ऋतुपर्ण दवे
दरअसल गुजरात, हिमाचल और दिल्ली नगर निगम के चुनाव यानी तीनों अपने आप में बेहद अहम भी रहे और अलग भी। दलीय राजनीति से इतर इन चुनावों ने दुनिया में भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता को फिर दर्शाया। मतदाताओं की मनःस्थिति को समझने वालों को ये जरूर अलग लगेंगे और लगने भी चाहिए। लेकिन इन चुनावों से निकले संदेश को बिना किसी पूर्वाग्रह या लागलपेट के सभी राजनीतिक दलों को समझना भी होगा। निश्चित रूप से भाजपा ने गुजरात में बहुत ही अच्छा किया है जिसे स्वीकारना होगा लेकिन हिमाचल की हार और दिल्ली में पिछड़ने के मंथन से जो कहानी निकलेगी उससे सीख भी लेनी पड़ेगी।
गुजरात चुनावों में शुरू से ही भाजपा की धमक दिखाई दे रही थी। मोरबी दुर्घटना के बाद कुछ सवाल जरूर उठे थे जो कयास ही साबित हुए। नतीजों ने बता दिया कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी का कोई सानी नहीं है। हो भी नहीं सकता और फिलाहाल होना दूर-दूर तक दिख भी नहीं रहा। जो लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे, दूसरा स्वयं गुजरात से हैं और तीसरा उनका लोगों से जुड़ाव का तौर-तरीका देश और दुनिया में अलग और मशहूर हैं। ऐसे में भला गुजरात कैसे अपने लाड़ले की गुहार को नहीं सुनता? हुआ भी यही।
182 में से 156 सीटें जीतना वह भी सातवीं बार लगातार अपने आप में बहुत बड़ा रिकॉर्ड है। निश्चित रूप से यह भावनात्मक अपील और मोदी के खिलाफ खरगे के बोल का भी कुछ असर रहा होगा। बहरहाल यह तो सामने है कि लोगों पर मोदी जादू चला जिसने 2002 के उन्हीं के भाजपा की 127 सीट और 1985 में काँग्रेस के 149 सीट जीतने के रिकॉर्ड को भी ध्वस्त कर दिया। गुजरात के बाहर बैठे राजनीतिक पण्डितों को लग रहा था कि 27 सालों से लगातार भाजपा के सत्ता में बरकरार रहने से सत्ता विरोधी लहर या अण्डर करंट तो होगा जो दूर-दूर तक दिखा नहीं। उल्टा काँग्रेस 2017 में 77 सीटों के मुकाबले इस बार केवल 17 पर सिमटी और 60 सीटों का नुकसान उठा बैठी या यूँ कहें कि भाजपा ने 99 के मुकाबले 156 यानी 57 सीटों पर ज्यादा बढ़त हासिल कर सारी आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया। हाँ वोट प्रतिशत के लिहाज से इस बार भाजपा को 52.2 प्रतिशत वोट मिले जबकि 2017 में 49.05 प्रतिशत हासिल हुए थे। वहीं काँग्रेस 27.25 प्रतिशत वोट के साथ बेशक दूसरे नंबर पर रही जो 2017 में 41.44 प्रतिशत था। यह सही है कि इस बार आम आदमी पार्टी ने गुजरात का मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया था जो खेल बिगाड़ने के लिए काफी रहा। आप को मिले 12.92 प्रतिशत वोट मायने रखते हैं। हालांकि आप ने जीत तो 5 सीटों पर हासिल की है लेकिन 35 सीटों पर दूसरे नंबर पर रहकर काँग्रेस को पछाड़ दिया। वहीं ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुसलमीन पार्टी (एआईएमआईएम) यानी ओवैसी की पार्टी को 0.29 प्रतिशत वोट मिले जो नोटा के 1.58 प्रतिशत से भी कम थे। ओवैसी वो नहीं कर सके जो मकसद था। 1 सीट समाजवादी पार्टी द्वारा जीतना भी थोड़ा अलग सा है जबकि 3 निर्दलीय भी जीते। गुजरात में 10 से ज्यादा सीटों पर मुस्लिम जनसंख्या 20 से 30 प्रतिशत है लेकिन इनमें से 9 पर भाजपा विजयी रही जबकि एक सीट पर ही इमरान खेड़ावाला जमालपुर खाड़िया जीत सके जो कांग्रेस से हैं। निश्चित रूप से यह एक अलग विश्लेषण का विषय बनेगा।
