नृपेन्द्र अभिषेक नृप
हाल ही में लघुकथाओं का साझा संग्रह, ‘तालाबंदी’ बाजार में आया है, जिसमें, 68 लघुकथाओं का संकलन है। जिसका संपादन वरिष्ठ लेखक सुरेश सौरभ ने किया है। देश के प्रसिद्ध लघुकथाकारों की चर्चित लघुकथाओं को इसमें सम्मलित किया गया है। इस पुस्तक की विशेष बात यह है कि इसमें लगभग सभी लघुकथाएँ कोरोना काल में कोरोना संकट से जूझ रहे लोगों की कहानियां हैं।
यह वह समय था जब दुनिया के गरीब से ले कर अमीर तक को खासा प्रभावित किया था। देश मे लगे लॅकडाउन के बाद लोगों को भोजन के लिए मशक्कत करनी पड़ रही थी और घर बैठे-बैठे उनकी मानसिक स्थिति के साथ -साथ शारिरिक स्थिति पर भी गहरा प्रभाव पर रहा था। मानवेन्द्र राना ने ठीक ही लिखा है-
“अंतिम सफ़र में भी वो सम्मान न मिला।
वक़्त आया कि शवों को श्मशान न मिला।
तालाबंदी में चले बेबस अपने घर की राह।
भूख प्यास तो मिली पर जन्मस्थान न मिला।”
कोरोना काल के दर्द को भला कौन भूल सकता है? संपादक सुरेश सौरभ जी लिखते है- एक तरफ जहाँ चुनाव में नेता रैलियाँ कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर आम आदमी, सरकार की तमाम पाबन्दियों की मुसीबतों से जूझ रहा था, एक ओर जहाँ बगैर किसी तैयारी के रेल, बस व रोजगार के सब साधन बंद करके गरीबों मजदूरों और उनके बच्चों को सड़कों पर मरने और संघर्षों के लिए छोड़ दिया गया, वहीं दूसरी ओर अमीर बच्चों को एसी बसों के वापस लाया जा रहा था। अस्पतालों में जीवन रक्षक दवाओं के अभाव में जहाँ श्मशान घाटों पर लाशों की कतारें थीं, वहीं कई नदियों में व उनके किनारों पर मुर्दों के ढेर पर ढेर लग रहे थे, तिस पर सरकारी अमला सत्ता की नाकामियों को छिपाने के लिए, लाशों को छिपाने की नाकाम कोशिश में लगा रहा।
पुस्तक में डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा ‘बोझ’ में उन्होंने बुढ़ापे के अकेलापन को सुंदर शब्दों में सँजोया है। एक बुजुर्ग जो घर में अकेले रहता है उसे घर के सभी काम अकेले ही करने पड़ते हैं और उसका साथ देने वाला कोई नहीं होता। उनकी दूसरी लघुकथा ‘ सोचना – विचारना’ में भी बुढ़ापे की दुःख दर्द और उनके साथ होने वाले बुरे व्यवहार को दर्शाया गया है। आज के दौर में जब बुजुर्ग को बच्चे घर से अलग कर देते है तो ऐसे मे किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। यह वह बुजुर्ग ही समझता है। सच में बच्चे बुढ़ापे की लाठी न पाए तो जिंदगी बोझ हो जाती है।
चर्चित कहानीकार डॉ. रंजना जायसवाल की लघुकथा ‘ निकासी’ में भी एक बुजर्ग की कहानी है जिसे बेटा ने वृद्धाश्रम भेज दिया है। रंजना जी ने लिखा है कि जब भगवान की टूटी हुई मूर्तियों को घर से निकाल देते है तो फिर बुजुर्ग की क्या बिसात!
निश्चित रूप से, ये बुजुर्ग लोग इस तरह के जर्जर उपचार के लायक नहीं हैं। वे अपने पूरे यौवन को अपने परिवार, समुदाय और समाज की सेवा में दे देते हैं। और अपने बुढ़ापे में उन्हें सड़क पर कुत्तों की तरह मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। आज के दौर में यह बड़ी समस्या बन चुकी है जिसका समाधान समाज को ही करना होगा।
‘कोरोना की राखी’ लघुकथा जिसे संतराम पांडेय ने लिखा है। यह कोरोना काल में बेरोजगारी और रोजगार के लिए दौड़ लगाते युवाओं पर लिखी गई है। जिसमें जल्दी – जल्दी इंटरव्यू के लिए जाने के दौरान पर्स खो देने के बाद वापस पर्स मिल जाने की खुशी राखी बांध कर मनाई जाती है। जब बड़े महामारी का सामना करना हो तो इंसान को एक दूसरे की सहायता करते रहना चाहिए। ताकि कठिन जीवन मे थोड़ी सहूलियत मिल सकें। ‘खून- पसीना’ लघुकथा में मजदूरों के दर्द को बयां किया गया है। मजदूरों के खून पसीने से ही बड़े – बड़े महल तैयार हो जाते है।महल में रहने वाले तो खुशी से जीवन यापन करने लगते है लेकिन जिन मजदूरों के पसीने से महल तैयार होता है उनका जीवन वहीं फुटपाथ पर ही बीतता है जहाँ मुश्किल से ही दो वक्त की रोटी नसीब हो पाती है।
कोरोना काल की हर स्थिति पर लिखी गई लघुकथाओं के इस संग्रह में सारी परिस्थितियों संजीदा तरह से दर्शाया गया है। संपादक ने सही लिखा है संग्रह में कि कहीं ट्रेनें रास्ता भूली तो कहीं मजदूरों पर सेनिटाइजर की जगह बेरहमी से कीटनाशक डाल कर अमानवीयता की सारी हदें पार की गई, कहीं एक समुदाय को कोरोना बम साबित करने की, बिकाऊ गोदी मीडिया के घरानों से साम्प्रदायिक घटिया सामग्री दर्शकों को दिन-रात परोसी गई, तो कहीं सत्ता अपनी असंवेदनशीलता और नाकामियों को छिपाने के लिए, ताली थाली बजवाने और दीये जलवाने के आयोजन पूरे देश में कराती रही। रमाकांत चौधरी, गुलजार हुसैन, बजरंगी लाल यादव, शैलेष गुप्त वीर आदि की लघुकथाएँ कोरोना काल के हर जख्मों को उकेर कर रख देती है। अगर आप इस संग्रह को पढ़ते है तो आपको कोरोना काल के विभिन्न घटनाक्रमों को जानने समझने का मौका भी मिलेगा और साथ में देश के जाने माने कहानीकारों को पढ़ने का मौका भी मिलेगा। इस कालजयी संपादन करने के लिए सौरभ जी को बधाई।
समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक : तालाबंदी
सम्पादक: सुरेश सौरभ
प्रकाशक: स्वेतवर्ण प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य : 199 रुपये