सुरेश सौरभ
‘‘आज जाना नहीं क्या, बड़ी फुरसत से बैठें हैं आप ?-जल्दी-जल्दी रसोई में अपना काम निबटाते हुए पत्नी बोली।
बाहर दालान में अखबार बांचते हुए, वह बोला-नहीं ?
‘‘क्यों? क्यों ?.. सनसनाती हुई मर्दानी सी, वह एकदम से बिलकुल पति के सामने आ खड़ी हुई। गुस्से से उसके नथुने फूलने-पिचकने लगे, ‘‘मैं जानती हूँ, तुमने फिर नौकरी छोड़ दी होगी। आखिर क्या हो गया है तुम्हें ? किसी जगह टिक क्यों नहीं पाते? हर दो-चार माह बाद अगर ऐसे ही नौकरी छोड़-छोड़ घर बैठते रहे तो चल चुकी अपनी घर-गृहस्थी।’’
‘‘अब मेरे सिर पर सवार होकर फालतू में मेरा दिमाग न खाओ,अखबार परे हटाते हुए, एकदम से फट पड़ा वह, “तुम्हें पता है, प्राइवेट नौकरी का कोई भरोसा नहीं होता, फिर क्यों मेरे पीछे पड़ी हो, जल्दी ही कोई न कोई दूसरी नौकरी तलाश लूँगा बस्स, अब तुम यहां से जाओ और अपना काम देखो।’’
‘‘हुँह मैं तो अपना काम देख ही रही हूँ, पर तुम क्यों नहीं अपना काम सही से देखते? आज आप से मैं यह पूछ कर ही रहूंगी कि एक जगह टिक कर काम क्यों नहीं कर पाते?
‘‘न पूछो तो बेहतर’’-आँखें फेरकर।
तभी रसोई में यकायक कुछ सुलगने की गंध उसके नथुनों में घुसने लगी, वह व्याकुल हो गई-तुम्हारे खिट-खिट में मेरी सब्जी सुलगने लगी। भुनभुनाते हुए तेजी से किचेन की और दौड़ी। गैस की नाब बंद कर फौरान लौटी, क्रोधावेश में अपनी भड़ास फिर निकालने लगी-तुम्हारे सिर पता नहीं कौन सा शनीचर बैठा है,जो तुम्हें एक जगह टिकने नहीं देता?
‘‘खामखा अंधविश्वसों में न जिआ करो शीतल? बस मेरे मन की बात है कि मैं ही एक जगह टिक नहीं पाता?’’
‘‘अरे! मन की बात तो पीएम को ही शोभा देती है, तुम्हारे जैसे बेकार आम आदमी को नहीं? अगर ऐसे ही तुम मनमानी करते रहे तो चल चुकी घर-गृहस्थी की ये गाड़ी? कुछ ही दिनों में हमें भूखों, मरने की नौबत आ जायेगी।’’
‘‘अब भगवान के लिए हमें परेशान न करो? मैं पहले से ही बहुत परेशान हूँ।’’
‘‘कुछ भी हो, पर आज तुम्हें यह बताना ही पड़ेगा, आखिर कारण क्या है कि एक जगह टिक नहीं पाते? आज बिना यह जाने, यहाँ से मैं तिल भर भी हटने वाली नहीं?
‘‘सुन्दरता… बेहद भावावेश में पति बोला।
…..कुछ क्षण वहाँ निःशब्दता तारी रही। फिर पत्नी हल्के से मुसकुरा कर बोली-मैं समझी नहीं जी!
‘‘जिस कालेज जाता हूँ, उस कालेज में कोई न कोई चुड़ैल पीछे पड़ जाती है। मैं गुरु हूँ पिता तुल्य हूँ फिर तुम्हीं बताओ…फिर उनके साथ..
‘‘पत्नी का सारा गुस्सा काफूर हो गया। चेहरे पर गम्भीरता की लकीरें गिच-पिच गिच-पिच बनती-बिगड़ती चलीं गईं। फिर भीगे स्वर में बोली-गलती तुम्हारी नहीं? गलती आजकल की बदचलन हवाओं की है। मुझे यकीन है कि तुम एक न एक दिन अपनी सच्चरित्रता के बल पर अपना स्थायित्व बना लोगे। तुम जैसा पति पाकर मैं धन्य हूँ। सच्चरित्रता खोकर अगर धन कमाया गया, तो ऐसे कलुषित धन को छूना भी मेरे लिए महापाप है..कहते-कहते पति के कंधों से लग कर,बेहद भावुक हो गयी वह।.. पृथ्वी की धन्य है, वह माँ जिसने, आप को जन्म दिया।
कच्चा बादाम.. कच्चा बादाम… पति का फोन बज उठा। खींज कर पति बोला-एक चुड़ैल का ही फोन होगा। जीना दूभर कर रखा है इसने, कह दो, मैं घर पर नहीं हूँ,और मैंने कालेज भी छोड़ दिया है। कितना भी समझाओ, पर ये नासमझ, मूर्ख कभी नहीं समझते…पत्नी बेसाख्ता हँसी…और फिर फोन उठाकर बोली-“हैलो हाँ अब बादाम पक चुका है। मैं तुम्हारे गुरु जी की पत्नी बोल रही हूँ। अगर फिर मेरे पति को दुबारा फोन किया तो सीधे तुम्हारे घर आ धमकूंगी ? तुम्हारे बाप को तुम्हारी सारी करतूत बताऊँगी।..फोन फौरन कट गया। चुड़ौल को देवी जी ने समझा कर बुझा फेंका।
अब पति भी अपनी आँखों ही आँखों में मुसकुरा रहा था, पर चंद क्षणों के बाद उसकी आँखों में कोई नमी रेंगती चली आ रही थी, जिसे वह अपनी पत्नी से छिपा न पा रहा था, जिसे पढ़कर पत्नी की भी आँखें नम होने लगीं फिर.. उदासियों के गहरे भँवर में डूब, नये उजालों की स्वर्णिम आभा पानेे की कशमकश करने लगीं।