
- बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने का मंच साबित हुआ
- एससीओ शिखर सम्मेलन नें यह संकेत दिया कि एशिया और यूरेशिया के देश अब अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट हो रहे हैं
- भारतीय कूटनीति,पश्चिम और एशिया दोनों को यह संदेश देने में सफ़ल रही कि भारत किसी का पिछलग्गू नहीं,बल्कि स्वतंत्र और संतुलनकारी शक्ति है
एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी
शंघाई सहयोग संगठन 31 अगस्त से 1 सितंबर 2025 तियानजिन चीन में बदलता हुआ अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य देखने को मिला।2025 की विश्व राजनीति उस मोड़ पर खड़ी है,जहाँ अमेरिकाकी पारंपरिक प्रभुत्वशाली स्थिति को गंभीर चुनौतियाँ मिल रही हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की”अमेरिका फर्स्ट”नीति,जिसमें टैरिफ औरएकतरफा आर्थिक प्रतिबंध प्रमुख हथियार हैं, ने न केवल चीन और रूस बल्कि भारत जैसे साझेदार देशों के साथ भी तनाव पैदा कर दिया है।दूसरी ओर, यूक्रेन युद्ध, ताइवान विवाद, पश्चिम एशिया में अस्थिरता और ऊर्जा संकट जैसी घटनाओं ने दुनियाँ को अस्थिर बना रखा है। ऐसे समय में चीन के तियानजिन शहर में आयोजित 25वें शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन ने यह संकेत दिया कि एशिया और यूरेशिया के देश अब अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट हो रहे हैं।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि यह सम्मेलन केवल एक औपचारिक मुलाकात नहींथा,बल्किबहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने का मंच था। भारत, रूस और चीन की सक्रिय भागीदारी और आपसी समीकरणों ने यह साबित किया कि पश्चिमी दबाव अब उतना प्रभावी नहीं रह गया है जितना शीत युद्ध के बाद था।एससीओ के राष्ट्राध्यक्षों का पच्चीसवां शिखर सम्मेलन संयुक्त घोषणा पत्र के साथ समाप्त हो गया,31 अगस्त से लेकर 1 सितंबर तकचली इस बैठक में सदस्य देशों ने आतंकवाद, ट्रंप की संरक्षणवादी नीति, रूस और यूक्रेन युद्ध, गाजा संकट एवं वैश्विक व्यवस्था पर पश्चिम के अधिपत्य के साथ कमजोर होती ग्लोबल गवर्नेंस पर अपनी चिंताएं साझा की. इन चुनौतियों से निपटने के लिए इन्होंने अपने घोषणा पत्र में भारत के द्वारा दिए गए मूल संकल्प “एक पृथ्वी, एक परिवार एवं एक भविष्य” पर जोड़ दिया।चूंकि एससीओ का मुख्य जोर बहुध्रुवीकृत व्यवस्था को मजबूत करते हुए तीसरी दुनिया के देशों के हितों की रक्षा करना है, इसलिए इस सम्मेलन में इन देशों की चिंताओं को रेखांकित करते हुए उसे दूर करने के प्रयास पर भी बल दिया गया।यह शिखर सम्मेलन भारत के लिए एक अवसर था, जहां एक ओर ट्रंप अपनी टैरिफ नीति से भारत की वैश्विक आकांक्षाओं को नियंत्रित करना चाह रहे हैं, तो दूसरी ओर पाकिस्तान अमेरिका के साथ शीतयुद्ध कालीन गठबंधन से भारत के शक्ति संतुलन को चुनौती देने के प्रयास में है, यह शिखर सम्मेलन वैश्विक राजनीति का निर्णायक मोड़-बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने का मंचसाबित हुआ इसी संदर्भ में इस शिखर सम्मेलन को समझने की आवश्यकता है।
साथियों बात अगर हम भारतीय पीएम की कूटनीतिक क्रांति की करें तो,उनकी भूमिका इस सम्मेलन में बेहद अहम रही। भारतीय कूटनीति का यह नया चेहरा पश्चिम और एशिया दोनों को यह संदेश देने में सफल रहा कि भारत किसी का पिछलग्गू नहीं, बल्कि स्वतंत्र और संतुलनकारी शक्ति है।उन्होंने अपने भाषण में तीन प्रमुख बिंदु उठाए,आतंकवाद का उन्मूलन, संप्रभुता का सम्मान और वैश्विक आर्थिक संतुलन। उन्होंने कहा कि किसी भी देश की संप्रभुता का उल्लंघन वैश्विक अस्थिरता को जन्म देता है। यह सीधा संदेश रूस-यूक्रेन युद्ध और चीन- ताइवान विवाद दोनों से जुड़ा हुआ था।भारत की कूटनीति का यह स्वरूप अमेरिका के लिए भी चिंता का विषय है क्योंकि हाल ही में ट्रंप प्रशासन ने भारत की आईटी और फार्मास्यूटिकल कंपनियों पर नए टैरिफ लगाने की घोषणा की थी। लेकिन तियानजिन सम्मेलन में मोदी का रवैया इस बात का प्रमाण था कि भारत आर्थिक दबावों केबावजूद स्वतंत्र विदेश नीति पर अडिग है। यही कारण है कि कई विश्लेषकों ने इसे “मोदी की कूटनीतिक क्रांति” नाम दिया।