चुनाव आयोग द्वारा जारी वोटों का प्रतिशत देखने से ही बहुत कुछ समझ आ जाता है। भाजपा 52.2 प्रतिशत, काँग्रेस 27.25 प्रतिशत, आप 12.92 प्रतिशत, बीएसपी 0.50 प्रतिशत, एआईएमआईएम 0.29 प्रतिशत, सपा 0.29 प्रतिशत, एनसीपी 0.24 प्रतिशत, सीपीआईएम 0.03 प्रतिशत, सीपीआई 0.01 प्रतिशत, सीपीआई(एमएल) (एल) 0.01 प्रतिशत, जद (यू) व एलजेपीआईवी 0.00 प्रतिशत जबकि नोटा 1.57 प्रतिशत और अन्य को 4.34 प्रतिशत वोट हासिल हुए। गुजरात की नई विधानभा के करीब 21 प्रतिशत यानी 38 विधायकों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। 2017 में ये प्रतिशत 26 था तब 47 विधायक दागी थे। इसमें कमीं आना अच्छी बात है।
हिमाचल की 68 सीटों के नतीजों भी अपनी अलग ही कहानी कहते हैं। काँग्रेस 40 सीट, भाजपा 25 तो निर्दलीय 3 सीट पर विजयी रहे। काँग्रेस को 43.90 प्रतिशत, भाजपा को 43.00 प्रतिशत, आप को 1.10 प्रतिशत, सीपीआई(एम) को 0.66 प्रतिशत, बसपा को 0.35 प्रतिशत, सीपीआई को 0.01 प्रतिशत, नोटा को 0.59 प्रतिशत तथा अन्य को 10.39 प्रतिशत वोट मिले। हिमाचल में भले ही रिवाज और राज की बात की जा रही हो लेकिन यहां भी टक्कर जबरदस्त काँटे की थी। 8 सीटों पर तो हार-जीत का अंतर एक हजार से कम वोटों का रहा। इसमें भी 5 सीटों पर कांग्रेस जीती वहीं 3 सीटों पर भाजपा विजयी रही। दिलचस्प मुकाबला भोरंज सीट का रहा जहाँ केवल 60 वोटों के अंतर से कांग्रेस जीती लगभग ऐसी ही जीत श्री नैना देवीजी सीट पर भी हुई जहाँ भाजपा महज 171 वोटों से जीती। अब हैरान कर देने वाली बात यह है कि इतने कम अंतर को भी भाजपा यहां क्यों नहीं समझ पाई जबकि हिमाचल में प्रधानमंत्री की 4 बड़ी रैलियां, अमित शाह की 11 और योगी आदित्यनाथ ने 16 रैलियां की थीं। जेपी नड्डा का गृह राज्य था जहाँ उन्होंने 20 सभाएं की। मुख्यमंत्री के रूप में जयराम ठाकुर ने 34 सभाएं की थीं। आप ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना कर सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे लेकिन जीता एक भी नहीं उल्टा सबकी जमानत जब्त हो गई। वहीं कांग्रेस ने सिवाय प्रियंका गांधी की 5 रैलियों के और किसी स्टार प्रचारक को नहीं उतारा फिर भी बेहतर प्रदर्शन किया। इससे लगता है कि हिमाचल अपने रिवाज से नहीं डिगा। ऐसा लगता है कि रिवाज और राज के बीच के मिजाज को भी आगे समझने की कोशिश जरूरी है। हिमाचल का रिवाज काम देखने में देर नहीं करता। हिमाचल के 41 नवनिर्वाचित विधायक आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं जबकि 2017 में ऐसे विधायकों की संख्या 32 थी इस प्रकार आपराधिक मामलों में लिप्त विधायकों की संख्या का प्रतिशत 12 से बढ़कर 18 हो गई है।
