योगेश कुमार गोयल
करीब 70 वर्षों के बेहद अंतराल के पश्चात् लंबे प्रयासों के बाद भारत में पिछले साल 17 सितम्बर को चीतों की वापसी हुई थी, जब चीते की शक्ल में तैयार हुए बोइंग 747 के विशेष विमान के जरिये नामीबिया की राजधानी विंडहोक से ग्वालियर लाए गए 8 चीतों को प्रधानमंत्री द्वारा मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बाड़े में छोड़ा गया था। ये सभी चीते यहां के माहौल में पूरी तरह ढ़ल चुके हैं। चीतों के पुनर्वास की चल रही योजना के तहत 18 फरवरी को भी दक्षिण अफ्रीका से 7 नर और 5 मादा चीते कूनो नेशनल पार्क में लाए जाने के बाद अब भारत में चीतों की संख्या 20 हो गई है। हालांकि ऐसा नहीं है कि चीतों को अचानक ही भारत लाए जाने की योजना बनी बल्कि करीब 50 वर्ष पहले चीतों को भारत लाने के प्रयास शुरू हो गए थे। सबसे पहले 1970 में एशियाई शेरों के बदले में एशियाई चीता भारत लाने के लिए ईरान के शाह के साथ बातचीत शुरू हुई थी लेकिन वहां शासक बदलने के बाद चीते भारत नहीं लाए जा सके, जिसके बाद इन प्रयासों की रफ्तार धीमी पड़ गई।
21वीं सदी के इन दो दशकों में चीतों की वापसी के प्रयासों में तेजी आई और उनके संरक्षण के लिए गलियारों की पहचान और उन्हें सुदृढ़ करने पर ध्यान केन्द्रित किया गया। 2009 में राजस्थान के अजमेर में हुई बैठक में चीतों को भारत लाने की चर्चा पुनर्जीवित हुई और आनुवंशिक समानता तथा जीनोम विश्लेषण के आधार पर अफ्रीका से चीते लाकर भारत में बसाने की योजना को उपयुक्त पाया गया। चीतों की पुनर्स्थापना के संबंध में पर्याप्त अध्ययन नहीं होने के कारण 2013 में सर्वाच्च न्यायालय ने चीतों को भारत लाए जाने पर रोक लगा दी थी। अदालत द्वारा 28 जनवरी 2020 को चीतों के पुनर्स्थापना हेतु अनुमति मिलने के बाद चीता परियोजना हेतु मॉनीटरिंग के लिए तीन सदस्यीय विशेषज्ञ दल का गठन किया गया और उसके बाद चीतों को भारत लाए जाने की इजाजत देने के पश्चात् ही चीतों की भारत वापसी का रास्ता साफ होने से इन प्रयासों में तेजी आई। चीतों को भारत लाने के लिए भारत सरकार ने 2010 में नामीबिया से बातचीत शुरु की थी लेकिन नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से चीते लाने का समझौता जुलाई 2022 में हुआ। 2021-22 से 2025-26 के बीच ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के तहत ‘चीता इंट्रोडक्शन परियोजना’ के लिए भारत सरकार द्वारा 38.7 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की गई है।
मध्य भारत में पाषाण युग के गुफा चित्रों में अंकित चीता भारतीय इतिहास और संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। ‘चीता’ शब्द संस्कृत मूल का शब्द है, जिसकी उत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘चित्रकायः’ से हुई है, जिसका अर्थ है बहुरंगी शरीर वाला। हालांकि भारत कभी चीतों का घर रहा था लेकिन देश में आखिरी बार 1947 में चीता देखा गया था। 1947 में मध्य प्रदेश के कोरिया रियासत के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने तीन चीतों का शिकार किया था और माना जाता है कि वे भारत के आखिरी 3 चीते ही थे। 1952 में भारत सरकार द्वारा चीते को देश में विलुप्त घोषित कर दिया गया था। उससे पहले भी मुगलकालीन और पूर्ववर्ती शासकों द्वारा अत्यधिक शिकार, उनके पर्यावास में व्यापक बदलाव और शाकाहारी पशुओं की संख्या में गिरावट के कारण धीरे-धीरे अनेक चीतों की विदाई हो गई थी। वैसे चीतों की संख्या पूरी दुनिया में तेजी से कम हुई है। पिछली सदी में दुनियाभर में चीतों की संख्या करीब एक लाख थी लेकिन जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब 91 फीसदी चीते 1991 तक खत्म हो चुके हैं और अब इनकी संख्या दुनियाभर के 17 देशों में करीब 7 हजार ही रह गई है, जिनमें से आधे से ज्यादा चीते दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया और बोत्सवाना में मौजूद हैं। अफ्रीका में कई स्थानों पर चीते पाए जाते हैं जबकि एशियाई चीते केवल ईरान में ही मिलते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में अब करीब 7 हजार अफ्रीकी चीते और 50 से भी कम एशियाई चीते बचे हैं।