साथियों बात अगर हम इस सम्मेलन के सानिध्य से मोदी- पुतिन-जिनपिंग की यारी, कूटनीति का त्रिशूल की करें तो,इस सम्मेलन की सबसे बड़ी घटना थी मोदी, पुतिन और जिनपिंग का एक साथ आना। इसे पश्चिमी मीडिया ने “न्यू एशिन त्रिडेंट” यानी “कूटनीति का त्रिशूल” कहा।अमेरिका ने हाल ही में भारत, रूस और चीन से आयातित तकनीकी उत्पादों, ऊर्जा संसाधनों और डिजिटल सेवाओं पर भारी टैरिफ लगाया था। ट्रंप का उद्देश्य था कि ये देश आर्थिक दबाव में आकर वाशिंगटन की शर्तें मान लें। लेकिन तियानजिन सम्मेलन में तीनों नेताओं की एकजुटता ने यह साबित कर दिया कि रणनीतिक साझेदारी आर्थिक प्रतिबंधों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होती हैँ (1) भारत- रूस: ऊर्जा और रक्षा सहयोग ने दोनों देशों को करीब रखा है। भारत रूस से कच्चा तेल और गैस आयात बढ़ा रहा है।(2)भारत-चीन: सीमा विवादों के बावजूद दोनों देशों का व्यापार 200 बिलियन डॉलर से ऊपर जा चुका है।(3)रूस-चीन: पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच चीन रूस का सबसे बड़ा ऊर्जा और तकनीकी साझेदार बन चुका है।इस त्रिकोणीय साझेदारी ने यह संकेत दिया कि अमेरिका की टैरिफ राजनीति लंबे समय तक इन देशों को कमजोर नहीं कर पाएगी।
साथियों बात अगर हम पूरे विश्व का ध्यान मोदी- पुतिन की 45 मिनट की कार डिप्लोमेसी द्वारा आकर्षित करने की करें तो, शिखर सम्मेलन के दौरान मोदी और पुतिन की 45 मिनट लंबी कार यात्रा ने वैश्विक मीडिया में सुर्खियाँ बटोरीं।”कार डिप्लोमेसी” का यह अनोखा उदाहरण इसलिए अहम था क्योंकि एक दिन पहले ही मोदी ने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से फोन पर बातचीत की थी।कूटनीति विशेषज्ञ मानते हैं कि मोदी ने पुतिन तक ज़ेलेंस्की का संदेश पहुँचाया और दोनों पक्षों के बीच संवाद की संभावना पर चर्चा की। रूस और यूक्रेन केबीच संवाद की किसी भी कोशिश में भारत की भागीदारी अमेरिका और यूरोप के लिए असहज स्थिति पैदा करती है,क्योंकि इससे भारत “मध्यस्थीय शक्ति” के रूप में उभरता है।इसके साथ ही यह मुलाकात अमेरिका को सीधा संदेश थी कि भारत रूस से दूरी नहीं बनाएगा, बल्कि रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखेगा। यह वही नीति है जिसने भारत को शीत युद्ध के दौरान”गुटनिरपेक्ष आंदोलन” का अगुवा बनाया था जो विश्व के लिए रेखांकित करने वाली बात है।
साथियों बात अगर हम चीन के मीडिया में मोदी- जिनपिंग की दोस्ती की जबरदस्त चर्चाओं की करें तो,चीन के घरेलू मीडिया ने मोदी- जिनपिंग की मुलाकात को जिस तरह से प्रचारित किया, वह अपने आप में एक कूटनीतिक संकेत था।चीन के प्रिंट, डिजिटल टीवी और सोशल मीडिया पर दिनभर इस दोस्ती की खबरें चलती रहीं।यह बदलाव इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से भारत और चीन के संबंध लद्दाख सीमा विवाद और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण तनावपूर्ण रहे हैं। लेकिन तियानजिन सम्मेलन में दोनों नेताओं के बीच नरमी के संकेत मिले। चीन जानता है कि अमेरिका के खिलाफ एक मजबूत एशियाई गठबंधन तभी संभव है जब भारत और चीन के बीच संतुलन बना रहे। “ड्रैगन- एलीफैंट फ्रेंडशिप” का यह नया अध्याय पश्चिमी देशों के लिए चिंता का विषय है। यदि भारत और चीन आपसी मतभेद कम कर लें,तो एशिया की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक ताकत पश्चिमी दबावों का मुकाबला आसानी से कर सकती है।
