रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान में 2023 के आखिरी महिने में विधानसभा चुनाव होने हैं। जिसके लिए सभी राजनीतिक दल अभी से अपनी तैयारियों में जुट गए हैं। मगर मुख्य विपक्षी दल भाजपा गुटबाजी में फंसी हुई है। भाजपा के नेता एक दूसरे की टांग खिंचाई में ही उलझे हुये हैं। राजस्थान में भाजपा की सबसे बड़ी नेता वसुंधरा राजे जहां खुद को अगले विधानसभा चुनाव में नेता प्रोजेक्ट करने की जिद कर रखी हैं। वही उनका विरोधी गुट किसी भी सूरत में उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हैं।
वसुंधरा राजे प्रदेश में भाजपा की कद्दावर नेता मानी जाती है। राजस्थान में दो बार मुख्यमंत्री व दो बार प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही केंद्र सरकार में मंत्री रह चुकी है। राजस्थान में भाजपा के अंदर बड़ी संख्या में उनके समर्थक मौजूद हैं। वहीं दूसरी ओर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डा. सतीश पूनिया वसुंधरा राजे विरोधी खेमे के नेता माने जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निकटता के चलते पूनिया को संघ का पूरा समर्थन प्राप्त है। पुनिया चाहते हैं कि अगला विधानसभा चुनाव पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम व चेहरे पर लड़े।
पूनिया का कहना है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे प्रदेश की मुख्यमंत्री थी। पार्टी ने उन्हें ही अगला मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा था। तब वसुंधरा राजे के नेतृत्व में पार्टी को हार मिली थी। विधायकों की संख्या 163 से सिमटकर 73 रह गई थी। पूनिया गुट के नेताओं का कहना है कि यदि वसुंधरा राजे का मतदाताओं पर प्रभाव रहता तो उनके मुख्यमंत्री रहते पार्टी बुरी तरह से चुनाव क्यों हारती़़ ? विधानसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ी थी और सभी 25 लोकसभा चुनाव पर जीत हासिल की थी।
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया भी सतीश पूनिया के साथ मिलकर वसुंधरा राजे की खिलाफत कर रहे हैं। वहीं केंद्र में जल शक्ति मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नजदीकी लोगों में शुमार होते हैं। उनका अपना तीसरा धड़ा प्रदेश में सक्रिय हैं। मगर वसुंधरा राजे को प्रदेश की राजनीति से दूर रखने में वह भी प्रदेश अध्यक्ष डा. सतीश पूनिया के खेमे से जुड़ गए हैं। गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रधानमंत्री मोदी से नजदीकी के चलते ही जल शक्ति जैसा बड़ा मंत्रालय दिया गया है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भी राजस्थान भाजपा के बड़े नेता माने जाते हैं। मगर संवैधानिक पद पर रहने के कारण वह खुले तौर पर किसी भी गुट से संबंद्ध नहीं है। हालांकि समय आने पर ओम बिरला मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदारों में शामिल हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री रहते वसुंधरा राजे को पूरा फ्री हैंड दिया गया था। प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार तक की पूरी कमान वसुंधरा राजे व उनके विश्वस्त लोगों के हाथों में थी। पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को राजस्थान भाजपा का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। मगर उस वक्त मुख्यमंत्री रहते वसुंधरा राजे ने वीटो कर गजेंद्र सिंह की ताजपोशी रुकवा दी थी। उन्होने अपने निकट के मदन लाल सैनी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनवा दिया था। विधानसभा चुनाव के कारण उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह वसुंधरा के दबाव में उनकी पसंद के नेता सैनी को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया था। मगर विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद वसुंधरा राजे को किनारे किया जाने लगा।
