“करोना में पानी”

सतीश “बब्बा”

लाकडाउन की घोषणा से पहले कोई नहीं जानता था कि, लाकडाउन क्या होता है! जो जहाँ था, जिस स्थिति में था। रुका रहा। लेकिन दूसरे लाकडाउन की घोषणा से लोग घबड़ा गए, भय की हवा से लोग चल पड़े रातोंरात, कोई जंगल के रास्ते, कोई रेल की पटरियों के सहारे। डर था कि, पुलिस ने देख लिया तो 14 दिन के लिए क्वारंटीन हो जाएंगे यह भी एक नया अनुभव था। कोई भूख से मर रहे थे, कोई घबड़ाहट से, कोई पैसों की लालच में मार डाले गए।

इंदौर से तीन मजदूर, बचते – बचाते हजारों किलोमीटर पैदल चलकर हमारे घर के बगल में रुके और सेठ की दुकान से नमकीन लिया। सेठ नमकीन का एक पाँच रुपये का पैकेट फेंक दिया लेकिन करोना के डर से पैसा नहीं लिया। तब दुकान भी चोरी – छिपे खुलती थी। वह प्यासे थे, पानी नहीं देकर सेठ ने अगली दुकान का रास्ता दिखा दिया।

वे मुझसे कह रहे थे कि, “भैया, जब – तक मध्य प्रदेश में थे, लोग दूर से खाना भी दे देते थे और दूर से बोतल में पानी भी दे देते थे। लेकिन उत्तर प्रदेश में आते ही, कोई दरवाजे में खड़े नहीं होने दे रहा है और हैंडपंप छूने नहीं दे रहे हैं।

उनकी आवाज और मुँह की पपड़ी कह रही थी कि, वह बहुत भूखे और प्यासे हैं। हमारे गाँव के नदी और तालाब सूख गए थे। हम उनको टाल दिए और आगे दुकान वाले ने भी ठहरने नहीं दिया।

वह चले गए, तब दिमाग ने कहा, हम उनको नहीं छूते तो नहीं छूते लेकिन दूर से बोतल में पानी दे सकते थे।

पता नहीं उनका क्या हुआ होगा, क्योंकि अभी हमारे गाँव से उनका गाँव दस किलोमीटर दूर था।

आज भी जब उनकी, उस घटना की याद आती है तो, दिल में एक हूक सी होती है और पश्चाताप से दिल जलने लगता है। और अब कर भी क्या सकते हैं।