सुनील कुमार महला
भाषाओं की विलुप्ति, भाषाओं का खत्म होना या यूं कहें कि किसी भाषा विशेष की हानि हमेशा न केवल किसी देश की विरासत के लिए बल्कि पूरे मानव इतिहास के लिए एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक क्षति या नुकसान होती है। भारत में लंबे समय तक(लगभग 200 सालों तक) औपनिवेशिक शासन रहा है। यही कारण है कि यहां के कानून, यहाँ के पाठ्यक्रम, यहां के शासन-प्रशासन पर अंग्रेजी के प्रभाव से भारतीय भाषाओं की स्वीकृति अपेक्षाकृत कम हुई। आज वैश्वीकरण के कारण विश्व के कई देशों से व्यापार तथा अन्य गतिविधियों के फलस्वररूप भारतीय लगातार नई भाषाएं (जर्मन ,फ्रेंच )सीख रहे हैं जिससे स्थानीय भाषाओं के प्रति उनका रुझान कम हो रहा है।
हाल ही में एक शोध में यह बात सामने आई है कि दुनिया में आज आधी भाषाएं खतरे में हैं। कारण है कि आज हमारे बच्चे, हमारी युवा पीढ़ी अपनी मूल भाषा को नहीं सीखती। आधुनिकता के, पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगकर हम अपने आपको अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा से लगातार दूर करते चले जा रहे हैं। भाषाएं हमारी अभिव्यक्ति का बड़ा ही सशक्त माध्यम होतीं हैं और ये शब्द मात्र तक सीमित नहीं होती हैं। कोई व्यक्ति यदि भाषा के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति देता है तो वह अपनी पहचान, अपनी संस्कृति, अपने परिवेश, अपने ज्ञान, अपनी आत्मा,अपने इतिहास, अपनी परंपराओं के बारे में हमें रूबरू करवाता है। आज के युग में भाषाओं की विलुप्ति का कारण कहीं न कहीं ग्लोब्लाइजेशन भी है । ग्लोब्लाइजेशन यानी वैश्वीकरण के इस दौर में पूरी दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति बेहतर से बेहतरीन होने तथा बेहतर से बेहतरीन पाने की कोशिश में लगा हुआ है और शायद यही कारण भी है कि वह बहुत सी अहम चीजों को भी आज लगातार विस्मृत करता चला जा रहा है। भाषा भी उन अहम चीज़ों में से एक है।आज विश्व की अनेक भाषाओं का तेजी से नष्ट होना बेहद चिंताजनक है। यदि यही स्थितियां बनी रहीं तो “कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी” की कहावत मात्र हमारी किताबों तक सिमट कर रह जायेगी।विशेषज्ञों का मानना है कि जब कोई भाषा मर जाती है, तो आसपास की ज्ञान प्रणाली भी मर जाती है और विलुप्त हो जाती है। वैसे,भाषाओं को बाहरी ताकतों जैसे सैन्य, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधीनता, या आंतरिक ताकतों जैसे किसी समुदाय की अपनी भाषा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण से भी कहीं न कहीं खतरा होता है। आज के समय में, अंग्रेजी और अन्य प्रमुख भाषाएं ज्ञान और रोजगार की भाषा के साथ-साथ इंटरनेट की प्राथमिक भाषा भी बन गई हैं। डिजिटल क्षेत्र की प्रमुख सामग्री अब अधिकतर अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध है, और इसलिए, अन्य भाषाओं को हाशिए पर डाल दिया गया है।