ललित गर्ग
पाकिस्तान में एक और सत्ता की तख्ता पलट का नाटक पूरी दुनिया ने देखा। सत्ता में बने रहने के इमरान खान के सारे दांवपेच बेकार साबित हुए। शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में बहुमत खो देने के बाद सरकार गिर गई। फिलहाल विपक्ष जीत गया है। सत्ता की कमान अब देश के मंजे हुए राजनेता शाहबाज शरीफ के हाथों में आ गई है। वे तीन बार पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और नवाज शरीफ की गैरमौजूदगी में पार्टी की अगुआई करते रहे हैं। पाकिस्तान के इस घटनाक्रम के बाद देश के राजनेताओं में ज्यादा समझदारी आएगी या दिशाशून्य हो जायेंगे? मालूम नहीं। पक्ष एवं विपक्ष का यह सारा शोर दूसरे को दोषी ठहराने का था और चुप्पी अपने दामन के दाग छिपाने की थी। यह घटनाक्रम सिर्फ किसी को सत्ता से बेदखल करने और किसी को सत्ता हासिल होने के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए। इसमें इमरान खान ने अपने साथ-साथ पाकिस्तान की भी खूब फजीहत करायी। वह इस तरह बेइज्जत होकर पदमुक्त होने वाले अपने देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं। वह चूंकि अपनी पूरी फजीहत कराकर रुखसत हुए हैं, इसलिए उन्हें आने वाले दिनों में राजनीतिक मोर्चे के साथ-साथ प्रशासनिक मोर्चे पर भी खूब संकटों का सामना करना पड़ेगा। उनके विदेश जाने पर एक तरह से रोक लग गई है और उन्होंने अपनी कमजोरिया, गलत नीतियों एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा की वजह से अपने विरोधियों को मौका दे दिया है। दरअसल, जब आप लोकतांत्रिक और सांविधानिक संस्थाओं पर विश्वास करते हैं, तब ये संस्थाएं भी आप पर विश्वास करती हैं और मजबूती देती हैं। लेकिन जिस तरह इमरान ने खुद को बचाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग किया है, अदालत के आदेश के बावजूद संसद से बचने की अंतिम समय तक कोशिश की है, उससे उन्होंने खुद अपने लिए कांटे बिछा लिए हैं।
पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम और खासतौर से हाल के एक हफ्ते की गतिविधियां बता रही हैं कि पाकिस्तान के भीतर दरअसल चल क्या रहा है। सरकार गिराने के लिए इमरान खान और उनकी पार्टी विदेशी ताकतों पर आरोप लगा रही है। सेना ने पूरे राजनीतिक घटनाक्रम से अपने को अलग रखने की बात कही। और सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि विधायी तंत्र के घटनाक्रम को लेकर देश का सुप्रीम कोर्ट एक सजग प्रहरी के रूप में खड़ा रहा। वरना क्या अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान हो पाता? पाकिस्तान की राजनीति में कई नेता नेपथ्य में चले गये हैं पर आभास यही दिला रहे हैं कि हम मंच पर हैं। कई मंच पर खड़े हैं पर लगता है उन्हें कोई ”प्रोम्प्ट“ कर रहा है। बात किसी की है, कह कोई रहा है। इससे तो कठपुतली अच्छी जो अपनी तरफ से कुछ नहीं कहती। जो करवाता है, वही करती है। कठपुतली के अलावा कुछ और होने का वह दावा भी नहीं करती। लेकिन पाकिस्तान की सत्ता की स्थिति हर दौर में किसी कठपुतली से कम नहीं होती। क्योंकि कहने को वहां लोकतांत्रिक सरकारें बनती है, लेकिन उन पर नियंत्रण सेना एवं आतंकवादी संगठनों का ही रहता आया है। वैसे भी पाकिस्तान का इतिहास यही रहा है कि वहां सेना किसी की सगी नहीं रही। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि शाहबाज भी सत्ता में तभी तक टिकेंगे, जब तक सेना चाहेगी। वैसे भी पाकिस्तान में अगले साल आम चुनाव होने हैं। शाहबाज को सत्ता भले मिल गई हो, पर उनके सामने भी वही मुश्किलें और चुनौतियां हैं जो पाकिस्तान में हर प्रधानमंत्री को विरासत में मिलती रही हैं। शाहबाज के सामने चुनौतियां अधिक इसलिये भी है कि वहां की आर्थिक स्थितियां बिखरी हुई है, अमेरिका का संरक्षण भी बिखर चुका है। जनता महंगाई के कारण त्राहि-त्राहि कर रही है।
कहने को पाकिस्तान में लोकतंत्र है, लेकिन लोकतांत्रिक सरकार चलाने के लिए जिस परस्पर बुनियादी विश्वास की जरूरत पड़ती है, इसका अभाव पाकिस्तान में नया नहीं है। क्या इस अविश्वास को अगले प्रधानमंत्री दूर कर पाएंगे? जिन विपक्षी दलों ने एक सरकार को बाहर का रास्ता दिखा दिया है, उन पर अब जिम्मेदारी है कि मिलकर देश को अच्छी सरकार दें, सुशासन दे, लोकतंत्र को शुद्ध सांसें दे। क्या ऐसा हो पायेगा? भावी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को बहुमत जुटाने के अलावा सेना को भी विश्वास में लेकर चलने की मजबूरी कदम-कदम पर झेलनी पड़ेगी। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था अगर चौपट न होती, तो शायद इमरान खान को ऐसे न जाना पड़ता। अब शहबाज शरीफ कह रहे हैं कि पाकिस्तान के मुस्कराने के दिन आ गए हैं, क्या वाकई ऐसा है?
