लगा था। लेकिन जो पार्टी कभी लोकसभा में 400 से ज्यादा सीट जीत कर आई थी आज उसकी हालत इतनी बदतर हो गई है कि विपक्ष की पार्टी तक बनने का हक नहीं रह गया है।
पहले मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरु, फिर श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, उनके देहांत के बाद उन्हीं की पत्नी सोनिया गांधी जी, सोनिया जी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व अब उन्हीं के पुत्र राहुल गांधी अप्रत्यक्ष रूप से कर रहे हैं। यह तो बात हुई केवल नेतृत्व की। कांग्रेस के इर्द-गिर्द राहुल गांधी, प्रियंका गांधी उनके पति रॉबर्ट वाड्रा मतलब यह कि घूम फिर कर फिर वही गांधी- नेहरू परिवार। कांग्रेस के संगठित करने से संबंधित जितने भी राजनीतिक विशेषज्ञ है सबका मानना है कि कांग्रेस को गांधी परिवार से आगे बढ़ना चाहिए।
आज के समय का सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्यों कांग्रेस गांधी परिवार के आगे कुछ और नहीं सोच पाती है ? क्यों वह अपना नेतृत्व किसी और हाथ में देना ही नहीं चाहती? क्या कांग्रेस में अनुभवी व दमदार नेतृत्व का अभाव है ? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब आज पूरा देश चाहता है।
नेतृत्व क्षमता का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते है कि कांग्रेस जितने भी राज्यों में पक्ष या विपक्ष नजर आ रही है उन राज्यो में भी कांग्रेस के नेताओं का गठजोड़ दो धरों में बंटा हुआ दिख रहा है और कमोबेश हर राज्यों में कांग्रेस की कब्र खोदने का काम यही आपसी कलह कर रहा है। इसका ताजा उदाहरण हम पंजाब में देख सकते है। ठीक ऐसे ही मध्यप्रदेश में सरकार बनने के बाद भी आपसी विवादों में कांग्रेस अपना सत्ता गवां दी थी। राजस्थान की भी राजनीति इन सबसे अछूता नहीं हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी परिवारवाद से आगे बढ़ ही नहीं पा रही है। यह सच है कि परिवारवाद देश की राजनीति के लिए नया नहीं है। हम कश्मीर, यूपी ,बिहार और पंजाब जैसे राज्यों में भी परिवारवाद देख चुके हैं। साथ ही उसका हश्र भी देख चुके हैं। लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी के लिए इस तरह का वंश- प्रेम आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। हाल के चुनावों में मिली शर्मनाक हार के बाद कांग्रेस को आत्मचिंतन और आत्ममंथन की जरूरत तो है लेकिन हाल ही में हुए पार्टी के बैठक के बाद कांग्रेस फिर चिर निंद्रा में सोती नजर आ रही है।
पार्टी को जीवित रखने के लिए उसे नेतृत्व परिवर्तन रूपी ऑक्सीजन चढ़ाने की जरूरत है। साथ ही उसे अपनी रणनीतियां भी बदलने की भी आवश्यकता है। चाहे वंशवाद हो या एक ही पार्टी का वर्चस्व दोनों ही स्थितियां लोकतंत्र के लिए सही नहीं होती है। किसी भी देश मे विपक्ष की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है और भारत अभी कमजोर विपक्ष का देश हो चुका है। ऐसे में एक मजबूत विपक्ष के लिए भी कांग्रेस को जिंदा रखना जरूरी है और इसके लिए कांग्रेस में बहुत सारे बदलाव करने की जरूरत होगी।
सत्तासीन पार्टी के समकक्ष एक प्रभावशाली विपक्ष की भूमिका को हम नकार नहीं सकते। प्रभावशाली विपक्ष लोकतंत्र की महत्वपूर्ण कड़ी होती है। वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल समेत अन्य कुछ नेताओ ने कांग्रेस में सुधार की बात की तो उन्ही के पार्टी के नेताओं ने उनके बयानों पर उन्हें आड़े हाथों ले कर उनका विरोध दर्ज किया, जिसका सीधा प्रभाव कांग्रेस पर ही पड़ेगी। कांग्रेस उनके खिलाफ खड़ी हो गई है।
एक कट्टू सत्य यह भी है कि आज देश में शायद ही कोई होगा जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रुप में देखना चाहता होगा क्योंकि राहुल गांधी के बारे में अनगिनत अफ़वाह उड़ा कर उन्हें काफी बदनाम किया जा चुका है। इसलिए यह और भी आवश्यक हो गया है कि आपसी कलह को छोड़ कांग्रेस वस्तुस्थिति को समझे और अपने नेतृत्व के बारे में गंभीरता से सोचें। नहीं तो जिस तरस से अखंड भारत मे शाशन करने वाले मुग़ल का शाशन बहादुर शाह जफर के शाशन तक आते आते ” चांदनी चौक से लेकर पालम तक ” शाशन रह गया गया था , उसी तरह कांग्रेस भी एक परिवार तक सिमट कर रह जायेगी!