कोई भी भाषा हमारी दैनिक सत्यता, दैनिक चर्याओं को सारगर्भित अर्थ देती है। आज जनजातीय भाषाओं का संवर्द्धन व संरक्षण बहुत जरूरी है। भाषाओं का अस्तित्व व प्रसार तभी संभव है जब हम जनजातीय भाषाओं, हमारे आसपास की विभिन्न भाषाओं, देशज भाषाओं का संवर्धन, संरक्षण करेंगे। भाषाओं का संवर्द्धन, संरक्षण वास्तव में तभी संभव हो सकता है जब हम अधिक से अधिक अपनी भाषा में बातचीत करेंगे। अधिकाधिक साहित्य लिखेंगे। वास्तव में, भाषाओं को जिंदा रखने के लिए हमें एक दूसरे समुदाय की भाषाओं के शब्दों को लेकिन आपस में विचार- विमर्श करना चाहिए। शब्दों को, साहित्य को, शब्दों के अर्थ आदि को जानने समझने का प्रयास करना चाहिए। इससे शब्दकोश तैयार हो सकते हैं, हमारे शब्द भंडार मजबूत हो सकते हैं। आज बोलियों की लिपि तैयार करने की दिशा में भी प्रयास किए जाने चाहिए, बोली की लिपि होगी तभी वह भाषा बनेगी। जब किसी बोली की लिपि तैयार हो जाती है तो वह भाषा बन जाती है। वैसे, बोली का साहित्य नहीं है तो वह भाषा नहीं हो सकती, ऐसी बात भी नहीं है। कहीं न कहीं वह भी एक भाषा ही है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम आपसी संप्रेषण,बातचीत को हर हाल में कायम रखें। बहरहाल, यहाँ जानकारी देना चाहूंगा कि आज दुनिया की 2,400 भाषाओं पर एक शोध से इस बात का खुलासा हुआ है कि आधी भाषाएं आज गंभीर खतरे में हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि दुनियाभर में इस समय 7,000 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। कुछ भाषाओं को बोलने वालों की तादाद लाखों- करोड़ों में हैं, जबकि कुछ भाषाएं आज सैकड़ों लोग ही बोलते हैं। भाषा अगर प्रचलन में नहीं होती है तो वह धीरे धीरे विलुप्त होने की कगार पर पहुंच जाती है और एक दिन ऐसा आता है कि वह समाप्त ही हो जाती है। शोधकर्ता बताते हैं कि भाषा विलुप्त होने से मानवों का अपने पूर्वजों व पारंपरिक ज्ञान से संबंध टूट जाता है। भाषाविद् भाषाई विविधता के आधार पर ही लोगों का इतिहास, विकास क्रम बताते हैं। भाषाएं खत्म होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि बच्चों को इसे नहीं सिखाया जा रहा है। वास्तव में कोई भी भाषा यदि खत्म होती है तो भाषा के साथ ही वहाँ की संस्कृति व ज्ञान का भी लोप हो जाता है, जिसकी भरपाई कभी भी नहीं की जा सकती है। किसी भी भाषा का लुप्त होना या खत्म होना अपने आप में एक बड़ी भयंकर त्रासदी इसलिए है क्यों कि भाषा के साथ ही उस स्थान विशेष की संस्कृति, ज्ञान का भी नामोनिशान मिट जाता है।
भाषा से ही किसी स्थान की संस्कृति जिंदा रहती है। उपनिवेशवाद और वैश्वीकरण(ग्लोबलाइजेशन) के कारण दुनिया की कई स्वदेशी भाषाओं को संकट का सामना करना पड़ रहा है। भाषाएं विलुप्त होने से स्वदेशी समुदायों के बारे में जानने का रास्ता भी बंद हो जाता है। यहाँ जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 2022 से 2032 को संयुक्त राष्ट्र ने स्वदेशी भाषाओं का दशक घोषित किया है।