मदन लाल सैनी का अचानक निधन हो जाने से उनके स्थान पर भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा राजे विरोधी धड़े के डा. सतीश पूनिया को राजस्थान भाजपा का अध्यक्ष बना दिया। तभी से वसुंधरा राजे भाजपा आलाकमान से नाराज है। हालांकि वसुंधरा राजे को भी पार्टी नेतृत्व ने भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर समायोजित कर दिया था। मगर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में पार्टी में उनकी कोई भूमिका नहीं रखी गई। ऐसे में वसुंधरा राजे मात्र दिखावटी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बन कर रह गई है। राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी वसुंधरा राजे को स्टार प्रचारक बनाकर नहीं भेजा जाता है।
अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध वसुंधरा राजे इन दिनों बहुत भाग दौड़ कर सक्रिय हो रही है। हाल ही में वो दिल्ली में सरकार व संगठन के कई बड़े नेताओं से मिल चुकी है। उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भी पहुंचकर वसुंधरा राजे ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। राजस्थान में वसुंधरा राजे विचार मंच के नाम पर उनके समर्थक पार्टी के समानांतर एक संगठन चला रहे हैं। जिसके माध्यम से समय-समय पर वसुंधरा राजे को प्रदेश नेतृत्व सौंपने की मांग की जाती रही जा रही है।
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डा. सतीश पूनिया प्रारंभ से ही संघ से जुड़े रहे हैं। वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भाजपा युवा मोर्चा व प्रदेश भाजपा संगठन के विभिन्न पदों पर काम करने के बाद प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए हैं। इस कारण उनकी पूरे प्रदेश में भाजपा कार्यकर्ताओं से सीधी जान पहचान है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद डा. सतीश पूनिया लगातार राजस्थान में दौरे कर रहे हैं। पूनिया ने पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे घनश्याम तिवारी की भी पार्टी में पुनः वापसी करवाई है। घनश्याम तिवारी वसुंधरा राजे से नाराजगी के चलते ही पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़े थे। जिसमें वह बुरी तरह फेल हो गए थे। फिर घनश्याम तिवारी कांग्रेस में शामिल हो गए थे। मगर प्रदेशाध्यक्ष पूनिया के प्रयासों से वह फिर से भाजपा में शामिल होकर धीरे-धीरे सक्रिय हो रहे हैं।
राजस्थान भाजपा में वसुंधरा राजे द्वारा हासिये पर लगाए गए सभी नेता प्रदेश अध्यक्ष डा. पूनिया के साथ लगे हुए हैं। उनका प्रयास है कि किसी भी स्थिति में वसुंधरा राजे को फिर से प्रदेश की कमान नहीं सौंपी जाए ना ही उनके नेतृत्व में उनको मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर विधानसभा का अगला चुनाव लड़ा जाए। वसुंधरा राजे के भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होने व उन्हें केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाने के बाद पार्टी आलाकमान वसुंधरा राजे को पूरी तरह से राजस्थान से बाहर करने के मूड में नजर आ रहा है। इस बात की वसुंधरा राजे को भी पूरी जानकारी है। इसीलिए अपने को प्रदेश की राजनीति में ही सक्रिय रखने के लिए वसुंधरा राजे आलाकमान पर दबाव बना रही है।
एक समय था जब वसुंधरा राजे राजस्थान की एक छात्र नेता हुआ करती थी। भैरों सिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बनने के बाद पूरे प्रदेश की भाजपा पर उनका नियंत्रण था। उपराष्ट्रपति से हटने के बाद जब भैरों सिंह शेखावत फिर से राजनीति में सक्रिय होने का प्रयास करने लगे तो वसुंधरा राजे ने उन्हें सिरे से खारिज कर ऐसी परिस्थितियां बना दी थी कि भैरोंसिंह शेखावत को अपने दामाद नरपत सिंह राजवी की विधानसभा सीट जिताने के लिए घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करना पड़ा था। आज भाजपा की राजनीति में वही वसुंधरा राजे अप्रासंगिक हो चुकी है। इस बात का उन्हें भी पता है। मगर फिर भी वह राजनीति में बने रहने के लिए अपना अंतिम प्रयास कर रही है। हालांकि इस बात का पता तो आगे जाकर ही चलेगा कि राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा अपनी उपस्थिति बरकरार रख पाती है या बाहर हो जाती है। मगर फिलहाल तो भाजपा की फूट का सीधा लाभ कांग्रेस को मिलता नजर आ रहा है।