इसी तरह दिल्ली नगर निगम के चुनावों ने भी नई इबारत लिखी दी। तमाम दावों और वादों के बावजूद केवल आप का ही जादू चला। दिल्ली नगर निगम के चुनाव भी देश की राजनीति में अहम हैं। इस बार 15 सालों से काबिज भाजपा को हरा आम आदमी पार्टी का जीतना बेहद अलग है। 250 सीटों में आप को 134 सीट और भाजपा ने 104 सीट मिलीं जबकि कांग्रेस को 9 सीटों से संतोष करना पड़ा और निर्दलीयों ने 3 सीटें जीतीं। रोचक यह रहा कि आप और भाजपा के बीच 3 प्रतिशत से भी कम वोटों का अंतर रहा। आप को 42.05 प्रतिशत तो भाजपा 39.09 प्रतिशत मत मिले जबकि कांग्रेस को 11.68 प्रतिशत। ऐसा लगता है कि दिल्ली में केजरीवाल की बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, मुफ्त बिजली-पानी, महिलाओं के लिए निःशुल्क बस यात्रा, झुग्गी बस्तियों व अनाधिकृत कालोनियों की सुध का भरोसा और इन सबसे ऊपर दिल्ली का कूड़ा बड़ा मुद्दा था। दिल्ली का प्रदूषण भी कहीं न कहीं असर कर गया। अब केजरीवाल का मकसद दिल्ली और यमुना की सफाई तो कूड़े के पहाड़ों के निपटारे के अलावा नगर निगम को भृष्टाचार मुक्त करने, टैंकर माफियाओं से निपटने की चुनौती तथा केवल 10 वर्षों में ही राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर देश भर में पार्टी का विस्तार होगा।
यदि इन तीनों चुनाव नतीजों पर नजर डालें तो दिखता है कि तीनों अलग-अलग हैं और अपने-अपने स्थानीय मुद्दों और राज्य के नेताओं के विश्वास पर ज्यादा केन्द्रित रहे। 2023 में फिर 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। निश्चित रूप से गुजरात, हिमाचल और दिल्ली के नतीजों के बारीक विश्लेषण इन राज्य सरकारों के लिए जहां सतर्क होने का की घण्टी है वहीं मजबूत विकल्प का सपना देख रहे नए दलों की चुनौती भी होगी। निश्चित रूप से 2023 में मध्य प्रदेश, कर्नाटक त्रिपुरा जहां भाजपा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में काँग्रेस, तेलंगाना तेलंगाना में राष्ट्र समिति यानी टीआरएस, मेघालय में मेघालय डेमोक्रेटिक एलायंस यानी एमडीए, नागालैंड में संयुक्त लोकतांत्रिक गठबंधन यानी यूडीए और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की सरकारें हैं। जहाँ दलों को स्पष्ट बहुमत है वहां चुनौती भी बड़ी है लेकिन जहाँ गठबंधन की सरकारें हैं वहाँ और भी बड़ी चुनौती होगी।
इन तीन नतीजों के तीन अलग मिजाज और बारीकियों से लगता है कि 2023 के चुनाव भी ऐसे ही हों? सच है कि 2024 के आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी का कोई विकल्प फिलाहाल दिखता नहीं है लेकिन विधानसभा चुनावों के मिजाज कमोवेश वहाँ के रिवाज, स्थानीय या प्रादेशिक समस्याओं और चुनौतियों पर ज्यादा निर्भर होंगे। जहाँ चुनाव होने हैं, सबके अपने-अपने मिथक भी हैं। बस देखना यही है कि परिवर्तन, डबल इंजन की सरकार या प्रदेश की राजनीति को समझने वाले मतदाता कैसा जनादेश देंगे?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं।)