वास्तव में, प्रत्येक भाषा का अपना इतिहास, परंपरा और सोचने का तरीका होता है। किसी भाषा का प्रयोग जनसंख्या के किसी भू-भाग द्वारा न करने पर वह लुप्त हो जाती है और आज भाषाओं का लगातार लुप्त होना एक बड़ी चिंता का विषय है। चिंता का विषय इसलिए क्यों कि भाषा मरती है तो उस भाषा का संपूर्ण गौरव, उस भाषा विशेष में संरक्षित संपूर्ण पारंपरिक ज्ञान, संस्कृति सब कुछ नष्ट या दफ्न हो जाता है। जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 2010-20 के बीच ग्रेट अंडमानी परिवार की तीन भाषाएं- खोरा, बो और सारे दम तोड़ चुकी हैं। जेरू भाषा भी आज विलुप्ति की कगार पर है। ग्रेट अंडमानी भाषाओं की तरह ही भारत और दुनिया की हजारों भाषाओं पर विलुप्ति की तलवार लटक रही है। अगर हम युनेस्को द्वारा जारी “एटलस ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेज इन डैंजर” को देखें तो पाएंगे कि 1950 से अब तक दुनियाभर में 230 भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। यूनेस्को ने 2001 में पहली बार जब एटलस जारी किया था, तब 900 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा पाया था, लेकिन 2017 में अद्यतन किया गया एटलस बताता है कि ऐसी भाषाओं की संख्या 2,464 तक पहुंच गई। सबसे डरावनी बात यह है कि इनमें भारतीय भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है। गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार 42 भाषाएं व बोलियां विलुप्ति के कगार पर हैं।भारत में 22 अधिसूचित तथा 100 गैर-अधिसूचित भाषाएं हैं जिन्हें एक लाख या इससे अधिक लोग बोलते हैं। यह बहुत ही गंभीर व संवेदनशील है कि आज इन बयालीस भाषाओं व बोलियों को बोलने वाले, प्रयोग में लाने वाले कुछेक लोग ही बचे हैं। जानकारी मिलती है कि संकटग्रस्त भाषाओं में 11 अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की हैं। इनके क्रमशः ग्रेट अंडमानीज, जरावा, लामोंगजी, लुरो, मियोत, ओंगे, पु, सनेन्यो, सेंतिलीज, शोम्पेन और तकाहनयिलांग शामिल हैं। मणिपुर की सात संकटग्रस्त भाषाएं एमोल, अक्का, कोइरेन, लामगैंग, लैंगरोंग, पुरुम और तराओ इस सूची में शामिल की गई हैं। हिमाचल प्रदेश की चार भाषाएं- बघाती, हंदुरी, पंगवाली और सिरमौदी भी खतरे में हैं।ओडिशा की मंडा, परजी और पेंगो भाषाएं संकटग्रस्त भाषाओं की सूची में शामिल किया गया हैं।कर्नाटक की कोरागा और कुरुबा जबकि आंध्र प्रदेश की गडाबा और नैकी विलुप्त होने के कगार पर हैं। तमिलनाडु की कोटा और टोडा भाषाएं विलुप्तप्राय हो चुकी हैं। असम की नोरा और ताई रोंग भी खतरे में हैं। उत्तराखंड की बंगानी, झारखंड की बिरहोर, महाराष्ट्र की निहाली, मेघालय की रुगा और पश्चिम बंगाल की टोटो भी विलुप्त होने की कगार पर पहुंच रही हैं। यूनेस्को की सूची में अहोम, आंद्रो, रांगकास, सेंगमई और तोल्चा भारतीय भाषाएं ऐसी हैं जो मर चुकी हैं। यूनेस्को ने भारत की 197 भाषाएं चिन्हित की हैं जो विलुप्तप्राय हैं। दूसरे स्थान पर अमेरिका है जहां 191 भाषाएं खतरे में हैं। तीसरे स्थान पर मौजूद ब्राजील में कुल 190 भाषाओं का वजूद संकट में है। ये आंकड़े साफ तौर पर इशारा करते हैं कि हाल के वर्षों में यह खतरा तेजी से बढ़ रहा है। कुछ अध्ययन अंदेशा जाहिर करते हैं कि अगर यही दर जारी रहती है तो भारत समेत दुनियाभर की 50 से 90 प्रतिशत भाषाएं इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी। यूनेस्को भी मानता है कि सदी के अंत तक 50 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं। कुछ भाषा विज्ञानी यहां तक कहते हैं कि साढ़े तीन महीने में एक भाषा दम तोड़ रही है।
