सुशील दीक्षित विचित्र
ईडी और सीबीआई को लगभग बैन कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचे चौदह विपक्षी दलों को करारा झटका लगा । अदालत ने उनके मंसूबों पर पानी फेरते हुए उन्हें उनकी वह हैसियत बता दी जिसे वे कानून और संविधान से भी ऊपर माने हुए थे । इसके लिए वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने जो तर्क दिए उनके यही अर्थ हैं कि चूंकि वे राजनेता हैं , जनता उन्हें वोट देती है इसलिए उन पर किसी अपराध पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता और न ही कोई जांच एजेंसी को उनकी जांच करने की छूट होनी चाहिए । जबाब में न केवल अदालत ने याचिका खारिज कर दी बल्कि अपनी टिप्पणी में यह भी रेखांकित किया कि क़ानून के सामने राजनेता और आम आदमी दोनों बराबर हैं । इस कारण किसी को छूट नहीं दी जा सकती कि वह जनप्रतिनिधि है ।
पिछले कुछ सालों से ईडी और सीबीआई के शिकंजे में इतने बड़े नेता फंस गए जिनके बारे में किसी ने सोंचा भी नहीं होगा । विपक्ष के कई नेता या तो जेल पहुँच गए या जमानत पर हैं या जांच के दायरे में हैं । इससे विपक्षी नेताओं में खलबली मची हुई है । इससे बचने के इरादे से तमाम दलों के सांसद ईडी के दिल्ली मुख्यालय तक कई बार मार्च निकाल चुके है और सीबीआई और ईडी को धमका भी चुके हैं । सीबीआई के एक समारोह में मोदी ने यह कह कर सीबीआई का और भी मनोबल बढ़ा दिया कि कोई कितना भी ताकतवर क्यों न हो यदि भ्र्ष्टाचारी है तो बचना नहीं चाहिए । अलबत्ता मनोबल तो इन एजेंसियों का तभी से बढ़ा हुआ था जब मोदी सरकार ने उन्हें काम करने की पूरी छूट देदी । इससे तिलमिलाए विपक्षी दलों ने खुद के शासित राज्य में सीबीआई का प्रवेश निषेध का अध्यादेश ही पारित कर दिया । ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में और झारखंड में कांग्रेस सरकार ऐसा ही विधेयक पारित कर चुकी है। ईडी के पर कतरने के लिए एक प्रयास पहले भी किया जा चुका है । सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दे कर आर्थिक मामलों में ईडी द्वारा कार्यालय बुला कर पूछताछ करने और हिरासत में लेने को चुनौती दी गयी थी । अदालत ने तब भी इस मामले में फैसला दिया था कि ईडी किसी को भी हिरासत में ले सकती है या बुला कर पूछताछ कर सकती है । इसमें कुछ भी असंवैधानिक या गैरकानूनी नहीं ।
यह चुनौती तब दी गयी थी जब ईडी ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी को बुला कर पूछताछ की थी । तब कांग्रेस ने बहुत कोहराम मचाया था । यही साबित करने की कोशिश की थी कि ईडी या किसी भी जांच एजेंसी की यह दीदादिलेरी है कि उन्होंने देश के प्रथम परिवार पर हाथ डाला । कोहराम ने यह भी साबित किया कि कांग्रेसी अभी भी सामंती मानसिकता में जी रहे हैं । जिस लोकतंत्र को वे खतरे में बता रहे हैं उसकी संस्थाओं के प्रति कांग्रेसियों की कोई आस्था नहीं। पिछले कुछ महीनों से अधिकांश विपक्षी नेताओं के आर्थिक अपराध से जुड़े मामलों में जांच की आंच मंत्रियों , विधायकों और राज्यों की सत्ता से जुड़े रसूखदार लोगों तक पहुँच चुकी है । आम आदमी पार्टी के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया मंत्री सत्येंद्र जैन घोटालों के कारण जेल में हैं । जिस शराब घोटाले से पूरी केजरीवाल स्कार को हिलाया हुआ है उसकी जांच के दायरे में तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की पुत्री कविता भी आ गयीं । उधर पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती घोटाले में कई विधायक फंसे है । इससे पहले शारदा घोटाले में भी तृणमूल कांग्रेस के नेता फंसे हैं ।
