सुशील दीक्षित विचित्र
कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा लहराने के बाद भारत जोड़ों यात्रा राजनीति में बिना कोई हलचल किये समाप्त हो गयी । राहुल गांधी ने यात्रा का आगाज जिस भाषण से किया था ,अंजाम तक उसी भाषण से पहुंचाया । संघ , भाजपा , मोदी पर नफरत फैलाने , उद्यमियों को नाजायज लाभ पहुंचाने लोगों को बांटने जैसे वे ही आरोप सुनने को मिले जो राहुल गांधी पिछले आठ सालों से लगाते आ रहे हैं । सभी चुनाव हारने के बाद भी लगाते आ रहे हैं । जिन लोगों को उम्मीद थी कि भारत जोड़ों यात्रा मोदी के खिलाफ कोई विमर्श गढ़ सकेगी वे प्रचार के संसाधनों के सामने भले ही यात्रा को बहुत सफल बता रहे हों लेकिन अंदरूनी तौर पर वे भी जानते हैं कि यात्रा से न राहुल गांधी की रीलांचिंग हो सकी , न पार्टी मजबूत हुई और न ही शेष विपक्ष के नेताओं को इतना प्रभावित कर सकी कि वे राहुल गांधी को अपना नेता मान ले ।
कन्या कुमारी से 7 सितंबर से शुरू हुई राहुल गांधी की महात्वाकांक्षी भारत जोड़ो यात्रा 145 दिन 3970 किमी चल कर 12 राज्य और दो केंद्र शासित राज्यों से गुजरती घोषित दिन से एक दिन पहले लाल चौक पर समाप्त हो गई। राहुल ने लाल चौक पर तिरंगा फहराया। उन्होंने और प्रियंका वाड्रा ने भारत जोड़ो नफरत छोड़ों के नारे लगवाये । इस नारे का खोखलापन इससे समझा जा सकता है कि पहले कांग्रेस का विचार था कि लालचौक पर तिरंगा फहराना आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाना है । यह विचार न तो कोई प्रेम का सन्देश देने वाला है और न भारत जोड़ने की प्रक्रिया के अनुकूल बताता है। लाल चौक भारत के नगर में है , संघ के कार्यालय में नहीं । तिरंगा फहराने ले बाद जयराम रमेश द्वारा यह कहना कि जवाहरलाल नेहरू के बाद बी राहुल गांधी ने लालचौक पर तिरंगा फहराया है जनता को मुगालता देना ही है। नेहरू जी के बाद राहुल गांधी तभी सुरक्षित रह कर तिरंगा फहरा सके लेकिन इससे राहुल गाँधी से 31 साल पहले और नेहरू जी के 34 साल बाद भाजपा के मुरली मनोहर जोशी ने लाल चौक के घंटाघर पर तिरंगा झंडा फहराया था । जोशी जी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की एकता यात्रा निकाली । 1991 में उन्होंने श्रीनगर पहुँच कर घंटाघर पर तिरंगा झंडा फहराया था । दैवयोग से इस यात्रा के व्यवस्थापक नरेंद्र मोदी ही थे । तब लालचौक पर तिरंगा फहराने की सोचना भी आत्मघात से कम नहीं था । 1980 में लालचौक पर घंटाघर बनाया गया । इसके कुछ समय बाद यह आतंकी गतिविधियों का केंद्र बन गया । सरकार चाहे अब्दुल्ला परिवार की रही हो या कांग्रेस की या मिली जुली लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री में इतना साहस नहीं हुआ कि ऐतिहासिक लाल चौक के घंटाघर पर तिरंगा लगा सकें । गणतंत्र दिवस पर भी वहां राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया जाता था ।
