रूस द्वारा अपने पड़ोसी देश यूक्रेन पर किया गया सैन्य आक्रमण न तो अचानक किया गया हमला था न ही रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने अपने इस फ़ैसले में कोई बात लुका छिपा रखी थी। यूक्रेन को पिछले कई महीनों की लगातार चेतावनी के बाद पुतिन द्वारा सैन्य कार्रवाई का आदेश दिया गया। उधर यूक्रेन को भी इस बात का भरोसा था कि यदि पुतिन ने यूक्रेन पर आक्रमण करने का ‘दुस्साहस’ किया तो यूरोपीय संघ के देश, नाटो के सदस्य देश ख़ासकर अमेरिका, यूक्रेन की मदद के लिये खुलकर सामने आयेंगे। परन्तु अमेरिका ने रूसी संपत्तियां ज़ब्त करने व कुछ नाटो देशों ने यूक्रेन को हथियार देने, आर्थिक प्रतिबंध लगाने व रूसी विमानों के लिये अपना हवाई मार्ग बंद करने जैसे फ़ैसलों के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। निश्चित रूप से यूक्रेन को रूस से अधिक नुक़्सान उसके इसी ‘भरोसे’ ने पहुँचाया कि पश्चिमी देश उसकी ज़मीन पर आकर उसका युद्ध लड़ेंगे। वैसे भी वियतनाम, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में अमेरिका की रुस्वाई और 1971 में भारत के विरुद्ध पाकिस्तान की सहायता के लिये भेजे गये ‘सातवें युद्धपोत के झांसे’ बावजूद यूक्रेन राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की किस आधार पर अमेरिका व नाटो हस्तक्षेप की बाट जोह रहे थे यह भी समझ से परे है। हालांकि रूसी हमले के बाद एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र संघ व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की शक्ति उसके अस्तित्व व अहमियत पर भी सवाल उठने लगे हैं।
दुनिया जानती है कि अमेरिका व रूस के बीच वैश्विक वर्चस्व की वह दीर्घकालिक जंग चल रही है जिसे दुनिया ‘शीतयुद्ध’ के नाम से भी जानती है। दुनिया के अनेक अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ रूस के यूक्रेन पर आक्रमण की आलोचना तो कर रहे हैं साथ ही यह भी याद दिला रहे हैं कि यूक्रेन की तबाही पर ‘विलाप’ करने वाला यही मीडिया क्या उस समय भी लोगों के जान माल के नुक़्सान का ऐसा ही कवरेज करता है जब फ़िलिस्तीन, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, इराक़ व यमन जैसे देशों में विदेशी सैन्य कार्रवाइयां होती हैं अथवा विद्रोह कराये जाते हैं? उस समय मीडिया में ख़ामोशी इसीलिये छाई होती है क्योंकि प्रायः पश्चिमी मीडिया भी अमेरिकी हितों का ध्यान रखते हुये संचालित होता है। और यदि अलजज़ीरा जैसा कोई चैनल अमेरिकी या इस्राईली बर्बरता पूर्ण कार्रवाई तथा इनसे होने वाली जान माल की क्षति का ब्यौरा प्रसारित करते है तो ऐसे चैनल्स के दफ़्तरों को बमबारी कर उड़ा दिया जाता है। जैसा कि इराक़ युद्ध के समय भी हुआ और गत वर्ष 16 मई 2021 को ग़ाज़ा में भी देखने को मिला। ग़ाज़ा में यही ‘पश्चिमी हित साधक’ मीडिया उस समय ख़ामोश था जब गाज़ा स्थित 12 मंज़िला मीडिया टावर को इस्राईली हवाई हमले में ध्वस्त कर दिया गया था। जिसमें 47 बच्चों सहित 174 लोगों की मौत की ख़बर आई थी। इसमें अनेक मीडिया अलजज़ीरा व ए पी सहित अनेक मीडिया मुख्यालय थे। इस इस्राइली हमले को युद्ध अपराध बताया गया था।