ईडी और सीबीआई की इस तरह बढ़ती सक्रियता के चलते खुद के फंसने की आशंका से थर्राये कांग्रेस , आम आदमी पार्टी , भारत राष्ट्र समिति , राजद , जदयू , समाजवादी पार्टी , झारखंड मुक्ति मोर्चा , शिव सेना (उद्धव गुट) . नेशनल कांग्रेस , नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी , सीपीआई ,सीपीएम , डीएमके आदि चौदह विपक्षी दलों ने दोनों जांच एजेंसियों की सक्रियता पर लगाम लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की । विपक्ष के वकील अभिषेक मनु सिंघवी में आंकड़ों का मायाजाल फैला कर यह साबित करने की कोशिश की कि इन जांच एजेंसियों के जरिये मोदी सरकार विपक्षी दलों को टारगेट कर के लोकतंत्र को कुचल रही है । उन्होंने अदालत को बताया कि 2004 से 2014 तक दस सालों में 72 नेताओं के खिलाफ मुकदमें दर्ज किये । इनमें 43 अर्थात साठ परसेंट विपक्ष के है । अब यह दर बढ़ कर 95 परसेंट हो गयी है । ईडी के मामले में विपक्ष के नेताओं का जो आकड़ा 54 फीसदी था वह भी 95 फीसदी हो गया है । अदालत में यह भी तर्क दिया गया कि इन विपक्षी दलों की ग्यारह राज्यों में सरकारें हैं और इन्हें 45.19 प्रतिशत जनसमर्थन प्राप्त है ।
क्या इसीलिए इन नेताओं को घोटाला करने और जांच से बचने का अधिकार प्राप्त हो जाता है कि उनकी सरकारें हैं और उन्हें जनसमर्थन प्राप्त है ? क्या जनसमर्थन और सरकारें आर्थिक अपराध करने की ओट हैं या इतने भर से वे मनमर्जी से काम करेंगे और इस पर जब अंकुश लगेगा तो शोर मचाएंगे कि लोकतंत्र खतरे में हैं । रही आकड़ा बढ़ने की बात तो पहले भ्रष्टाचार के प्रति सभी विपक्षी दलों की मूक सहमति थी । सामान विचारधारा वालों विपक्षी गठबंधन के बीच भ्रष्टाचार भी समान विचार धारा का अंग रहा है । इसे जनता भी भलीभांति जानती है इसलिए ईडी और सीबीआई के खिलाफ विपक्ष के तमाम प्रोपेगंडा , धरना प्रदर्शन और उनके सांसदों के मार्च से जनता नदारद है । वह 45 फीसदी जनसमर्थन भी उन्हें नहीं मिल सका जिसके प्रतिनिधित्व का वे कार्ट में दावा कर आये। उनके वकील की दलीलें कितनी खोखली हैं यह बात वकील स्वयं जानते होंगे । इसीलिये सारी दलीलें सुनने के बाद अदालत ने स्पष्ट कहा कि यह राजनीतिक याचिका है और किसी की जांच आदि कानूनी कार्यवाही से इसलिए छूट नहीं दी जा सकती कि वह राजनेता है । क़ानून के सामने सब बराबर हैं और सबके ऊपर एक सा सविधान लागू होता है । सुप्रीम कोर्ट ने सिंघवी से पूछा भी कि क्या हम इन आंकड़ों की वजह से कह सकते हैं कि कोई जांच या कोई मुकदमा नहीं होना चाहिए? क्या नेताओं को इससे अलग रखा जा सकता है? सर्वोच्च कोर्ट का कहना है कि अंततः एक राजनीतिक नेता मूल रूप से एक नागरिक होता है और नागरिकों के रूप में हम सभी एक ही कानून के अधीन हैं। अदालत ने जांच एजेंसियों के लिए यह कहते हुए दिशा निर्देश देने जारी करने से इंकार कर दिया कि दिशा निर्देश तथ्यों पर आधारित होते हैं और इन जांच एजेंसियों को ले कर कोई तथ्य नहीं है । इन्होने अभी तक जो काम किये कानून के दायरे में किये ।
दरअसल विपक्ष की यह कोशिश थी कि अदालत उनके खिलाफ जांच पर रोक लगा दे । विडंबना देखिये कि यही लोग लोकतंत्र की दुहाई देते हैं और खुद को लोकतंत्र से परे मानते हैं । लोकतंत्र वे तभी सुरक्षित मानते हैं जब उनकी सरकार हो और जिस जनता के मतों से मंत्री मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बनें उसी की गाढ़ी कमाई लूटने की सुविधा हासिल हो । इधर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार ने मुहीम तेज कर दी है । विपक्ष के लिए यह भले ही दुखद हो लेकिन जनता के लिए बहुत सुखद क्यूंकि जनता राजनीतिक नेताओं के भ्रष्ट कारनामों से ठीक से जानती है ।