सीता राम शर्मा ” चेतन “
संयुक्त राष्ट्र पर कोई बात करना, कहना या लिखना अब समय नष्ट करने के साथ सर्वथा व्यर्थ ही लगता है । बावजूद इसके यह भी सच है कि दुर्भाग्य से आज भी वैश्विक समुदाय के लिए संयुक्त राष्ट्र बड़ी वैश्विक समस्याओं तथा गंभीर मुद्दों पर निष्पक्ष उचित चिंतन विमर्श और सुरक्षा एंव शांति हेतु प्रभावशाली सफल प्रयास कार्यों को करने के लिए एकमात्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंच माना जाता है ! विश्व के एक सौ तिरानबे देश इसके सदस्य हैं, जो गंभीर वैश्विक मुद्दों, समस्याओं और संकटों की स्थिति में इससे समाधान की अपेक्षा करते हैं । यह अलग बात है कि लगभग हर बड़ी समस्या और संकट पर यह हमेशा की तरह अब भी पूरी तरह निष्प्रभावी ही बना हुआ है और बहुत चिंतन मंथन और प्रयासों के बावजूद निकट भविष्य में इसमें कोई बड़ा और प्रभावशाली बदलाव होने की संभावना लगभग शुन्य ही है । बात संयुक्त राष्ट्र की वर्तमान बदहाल, प्रभावहीन और त्रुटिपूर्ण विवशतापूर्ण दशा की करें, तो बेहतर होगा कि उसकी इस स्थिति के वास्तविक मुल्यांकन के लिए वर्तमान संयुक्त राष्ट्र महासभा अध्यक्ष साबा केरोसी के उस बयान को पूरी गंभीरता और प्रमुखता से सुना, पढ़ा और समझा जाए, जो उन्होंने पिछले दिनों अपनी भारत यात्रा पर आने से पूर्व कही थी ।
सितंबर 2022 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 77 वें अध्यक्ष बनने के बाद पिछले दिनों हंगरी के साबा कोरोसी ने अपनी पहली द्विपक्षीय विदेश यात्रा में भारत आने से पूर्व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आलोचना करते हुए कहा है कि परिषद आज की वास्तविकता को प्रतिबिंबित नहीं करती । यह पंगु हो गई है । सुरक्षा परिषद में सुधार के प्रयासों में भारत सबसे आगे रहा है और वह स्थाई सदस्य के रूप में जगह पाने का हकदार है । उन्होंने यह बात भी पूरी बेबाकी और स्पष्टता के साथ कही थी कि परिषद विश्व में शांति और सुरक्षा कायम रखने जैसे अपने मूल कार्य करने में भी सक्षम नहीं दिखाई देती । यूएनएससी में सुधार का मुद्दा ज्वलंत और बाध्यकारी है । अब सवाल यह उठता है कि जब संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष ही संयुक्त राष्ट्र के वर्तमान स्वरूप और उसकी कार्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं हैं और उसमें तत्काल सुधार को जरुरी, ज्वलंत और बाध्यकारी मानते हैं, उसमें सुधार की बात इतनी मुखरता से कह रहे हैं, तो फिर सुधार की दिशा में इतनी अकर्मण्यता, लापरवाही और विलंब क्यों ? क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि संयुक्त राष्ट्र अब पूरी तरह एक निर्जीव और निष्प्रभावी संस्थागत ढांचा भर बनकर रह गया है ? कुछ देश अपने छद्म स्वार्थों, पापी हितों की पूर्ति और षड्यंत्रों को साधने के लिए संयुक्त राष्ट्र का दुरुपयोग कर रहे हैं ? शेष बहुतायत देश विवशता में इसको ढोने को अभिशप्त हैं ? और संयुक्त राष्ट्र की इस कमजोरी, अव्यवस्था, महत्वहीनता और दुर्दशा को बखूबी जानते समझते हुए भी उसके अध्यक्ष इसमें कोई सुधार ना कर पाने को विवश हैं ? कम से कम संयुक्त राष्ट्र महासभा के वर्तमान अध्यक्ष साबा कोरोसी के ज्ञान, अनुभव और विचार के हिसाब से तो इसी सत्य की पुष्टि होती है ।
अंतिम जरूरी सवाल यह कि बदलती और दिनोंदिन निरंतर बद से बदतर होती वैश्विक परिस्थितियों में कई हिंसक, विस्तारवादी, षड्यंत्रकारी, आतंकवाद पोषक और स्वार्थी शक्तिशाली निरंकुश देशों की घोर स्वार्थी, अमानवीय, विध्वंसक और युद्धकारी गतिविधियों से गरीब, पिछड़े, कमजोर और विकासशील देशों को बचाने का उपाय क्या है ? क्या कोई भी शक्तिशाली देश या देशों के समूह दुसरे कमजोर देश या कुछ देशों पर अपनी अव्यवहारिक, अमानवीय, शोषणकारी नीतियों और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्धों को थोपते रहेंगे ? क्या वैश्विक मानवीय व्यवस्था और प्राकृतिक संसाधनों पर कुछ शक्तिशाली देशों और समूहों की मनमानी चलेगी ? सब पर उनका आधिपत्य होगा ? या फिर पिछले कुछ वर्षों से लगातार खुद के अस्तित्व और सार्थकता पर उठते सवालों को पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से स्वीकार करते हुए गंभीर होकर संयुक्त राष्ट्र अब सचमुच खुद को समय, काल, परिस्थितियों और भविष्य की चुनौतियों के हिसाब से एक शांतिपूर्ण, सुरक्षित और विकसित विश्व की परिकल्पना को साकार करने के योग्य वैश्विक संगठन बना लेगा ? खुद में जरुरी और पर्याप्त सुधार करेगा ? खुद को सच्चे मायने में वैश्विक शांति और सुरक्षा को कायम रखने योग्य बना लेगा ? बहुत स्पष्टता से इन प्रश्नों का सही जवाब तो अब सिर्फ और सिर्फ संयुक्त राष्ट्र ही दे सकता है । इसलिए अब तो उससे यही कहा और पूछा जा सकता है कि, हेलो यूएन, प्लीज लिसेन टू योर प्रेसिडेंट ।