सामाजिक समरसता के आध्यात्मिक उपासक संत शिरोमणि रविदास जी का जीवन, संघर्षों और चुनौतियों की महागाथा है। जहां उन्हें जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत पग-पग पर प्रताड़ना, यातना, अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा और हेय दृष्टि का व्यवहार अनुभूत हुआ। विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक निर्योग्यताओं से संघर्ष करते हुए संत रविदास ने मानवीय गरिमा को सही अर्थों में समझा और अस्पृश्य समाज को समझाते हुए कहा कि तुम हिंदू जाति के अभिन्न अंग हो, तुम्हें शोषित, पीड़ित और दलित जीवन जीने की अपेक्षा मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत रहना चाहिए।
संत रविदास का जन्म भारत में जिस काल में हुआ उस समय समाज का स्वरूप अत्यंत विक्षुब्ध, अशांत और संघर्षमय था। आतताइयों के आक्रमण के कारण समाज किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में था। छोटी-छोटी रियासतों में विभक्त भारतीय रियासतें मिथ्या दंभ और अभिमान में एक-दूसरे से युद्ध कर रही थीं। जर्जर सामाजिक ढांचा रूढ़ियों, प्रथाओं, अंधविश्वासों, मिथ्या आचरणों, आडंबरों और पाखंडों से सराबोर था। छुआछूत और अस्पृश्यता के अवैज्ञानिक और औचित्यहीन अभिशाप का टीका समाज के माथे पर अमिट स्याही से लगाया गया था। जहां आपसी विभेद, वर्ग भेद, जातिभेद, गैर बराबरी, सामाजिक अन्याय और अंतः संघर्ष की पराकाष्ठा समाज की सेहत को प्रदूषित कर रही थी।
ऐसी विषम स्थिति में प्रबुद्ध संत समाज द्वारा पुनर्जागरण का सजीव आंदोलन प्रारंभ हुआ। जिसमें संत रविदास का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। तथापि उनके समग्र आध्यात्मिक अवदान का अभी सही मूल्यांकन नहीं हो सका है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुत विराट, करिश्माई और चमत्कारी घटनाओं से परिपूर्ण था। उन्होंने तत्कालीन समाज की वेदना, पीड़ा और मर्म को समझा और उसके व्यावहारिक समाधान जन भाषा में प्रतिपादित किए। उनकी वाणी में लोक कल्याण का स्वर प्रमुखता से व्यक्त हुआ। वह उन संतों में नहीं थे जो गुफाओं में बैठकर केवल आत्म कल्याण के लिए स्वांतः सुखाय साधना करें। उनका दर्शन पलायनवादी नहीं था। उनकी दृष्टि में वही व्यक्ति साधु है, जिसने सतरुपी परम तत्व को अनुभूत कर अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया हो और जिनके कार्यों से लोक कल्याण की पवित्र धारा प्रवाहित होती हो। संत रविदास का चिंतन आत्मोन्नति सहित परमात्मा के मिलन को साध्य मानकर लोकमंगल की कामना करता है। ईश्वरोन्मुख तो कोई भी व्यक्ति हो सकता है किंतु उसके जीवन में कर्मकांड रहित निर्मल प्रेम और भक्ति का सहज अनुभूति का दिव्य स्वरूप होना चाहिए।
दीनता और विनम्रता की साक्षात प्रतिमूर्ति संत रविदास जी की आध्यात्मिक चेतना सबका मंगल, सदा मंगल और मंगल ही मंगल का उद्घोष करती है जो मनुष्य को जन्म से नहीं वरन सत्कर्म और आध्यात्मिक उपलब्धियों से बड़ा मानती है। उनकी उदार मानवीय दृष्टि दैवी संपदा से युक्त स्फटिक की भांति प्रांजल और वास्तविक अर्थ में चिरप्रणम्य है।