चीते का उल्लेख वेदों, पुराणों जैसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी मिलता है। 12वीं सदी के संस्कृत दस्तावेज ‘मनसोलासा’ में भी चीतों का उल्लेख है। एक समय महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, तमिलनाडु इत्यादि भारत के विभिन्न राज्यों के जंगलों में बड़ी संख्या में चीते पाए जाते थे। हिमालय वाले इलाके को छोड़कर ऐसी कोई जगह नहीं थी, जहां भारत में चीते नहीं पाए गए हों लेकिन इनका शिकार करने के कारण चीतों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगी और करीब 75 साल पहले देश में आखिरी बार चीते देखे गए। दरअसल बाघ की तुलना में चीतों पर नियंत्रण करना आसान माना जाता रहा है और भारत में सदियों तक चीतों के शिकार का प्रचलन रहा है। मुगलों को तो चीते पालने का शौक था, जो अपने साथ चीतों को शिकार पर ले जाते थे। चीते उनके आगे-आगे चलकर हिरणों तथा अन्य जंगली जानवरों का शिकार करते थे। कहा जाता है कि मुगलकाल में अकबर के पास करीब 9 हजार चीते थे और अकबर ने जमकर चीतों का शिकार किया था।
भारत में चीतों के पुनर्वास के लिए विंध्याचल पर्वत श्रृंखला पर बसा मध्य प्रदेश का कूनो नेशनल पार्क ही इसलिए चुना गया क्योंकि यहां का अधिकतम तापमान 42 डिग्री सेल्सियस जबकि न्यूनतम तापमान 6-7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचता है, जो चीतों के लिए बेहद उपयुक्त माना गया है। चीतों को अच्छे शिकार की जरूरत होती है और 2018 में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त इस नेशनल पार्क में छोटे हिरण, सुअर, चीतल, सांबर, नीलगाय इत्यादि की घनी आबादी मौजूद है, जिससे यहां चीतों को खाने की कोई कमी नहीं होगी। शिकार के अलावा चीतों को पानी की भी काफी जरूरत होती है और कूनो नेशनल पार्क के पास कूनो नदी के होने से यहां पानी की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है। चूंकि मध्य प्रदेश में पुनर्वास का रिकॉर्ड सबसे अच्छा रहा है, इसीलिए देशभर में दस जगहों के सर्वे के बाद चीतों के पुनर्वास के लिए 748 वर्ग किलोमीटर में फैले कूनो नेशनल पार्क का चयन किया गया। कूनो नेशनल पार्क के आसपास बसे गांवों में लोगों को चीते और तेंदुए में अंतर समझाने तथा यह बताने के लिए कि इंसानों को चीतों से खतरा नहीं है क्योंकि चीते कभी इंसान पर हमला नहीं करते हैं, सैंकड़ों ग्रामीणों को वन विभाग द्वारा चीतों की सुरक्षा के लिए चीता मित्र बनाया है।
चीते को खाद्य श्रृंखला का सबसे शीर्ष जीव माना जाता है, जो हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बेहद जरूरी है। दरअसल चीतों के नहीं होने से पूरी खाद्य श्रृंखला पर असर दिखता है। चीतों के विलुप्त हो जाने का असर चीते के एरिया के भू-क्षेत्र पर स्पष्ट दिखाई देता रहा है, जहां का पूरा इकोसिस्टम खत्म हो गया, इन इलाकों से कई शाकाहरी जीवों का अस्तित्व खत्म हो गया, जिस कारण वहां से घास के मैदान भी नष्ट हुए और इसका पर्यावरण पर भी गहरा असर दिख रहा है। इसीलिए माना जा रहा है कि कूनो नेशनल पार्क में 20 चीतों के आने के बाद अब यहां के जंगल का ईको सिस्टम बदल जाएगा और बिगड़ी हुई इकोलॉजी ठीक होने की शुरुआत हो जाएगी। देश में वनों के कटने और जानवरों में शिकार के कारण वन्य जीवों की प्रजातियां तेजी से घट रही हैं, जिन्हें बचाने के लिए कई नेशनल पार्क, पशु विहार, जीव मंडल आरक्षित क्षेत्र स्थापित किए गए हैं। जहां तक चीतों की बात है तो पारिस्थितिक संतुलन बनाने के लिए कम से कम 25-30 चीते होने चाहिएं, इसीलिए पांच वर्षों में अभी और चीते नामीबिया तथा दक्षिण अफ्रीका से लाए जाएंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा पर्यावरण मामलों के जानकार हैं और पर्यावरण पर चर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ लिख चुके हैं)