जोशी जी ने जब ध्वजारोहण किया तब श्रीनगर में तिरंगा रखना भी अपराध जैसा था। ऐसे माहौल में झंडा फहराने की देश भर में चर्चा हुई थी । इसके बाद फिर वही हालात बन गये । कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के दोनों कार्यकाल इस दिशा में कुछ भी नहीं कर सके । वैसे यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कुछ करना कांग्रेस के एजेंडे में कभी नहीं रहा । 2019 को जब मोदी सरकार ने धारा 370 हटा ली । इसके बाद से लाल चौक के घंटाघर पर तिरंगा लगातार फहरा रहा है । इसलिए राहुल गांधी ने वह झंडा लगा कर कोई ऐसा काम नहीं किया जिसके वैसे कसीदे काढ़े जाएँ जैसे कि दरबारी संस्कृति में रचे बसे कांग्रेसी कर रहे हैं । राहुल का कहना है कि वे चार दिन से कश्मीर में घूम रहे हैं लेकिन उनकी सफ़ेद को कोई लाल नहीं कर पाया । क्या ऐसा वे नौ साल पहले कर सकते थे ? और इतने ही साहसी हैं तो यह साहस तब क्यों नहीं दिखाया जब उनकी केंद्र में सरकार थी ? आज वे कश्मीरी पंडितों के बारे में सवाल उठा रहे हैं तो उनसे भी सवाल किया जा सकता है कि दस वर्ष उनकी सरकारें इस दिशा में कुछ क्यों नहीं कर सकी । यह पीड़ा तभी क्यों जगी जब कांग्रेस सत्ताच्युत हो कर अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ रही है ।
यात्रा के दौरान राहुल गांधी यह भी प्रचारित करते रहे कि उन्होंने नफरत के बाजार में प्यार की दूकान खोली है । मतलब यह कि वाया भाजपा पूरे भारत में नफरत फैली है और वे कांग्रेस नाम की अपनी निजी दूकान से प्यार के संदेश दे रहे हैं । दिल्ली में उन्होंने कहा कि अब तक तीन हजार किमी की यात्रा के दौरान उन्हें कहीं भी नफरत नहीं मिली । तो फिर वह कौन सा बाजार है जहां नफरत बिकती है और प्यार बेचने वाली उनकी इकलौती दूकान है जबकि वे खुद मान रहे हैं कि देश में कहीं नफरत नहीं । उस कश्मीर में भी नहीं जहां कभी नफरत के कारण ही हजारों कश्मीरियों को क़त्ल कर दिया गया था और लाखों को भगा दिया था । अलबत्ता कश्मीरी पंडितो ही नहीं सेना के जबानों के हत्यारे घृणा से लबरेज अलगाववादियों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने आवास पर सम्मानित करते थे । नफरत के कारण ही कश्मीर को आजादी दिलाने और देश के हजार टुकड़े होते देखने के तलबगारों के प्रमुख सहायक कन्हैया को कांग्रेस का नेता बनाने और भारत जोड़ों यात्रा से भी जोड़ने के बाद राहुल गांधी या कांग्रेस के अन्य नेताओ की बात से कैसे सहमत हुआ जा सकता है कि वे भारत जोड़ना चाहते हैं और प्यार का संदेश दे रहे हैं। पता नहीं उनका संदेश कहीं पहुंचा भी या नहीं और यह भी पता नहीं कि राहुल गांधी अपनी मैराथन दौड़ से भारत को अपने मनमुताबिक जोड़ पाये या नहीं लेकिन वे विपक्ष के बड़े चेहरों को जोड़ने में नाकाम रहे । पूरी यात्रा के दौरान फारुख अब्दुल्ला को छोड़ कर कोई बड़ा नेता नहीं आया। कई दलों और नेताओं ने उनसे परहेज किया तो कुछ से उन्होंने । उन्होंने यात्रा के समापन पर रैली में शामिल होने के लिए 21 दलों को न्योता दिया था लेकिन कांग्रेस समेत कुल नौ दलों ने ही भाग लिया । केरल कांग्रेस की भागीदारी को अलग दल के रूप में नहीं माना जा सकता । कांग्रेस की सभा में डीएमके, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, वीसीके, आईयूएमएल, , आरएसपी, जेएमएम, सीपीआई