संत रविदास ने धर्म अथवा साधना की कोई शास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत नहीं की किंतु सामाजिक व्यवस्था को विकृत करने वाले छुआछूत, ऊंच-नीच, भेदभाव, अन्याय, शोषण और अनाचार का प्रबल विरोध करते हुए मूल्यहीन परंपराओं की कटु आलोचना की। यद्यपि उनकी आलोचना में किसी प्रकार की वक्रता, उलझन, कर्मकांड और ज्ञान के दिखावे का दंभ नहीं है और ना ही वर्ण तथा जाति भेद का बंधन है। रविदास जी ने समाज की प्रगति और समरसता को अवरुद्ध करने वाली अस्पृश्यता की विकृति, जिसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है, विनम्रतापूर्वक विरोध कर समतावादी समाज की स्थापना पर बल दिया। संत रविदास ने तत्कालीन सामाजिक समस्याओं का व्यावहारिक समाधान उन्मुक्त भाव से व्यक्त करते हुए किसी संप्रदाय का विरोध नहीं किया। वरन उनकी अंतरात्मा को जागृत कर पारस्परिक सद्भाव और बंधुता का संदेश दिया- “कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।”
संत रविदास का जन्म वाराणसी में संवत 1456 को एक निर्धन चर्मकार परिवार में हुआ था। पिता रघु जी जूते गांठने का काम करते थे। रविदास जी बचपन से ही आध्यात्मिक और उदार प्रवृत्ति के थे। उनका कहना था कि सच्ची साधना मनोनिग्रह है। इंद्रियों का दास बने रहने पर भौतिक संपदा पतन का कारण बनती है।
परोपकार की निर्मल भावनाओं के पक्षधर रविदास जी कहते थे कि सामर्थ्य वाले लोगों को अपनी संपदा में दूसरे अभाव ग्रस्तों को भी भागीदार बनाना चाहिए अन्यथा संग्रह किया हुआ अनावश्यक धन, विपत्ति का रूप धारण कर लेता है। वे प्रतिदिन अपने हाथ से बनाए एक जोड़े जूते जरूरतमंदों को बिना किसी भेदभाव के दान किया करते थे। लेकिन पिता को यह उदारता पसंद नहीं थी। उन्हें घर से पृथक कर दिया किंतु रविदास जी को इस बात का कोई मलाल नहीं रहा और मनोयोग पूर्वक बढ़िया जूते बनाने के काम को ही पूजा मानकर निरंतर करते रहे।
संत रविदास की साधना और भक्ति भावना की श्रेष्ठता के कारण काशी राज दंपत्ति तथा चित्तौड़ की झाली रानी और भक्त मीराबाई ने स्वप्रेरणा से बिना किसी दबाव के उन्हें अपना गुरु बनाने का सौभाग्य प्राप्त किया। जो तत्कालीन समाज में संत रविदास की एक असाधारण, अपूर्व और अत्यंत अविरल उपलब्धि थी जिसके कारण वह लोक नायक के रूप में समाज में श्रद्धा और आस्था के प्रतीक बन गए थे।
भक्तमाल में नाभादास ने रामानंद के शिष्य रविदास की विमल वाणी को संशय और संदेह की ग्रंथि को खोलने में सक्षम माना है। रविदास के समकालीन अनेक संतों ने उनकी प्रशंसा की। संत कबीर ने कहा साधुन में रविदास संत हैं। सिखों के धर्म ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी संत रविदास के 40 पद सम्मान के साथ सम्मिलित किए गए। वे कहते थे- यदि ऊंचा बनना चाहते हो तो बड़़े कर्म करो। जाति से महानता नहीं मिलती। जो लोग जात-पांत के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव करते हैं, वे ईश्वर के प्यारे नहीं हो सकते क्योंकि ईश्वर ने ही सभी को बनाया है।
संत रविदास की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी किंतु वे स्वाभिमानी थे। उनकी सहायता करने के उद्देश्य से एक साधु पारसमणि (जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है) लेकर उनकी कुटिया पर आए किंतु रविदास जी ने वह पारसमणि लेने से नम्रतापूर्वक इनकार कर दिया और कहा मेरे पास परमात्मा नाम का सच्चा पारसमणि है, जो बड़े से बड़े पापी को भी संत बना देता है। हरि का नाम मेरे लिए कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिंतामणि है। मुझे पारस की आवश्यकता नहीं है। रविदास जी अपनी संत मर्यादा का पालन करते हुए किसी की भेंट अपने निजी उपयोग के लिए स्वीकार नहीं करते थे। साधु पारसमणि को उनकी कुटिया के छप्पर में खोंसकर चले गए।