इसी तरह अमेरिका भी जब चाहे ईरान को ‘शैतान की धुरी’ का तमग़ा दे दे। जब चाहे सामूहिक विनाश के हथियार होने का झूठा बहाना बनाकर इराक़ को तबाह बर्बाद कर दे, जब चाहे कहीं विद्रोहियों की मदद कर सत्ता के विरुद्ध बग़ावत करा दे क्या वह ‘अमेरिकी हिटलरशाही’ नहीं है? क्या यह सब अमेरिका के अधिकार हैं और उसकी हर कार्रवाई विश्व शांति के लिये की जाने वाली मान्य व विधिसंवत कार्रवाई है? परन्तु अमेरिका की रूस के निकटवर्ती सीमाओं पर घुसपैठ रोकने के लिये यूक्रेन पर किये गये हमले के चलते पश्चिमी मीडिया ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तुलना हिटलर से करते देर नहीं लगाई। ईरान से टकराव के बहाने आज भी अमेरिकाव इस्राईल ढूंढते ही रहते हैं। इराक़ व अफ़ग़ानिस्तान को खंडहर बनाने में भी अमेरिका ने कोई कसर नहीं छोड़ी आख़िरकार उसी ‘अराजक’ नेतृत्व के हाथों पुनः अफ़ग़ानिस्तान सौंप कर उसे वापस आना पड़ा।
अमेरिका व इस्राईल पर कई बार युद्ध अपराध के आरोप लग चुके हैं। परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद लेकर तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में अमेरिकी वर्चस्व होने के कारण न अमेरिका के विरुद्ध आज तक कोई बड़ी कार्रवाई हुई न ही उसके मित्र देश इस्राईल के विरुद्ध। सही मायने में यूक्रेन पर हमले का जितना दोष पुतिन पर मढ़ा जा रहा है, अमेरिका व उसके सहयोगी पश्चिमी देश भी पुतिन से कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। न वे अपने वैश्विक वर्चस्व का खेल खेलते हुये रूस के विरुद्ध यूक्रेन को उकसाते, न उसे संकट में हर संभव सहायता देने का ‘लॉली पॉप ‘ देते न ही आज यूक्रेन को यह दिन देखने पड़ते। वैसे भी इराक़ व अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैन्य अभियान का जिस तरह अमेरिकी जनता ने विरोध किया था और उन्हीं परिस्थितियों में अमेरिका को रातों रात इन देशों से अपने सैन्य साज़-ओ-सामान छोड़कर भागना पड़ा उसके बाद अब भविष्य में इस बात की कम ही संभावना है कि अमेरिका किसी दूसरे देश की ज़मीन पर अपने सैनिकों को लड़ने के लिये भेजेगा। ख़ासतौर से तब तक जबतक उसके अपने हितों का सवाल न हो।
राष्ट्रपति पुतिन ने जो भी किया है उसे मानवीय दृष्टि से क़तई सही नहीं ठहराया जा सकता परन्तु जिन परिस्थितियों ने उन्हें ऐसा करने के लिये मजबूर किया उसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। हाँ रूस के यूक्रेन पर किये गये इस हमले के बाद ख़ासतौर पर यूक्रेन के अकेले पड़ जाने व दुनिया के तमाशा देखते रहने के बाद अब इस बात का संदेह और बढ़ गया है कि क्या दुनिया के शक्तिशाली देश अब इस्राईल, अमेरिका की चली आ रही मनमानी और युद्ध अपराधों के बाद अब रूस द्वारा किये गये आक्रमण से भी ‘प्रेरणा ‘ लेकर अपने पड़ोसी कमज़ोर व छोटे देशों के विरुद्ध किसी न किसी बहाने इसी तरह की आक्रामक नीतियां अपना सकते हैं? और यदि ऐसा हुआ तो क्या यह दुनिया भविष्य में अब और भी बेलगाम हो जायेगी?