विडम्बना तो पाकिस्तान की हमेशा से यही रही है कि अन्दरूनी संकटों का समाधान करने की बजाय वह हमेशा कश्मीर का राग अलापती रही है। आम लोगों के संकटों एवं अभावों को दूर करने की बजाय उसका ध्यान कश्मीर पर ही लगा रहता है। आज उसकी दुर्दशा का कारण भी यही है। शाहबाज शरीफ ने भी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के पहले ही जिस तरह कश्मीर राग छेड़ा, उससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि वह भी इमरान खान की राह पर ही चलेंगे और उनके स्वल्प शासन में किसी रोशनी के अवतरित होने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। कश्मीर का राग भले ही वहां की सरकारों की विवशता हो, ऐसा न करना पाकिस्तान का गद्दार करार दिया जाता हो, लेकिन अब भारत पहले वाला भारत नहीं रहा। कश्मीर की तरफ आंख उठाने का क्या हश्र होता है, इमरान की गति से सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कश्मीर का राग अलापने वाले इन्हीं इमरान ने अपने अंतिम भाषण में करीब दो दर्जन बार भारत के गुण गाये, उसे सशक्त बताया, उसकी ओर किसी भी राष्ट्र की आंख उठाने की हिम्मत न करने की बात कही। भले ही शाहबाज शरीफ भारत से शांति चाहते हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इसी के साथ उन्होंने यह भी कह दिया कि यह तभी संभव है, जब कश्मीर मसले का समाधान हो। लेकिन भारत की कश्मीर पर बातचीत करने की कोई दिलचस्पी नहीं है। जबसे अनुच्छेद 370 की कश्मीर में समाप्ति हुई है भारत कश्मीर पर पाकिस्तान से बात करने की जरूरत महसूस ही नहीं करता। भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर पर बात करने को इच्छुक हो सकता है, क्योंकि देरसवेर यह भू-भाग भारत में आना ही है, चाहे बातचीत से आये या अन्य माध्यमों से।
पाकिस्तान अनेक संकटों से घिरा है। वैसे भी पाकिस्तान में अगले साल आम चुनाव होने हैं। शाहबाज को सत्ता भले मिल गई हो, पर उनके सामने भी वही बड़ी मुश्किलें और चुनौतियां हैं जो पाकिस्तान में हर प्रधानमंत्री को विरासत में मिलती रही हैं, बल्कि इस बार वे ज्यादा उग्र है। महंगाई से मुल्क बेहाल है। अर्थव्यवस्था बेदम है। भ्रष्टाचार चरम पर है। दुनिया भर में पाकिस्तान को सहयोग के नाम पर सन्नाटा पसरा है। यह नहीं भूलना चाहिए कि शाहबाज भी उन्हीं नवाज शरीफ के भाई हैं जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और पनामा पेपर्स मामले उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। इसके अलावा देश पर लगा आतंकवाद के गढ़ होने का ठप्पा भी अलग तरह के संकट खड़े किए हुए है। साफ है, शाहबाज की राह में भी कांटे ही कांटे हैं। इन कांटों के बीच यदि वह भारत की तरफ आंख उठाता है या कश्मीर राग अलापता है तो उसके संकट गहरे ही होने वाले हैं। इसलिये पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता और शांति कैसे कायम हो, फिलहाल यही सरकार, सेना और सुप्रीम कोर्ट का मुख्य एजेंडा होना चाहिए। नया नेतृत्व अपनी अवाम के प्रति उत्तरदायित्व निभाये तो देश के करोड़ों लोगों के प्रति एक विश्वास और संरक्षण की भावना बढ़ेगी। इसी से पाकिस्तान को बहुत बड़ा सामाजिक, आर्थिक लाभ होगा। उसके साथ व्यवहार एवं व्यापार बढ़ेगा। अन्यथा संकट ही संकट है।