घुमंतू समुदाय और तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की भाषा सबसे अधिक खतरे में हैं।एथनोलॉग भाषाओं पर नजर रखने वाला एक संगठन है। इस संगठन के अनुसार, इस समय दुनियाभर बोली जाने वाली 7,139 भाषाओं में 42 प्रतिशत (3,018) भाषाएं संकटग्रस्त हैं। यानी ये भाषाएं विलुप्ति के विभिन्न चरणों में हैं। आज दुनियाभर में भाषाओं का बड़ा ही असमान वितरण है। एथनोलॉग के अनुसार, दुनिया की आधी आबादी महज 24 भाषाएं बोलती है। इनमें मुख्य रूप से चीनी मंदारिन, स्पेनिश, अंग्रेजी, हिंदी, पुर्तगाली, बंगाली, रूसी, जापानी, जावानी और जर्मनी शामिल हैं। इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या करोड़ों में हैं, वहीं दूसरी तरफ विश्व की आधी आबादी 7,000 भाषाएं बोलती है। एथनोलॉग के अनुसार दुनिया की आधी भाषाओं को 10 हजार से कम बोलने वाले लोग बचे हैं। दरअसल, कोई भी भाषा तब मरती है जब उसे बोलने वाली आबादी मर जाती है या किसी दूसरी भाषा को अपना लेती है। नतीजतन, उस आबादी की अगली पीढ़ियां अपनी मातृभाषा को भूल जाती है। सामाजिक और आार्थिक कारण भी इसकी एक बड़ी वजह है। व्यापार और पलायन, प्रभाव शाली वर्ग द्वारा किसी एक भाषा को तवज्जो देने से भी छोटी और स्थानीय भाषाएं उपेक्षित रह जाती हैं। व्यापार और मीडिया के वैश्विक होने, यातायात और संचार में तकनीकी सुधार से भी एक भाषा से दूसरी भाषा में स्थानांतरित होने का दबाव बढ़ा है। वैसे, लिपि का न होना भी भाषा के खत्म होने के बड़े कारक के तौर देखा जाता है। भाषा का उपयोग न करना भी एक बड़ा कारण है। जलवायु परिवर्तन भी भाषा को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण और प्रबल कारक है। यहाँ यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि भाषाओं की विलुप्ति का खतरा आज आमतौर उन भाषाओं पर सबसे अधिक है जो कि देसज लोगों द्वारा बोली हैं। आज खतरे में पड़ी भाषाओं के संरक्षण और अस्तित्व की रक्षा के लिए विभिन्न उपाय किए जाने बहुत ही आवश्यक हैं। तभी हम भाषाओं के अस्तित्व को बचा सकते हैं। भाषाओं के संरक्षण के लिए हमें भाषाओं के व्याकरण संबंधी विभिन्न जानकारियों को सहेज कर रखना होगा। भाषाओं के शब्दकोश तैयार करने होंगे। आज भाषाओं के मूल नियमों, उस भाषा विशेष की लोककथाओं, साहित्य, इन भाषाओं व बोलियों(डायलेक्टस) की विशेषताओं को लिखित में संरक्षित किए जाने की जरूरत है। वैसे कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया की विभिन्न देशज भाषाओं को बचाने के लिए ‘अंतरराष्ट्रीय देशज भाषा दशक’ की शुरूआत की है। संस्कृति, ज्ञान और परंपराओं को बचाने के लिए आज भाषाओं को संरक्षित किए