साथियों बात अगर हम एशिया द्वारा जारी संयुक्त घोषणा पत्र मैं भारत की कूटनीतिक जीत करें तो पहलगाम आतंकी हमले की निंदा-22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में निर्दोषनागरिकों और फिल्म कलाकारों की मौत ने पूरे क्षेत्र को हिला दिया था। एससीओ शिखर सम्मेलन के घोषणा पत्र में पहलगाम हमले की कड़ी निंदा की गई।यह निंदा केवल औपचारिकता नहीं थी, बल्कि भारत की कूटनीतिक जीत थी। एससीओ के कई सदस्य देश पाकिस्तान के साथ करीबी रखते हैं, लेकिन इस बार सभी ने आतंकवाद पर एकजुट होकर भारत का समर्थन किया।इससे पाकिस्तान पर दबाव बना कि वह अपने यहां पल रहे आतंकी ढाँचों पर कार्रवाई करे। भारतीय पीएम ने अपने संबोधन में दोहराया कि आतंकवाद के लिए कोई अच्छा या बुरा कारण नहीं हो सकता। यह बयान अमेरिका और यूरोप तक संदेश देने वाला था, जहाँ अक्सर आतंकवाद को “राजनीतिक संदर्भ” में तौला जाता है।
साथियों बात अगर हम शिखर सम्मेलन द्वारा जारी संयुक्त घोषणा पत्र को समझने की करें तो, इसमें छह बड़े बिंदु शामिल थे:- (1) आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ साझा लड़ाई। (2) आर्थिक सहयोग- ऊर्जा, तकनीक और डिजिटल अर्थव्यवस्था पर ध्यान। (3)सार्वभौमिक संप्रभुता का सम्मान-किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वादा। (4) अमेरिकी टैरिफ नीति की अप्रत्यक्ष आलोचना। (5) यूरेशियन कनेक्टिविटी, बीआरआई और भारत की चाबहार परियोजना को जोड़ने की संभावना।(6) सांस्कृतिक और शैक्षिकसहयोग।यह घोषणा पत्र एससीओ को केवल सुरक्षा मंच से आगे ले जाकर आर्थिक और सांस्कृतिक साझेदारी का केंद्र बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। मोदी ने इसकी सराहना की और सीधे दिल्ली लौटकर इसे भारत की उपलब्धि बताया।
साथियों बात अगर हम शिखर सम्मेलन के प्रमुख नेताओं के संबोधन व अमेरिका को संदेश की करें तो, तीनों प्रमुख नेताओं,जिनपिंग, मोदी और पुतिन,के भाषण अमेरिका की नीतियों पर अप्रत्यक्ष लेकिन कड़ा हमला थे।जिनपिंग ने कहा कि दुनिया अब एकध्रुवीय शक्ति के आधिपत्य से बाहर निकलकर बहुध्रुवीय संतुलन की ओर बढ़ रही है।मोदी ने आतंकवाद और संप्रभुता पर जोर दिया और कहा कि किसी भी राष्ट्र को दूसरे पर थोपे गए आदेश स्वीकार नहीं करने चाहिए।पुतिन ने नाटो विस्तार और अमेरिकी टैरिफ नीति पर तीखा प्रहार किया और इसे “वैश्विक असंतुलन की जड़” बताया।तीनों भाषणों का सार यही था कि अमेरिका को अब संतुलन में रखने का समय आ चुका है और एशिया मिलकर यह भूमिका निभाएगा।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि तियानजिन का 25वां एससीओ शिखर सम्मेलन केवल औपचारिक कूटनीति नहीं था,बल्कि यह आने वाले दशक की वैश्विक राजनीति की दिशा तय करने वाला ऐतिहासिक क्षण था। मोदी ने भारत की कूटनीति को नए आयाम दिए, पुतिन और जिनपिंग के साथ मिलकर “कूटनीति का त्रिशूल” बनाया, यूक्रेन संकट पर मध्यस्थ की भूमिका निभाई और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक सहमति बनाई।यह सम्मेलन इस बात का प्रमाण है कि दुनिया अब बहुध्रुवीय युग में प्रवेश कर चुकी है और एशियाई देशों की एकजुटता अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आने वाले वर्षों में तियानजिन सम्मेलन को उसी तरह याद किया जाएगा जैसे बांडुंग सम्मेलन (1955) को गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव के रूप में याद किया जाता है।