के नेता दिखाई दिए । जिन बारह दलों ने सभा से किनारा किया उनमें समाजवादी पार्टी , तृणमूल कांग्रेस , टीडीपी , आम आदमी पार्टी , जदयू , राजद , शिव सेना , सीपीएम , एनसीपी जैसे प्रमुख पार्टियां हैं । राहुल गाँधी ने कहा कि विपक्ष बिखरा हुआ है। उसे एक साथ मिल कर भाजपा और संघ से लड़ना होगा। लड़ना तो कई बड़े विपक्षी नेता चाहते हैं । लिस्ट बड़ी है फिर भी ऐसी लड़ाई के लिए एक मंच बनाने के लिए इस समय तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव , बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री राष्ट्रीय पटल पर सक्रिय हैं । इनमें से कोई भी राहुल गांधी को विपक्षी एकता का मुख्य चेहरा मानने को तैयार नहीं हैं । कांग्रेस को आशा थी कि यात्रा के बाद राहुल गांधी का कद और ऊंचा होगा । विपक्ष के अन्य दल भी उनके नेतृत्व में 2024 का चुनाव लड़ने को तैयार हो जायेंगे लेकिन सभी बड़े नेताओ ने यात्रा से दूरी बना कर राहुल गाँधी की मंशा पर पानी फेर दिया ।
यात्रा के बहाने राहुल गाँधी की रीलांचिंग होने वाली थी । जबकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी । हो सकता है कि रीलांचिंग हुई मान भी ली गयी हो । मान लिया हो कि भारत जुड़ गया । मानने में हर्ज भी नहीं लेकिन पार्टी को यह भी समीक्षा करने की जरूरत है कि इस यात्रा से हासिल क्या हुआ । जिन राज्यों से यात्रा निकली उनमें पार्टी कितना जुडी । केरल , राजस्थान , तेलंगाना , पंजाब आदि में पार्टी कलह में कोई सुधार नहीं हुआ । राजस्थान में पायलट – गहलोत संग्राम समाप्त तो क्या हुआ , बढ़ा ही है । यात्रा के दौरान भी कई बार मतभेद सामने आये । अप्रिय घटनाएं भी घटी जिनका कोई अच्छा सन्देश गया हो इसमें संदेह ही अधिक है। कांग्रेस यात्रा का हासिल बता रही है कि राहुल गांधी इससे कांग्रेस का प्रमुख चेहरा बन गए । इसमें नया क्या है । वह तो हमेशा से कांग्रेस का प्रमुख ही क्यों एकमात्र चेहरा रहे हैं । तमाम चुनाव उनके ही नेतृत्व में हारे गए । 2019 के लोकसभा चुनाव तो उनकों प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बना कर लड़ा गया । यदि उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनाना था तो मल्लिकार्जुन खड़गे को मुखौटा क्यों पहनाया गया ? उम्मीद थी कि यात्रा से कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनेगा । कांग्रेस इस दौरान कोई नया विमर्श गढ़ेगी ,कुछ ऐसा एजेंडा जनता की अदालत में पेश करेगी जो जनता को अपनी ओर आकर्षित करेगा । पार्टी मजबूत होगी और मोदी के खिलाफ भाजपा के विरुद्ध राहुल गांधी के नेतृत्व में एकमुश्त विपक्षी लामबंदी की जायेगी । इसके विपरीत पार्टी कोई वैकल्पिक एजेंडा पेश नहीं कर सकी । राहुल गांधी ने खुद धारा 370 की बहाली के अपने पुराने आश्वासन पर गोलमोल जबाब दिया । उन्हें साफ़ करना चाहिए कि धारा 370 पर उनका और उनकी पार्टी का क्या स्टैंड है । जब तक इस सवाल एक जवाब कांग्रेस नहीं दे पाती तब तक भारत जोड़ो यात्रा की सफलता संदिग्ध ही रहेगी ।