कुछ समय बाद साधु उनकी कुटिया पर लौटे तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि संत रविदास की आर्थिक स्थिति में बदलाव नहीं आया। साधु ने पारसमणि का पूछा तो रविदास ने कहा कि आप जहां रख गए होंगे, वहीं उसे ढूंढ लीजिए। वह पारसमणि छप्पर में वैसी की वैसी साधु को प्राप्त हुई। साधु ने कहा संत रविदास तुम्हारी निस्पृहता धन्य है। भक्त मीराबाई ने भी रविदास जी की गरीबी दूर करने के लिए एक कीमती हीरा भेंट करना चाहा किंतु संत रविदास ने उसे स्वीकार नहीं किया। झाली रानी से भी उन्होंने स्वर्ण मुद्राएं स्वीकार नहीं की और कहा कि उनके पास पहले से ही इतना अधिक धन पड़ा है कि उन्हें किसी सांसारिक भेंट की आवश्यकता ही नहीं है।
संत रविदास का मत है कि मानव जीवन का परम उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। जीवन क्षणभंगुर है, अतः सांसारिक मायाजाल से बचकर परमात्मा का नाम स्मरण कर जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। उन्होंने मानव मात्र की समता पर बल दिया। संगत से ही व्यक्ति परमात्मा या दुष्ट आत्मा बनता है। अतः पशु बलि, जीव हिंसा, व्यसन मुक्ति और धर्मांतरण के लिए हिंसा का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि आर्थिक कार्यों में नैतिकता, श्रम की प्रतिष्ठा तथा नारी की गरिमा का सम्मान करना चाहिए।
सबके मंगल, सबके कल्याण और सबके सम्मान की इच्छा ही रविदास जी के जीवन दर्शन का वैशिष्ट्य है। वे कहते हैं- “ऐसा चाहूं राज में जहां मिले सबन को अन्न, छोट बड़े सब सम बसें रैदास रहे प्रसन्न।” एक बूंद से सब जग उपजया मंत्र के अर्चक संत रविदास ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में उसी परमात्मा का अंश विद्यमान है, फिर किस आधार पर किसी को ऊंचा और किसी को नीचा समझा जाए। उनकी अनन्य भक्ति का यह भजन दृष्टव्य है- “प्रभुजी! तुम चंदन हम पानी जाकी अंग-अंग बास समानी। प्रभुजी! तुम दीपक हम बाती, जाकी ज्योति बरै दिन राती। प्रभुजी! तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहीं मिलत सुहागा।”
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पढ़े-लिखे सभ्य समाज की यह विडंबना है कि आज भी दलितों के प्रति अस्पृश्यता का अभिशाप समाज के लिए कलंक है। देश में प्रतिदिन कहीं ना कहीं दलितों के प्रति शोषण, अन्याय, अनाचार और महिलाओं के विरूद्ध अपराध, हत्याएं आदि की ह्रदयविदारक घटनाएं घटती रहती हैं। कहने को हमारा देश अनेक धर्माचार्योंं, अवतारों, संतों और महात्माओं का देश है जहां पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, जीव-जंतु और यहां तक कि पत्थरों की भी पूजा की जाती है किंतु यह कैसा विचित्र विरोधाभास है कि मानव को मानव छूने से अपवित्र और अस्पृश्य हो जाता है।
नि:संदेह संत शिरोमणि रविदास जी का समग्र चिंतन केवल किसी वर्ग विशेष का ही नहीं वरन् वह समूची मानवता के कल्याण की उन्नयन की धरोहर है। अतः राष्ट्र की एकता ही नहीं वरन राष्ट्र के समग्र विकास और स्वस्थ समाज के लिए सामाजिक समरसता के सपनों को साकार करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। जन्म आधारित भेदभाव को तिलांजलि देनी होगी और कानूनों का सख्ती से पालन व सामाजिक चेतना जागृत करनी होगी। जैसा कि संत रविदास ने कहा है- “रैदास जन्म के कारणे होत न कोई नीच, नर को नीच करि डारि हैं ओछे कर्म की कीच।”