नृपेन्द्र अभिषेक नृप
बहुमुखी प्रतिभा के धनी और पूर्व आई. पी.एस ध्रुव गुप्त के कलम में आग है तो पानी भी और साहित्य है तो संस्कृति भी।इनकी कलम प्रकृति पर भी बेजोड़ चलने वाली है। इन्होंने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से करोड़ों लोगो के दिल पर राज किया है। ध्रुव गुप्त जी के कलम ने एक नई किताब कि रचना की है, जिसका नाम है ‘फिर तेरी कहानी याद आई’। यह पुस्तक ध्रुव गुप्त के आलेखों का संग्रह है।
इस पुस्तक में उनके इतिहास, संस्कृति, कला और साहित्य पर हॉल – फिलहाल में लिखे गये आलेख शामिल है। इस किताब के लेख हमें अपनी सामूहिक और साझेपन की विरासत से परिचित कराते हैं। वे समाज और संस्कृति के सारे सवालों पर बहुत गहराई से विवेचन करते हैं और हमारे इतिहास के संदर्भों को इस तरह सामने रखते हैं कि वे सारे संदर्भ आंखों के सामने सजीव हो उठते हैं।
इस किताब में भारतीय संस्कृति की धरोहर दिखती है। इसमें पुरानी दिल्ली के लाल किले की बेगम जीनत महल की दास्ताँ है तो दूसरी ओर महान सूफी संत शेख चिल्ली, जिन्हें दुनिया झूठे-सच्चे किस्सों, हास- परिहास का पर्याय मानती है, का पता चलता है। इसमें प्रेम और स्नेह का लेप भी लगाया गए है।
एक लेख ” ओ गंगा बहती हो क्यों” में गंगा दशहरा के बारे में चर्चा करते हुए लिखते है कि यह पूर्वज राजा भगीरथ की वर्षो की कठोर तपस्या के बाद हिमालय से पृथ्वी पर अवतरण का दिन है। इसके लिए वे पुराणों में वर्णित चमत्कारी कथाओं का भी जिक्र करते है। और अंत मे गंगा के अविरल धारा को संरक्षित करने का भी जिक्र करते हैं।
आज के दौर में देश- विदेश में इंटरनेट का प्रचलन काफी बढ़ा है। इसके समस्याओं को इंगित करते हुए लेखक ” शोर मत करो, बच्चे ऑनलाइन है” में लिखते है कि बच्चों की मानसिक और भावनात्मक जरूरतें उन्हें टीवी ,मोबाइल और इंटरनेट की रंग – बिरंगी दुनिया की तरफ खींचकर ले गई है। जैसे बच्चे खोजते है वैसे ही इंटरनेट मर मिल जाता है। इससे बच्चों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रभाव पड़ रहा है। उन्हें आज इंटरनेट ने घर- परिवार और समाज से दूर कर दिया है।
लेखक ने एक आलेख “रावण पर एक अलग पाठ ” में रावण के अवगुण के साथ – साथ उसके गुणों पर भी लिखें हैं। कहते है कि वह तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, कुशल युद्ध रणनीतिकार और एक समर्थ राजनीतिज्ञ होने के अलावा वास्तुकला और संगीत सहित कई विद्याओं का जानकार था। राम ज्ञानी थे। रावण के अहंकार और सीता के प्रति उसके अपराध के बावजूद वे उसकी विद्वता, ज्ञान और उसकी बेहतरीन शासन पद्धति का सम्मान करते थे।
इस किताब में प्रेम पर उन्होंने अपने लेख “कैसा होता है प्रेम” में लिखा है कि “प्रेम व्यक्ति का स्वभाव है लेकिन अगर इच्छाओं की पूर्ति न हो तो प्रेम हिंसा का रूप भी धारण कर सकता है। प्रेम हमारा स्वभाव है। इसे कुरेदकर जगाने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे जीवन में विपरीत लिंग की होती है। प्रेम दो व्यक्तित्वों के मिलने से उपजी एक आंतरिक खुशबू है जो उनके बिछड़ जाने के बाद भी उनके व्यक्तित्व में सदा के लिए बची रह जाती है। वेलेंटाइन डे इस बात को लेकर सार्थक है कि हमें याद दिलाता है कि हमारे जीवन में कुछ वांछित , कुछ श्रेष्ठ , कुछ मुलायम भी है जो हमसे लगातार छूटता जा रहा है।
लेखक पर्यावरण के प्रति भी सजग दिखते है तभी तो अपने लेखों में पर्यावरण के महत्ता दिखा रहे है। अपने लेख “हमारी परम्पराएँ और पर्यावरण” में लिखते है कि अभी जो पर्यावरणीय समस्या दिख रही है वो प्राचीन से नहीं है बल्कि हम मानवों ने ही इसे बर्बाद करने का काम किया है। अपने विकास के चकाचौंध में अपने पर्यावरण को संरक्षित करना ही भूलते जा रहे है। तभी तो लगातार ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने के बाद में हम सजग नहीं हो पाते हैं। पर्यावरण की बातों वेदों में भी की गई है जिसके बारे में लेखक विस्तार से चर्चा कर रहें हैं।
एक अन्य आलेख ‘नशे में देश’ में ग लिखते हैं – हमारे देश में हज़ारों साल से गांजे के उपभोग पर कभी कोई रोक-टोक नहीं रही थी। राजीव गांधी की सरकार द्वारा पहली बार वर्ष 1985 में इसे प्रतिबिंबित ड्रग्स की सूची में शामिल किया गया। भारत में साधू-सन्यासियों के बीच गांजा सबसे लोकप्रिय और सर्वमान्य नशा है। इसे सदियों से कमोबेश सामाजिक स्वीकृति भी हासिल रही है। अथर्ववेद में गांजे के पौधे की गिनती पांच महानतम पौधों में की गई है। गांजे का प्राचीन नाम ज्ञानदा बताया जाता है जो कालांतर में बिगड़ कर गांजा हो गया।
वाकई में यह पुस्तक भारत की संस्कृति , विरासत , पर्यावरण , प्रेम को जानने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है। जिसमें हमें गंगा नदी, सरस्वती नदी जैसे की तो जानकारी मिल ही रही है। साथ मे पर्यावरण संकट के साथ – साथ प्रेम में हिलकोरे मारते लोगों की भी जानकारी परोसें गए हैं। यह पुस्तक गागर में सागर की तरह है जिसे पढ़ने के बाद मन तृप्त हो जा रहा हैं।
पुस्तक : फिर तेरी कहानी याद आई
लेखक: ध्रुव गुप्त
प्रकाशन: अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज
मूल्य: 190 रुपये