जाने की आवश्यकता अत्यंत ही महत्ती है। आज भाषायी विविधता लगातार संकट में है,क्यों कि बहुत सी भाषाएं लुप्त होती चली जा रही हैं, बहुत सी बोलियां लिपि के अभाव में ही लुप्त हो गई, उनके बोलने, समझने, लिखने पढ़ने वाले नहीं रहे। वास्तव में, आज इस बात पर चिंतन मनन किए जाने की आवश्यकता है कि हम अपनी भाषाओं को संपूर्ण विश्व पटल तक या उच्च स्तर तक कैसे पहुंचाएं, हमें आज इस दिशा में काम करने की जरूरत है। भाषा के प्रति जो भावनाएं हमारे अंदर हैं उन्हें प्रगाढ़ बनाने के लिए हमें आज आपस में सभी के साथ, एक दूसरे के साथ सहयोगात्मक रवैया रखने की जरूरत है। सभी भाषाओं का अपना अलग महत्व है और कोई भी भाषा अच्छी-बुरी नहीं होती है, भाषा हमेशा भाषा ही होती है और सभी को अपनी अपनी भाषाओं से लगाव है और होना भी चाहिए, विशेषकर अपनी मातृभाषा से। एक व्यक्ति को अपने जीवन में अधिकाधिक भाषाओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए और सभी भाषाओं का आदर सम्मान करना चाहिए। किसी भाषा को सीखना कभी भी बुरा नहीं कहा जा सकता है लेकिन अपनी भाषा को छोड़ना भी कभी सही नहीं कहा जा सकता है। अपनी मातृभाषा को हमें अवश्य ही तवज्जो देनी चाहिए, क्यों कि जो बात हम अपनी स्वयं की मातृभाषा में जितनी सरलता, सहजता से कह सकते हैं, वह कभी भी हम किसी दूसरी भाषा में नहीं कह सकते हैं। हमें दूसरी भाषाओं के शब्दों, उसके व्याकरण, उसकी वर्तनी, उसके साहित्य,उसके इतिहास के बारे में ज्ञान रखना चाहिए, क्यों कि ज्ञान ही सबसे बड़ी शक्ति है। हमें सदैव इस बात चिंतन जरूर करना चाहिए कि हम अपनी भाषा को कैसे बढ़ाएं, उसे कैसे आगे ले जाएं, उसे कैसे समृद्ध करें, इस दिशा में हमें पहल करने की जरूरत है। हमें यह चाहिए कि हम अपनी भाषा को अधिकाधिक बोलें, उसका दैनिक जीवन में अधिकाधिक प्रयोग करें और उसे लिखना सीखें। हम दूसरी भाषाओं की सामग्री को जिसमें बच्चों का खेल, व्यंग्य, आपसी संवाद आदि को अनुवाद कर नई भाषा को सीख सकते हैं।स्कूलों में भी प्राथमिक स्तर से मातृभाषा की पढ़ाई होनी चाहिए, ताकि शुरू से बच्चे अपनी भाषा के प्रति सजग व जागरूक हो सकें। आज हम बहुत सी भारतीय आदिवासी और अलिखित भाषाओं को पूरी तरह से खो चुके हैं। आज आदिवासी भाषाओं पर विशेष खतरा है।भाषाविद् विशेषज्ञों का कहना है कि, सबसे बड़ा खतरा सिक्किम में मांझी भाषा को है। पूर्वी भारत में महली भाषा, अरुणाचल प्रदेश में कोरो, गुजरात में सिदी और असम में दीमासा भी विलुप्ति का सामना कर रहे हैं।
आठवीं अनुसूची में शामिल दो प्रमुख जनजातीय भाषाओं, अर्थात् बोडो और संताली में भी गिरावट देखी गई है। असम में बोडो भाषा बोलने वालों की संख्या वर्ष 2011 में घटकर कुल जनसंख्या का 4.53 प्रतिशत हो गई, जो वर्ष 2001 में 4.86 प्रतिशत थी। वास्तव में, हमारे देश में लगभग 197 भाषाएं संकट के विभिन्न चरणों में हैं, जो दुनिया के किसी भी देश की तुलना में अधिक है। जानकारी देना चाहूंगा कि जनजातीय भाषाएं किसी क्षेत्र विशेष के वनस्पतियों, जीवों और औषधीय पौधों, वहाँ के पारिस्थितिकीय तंत्र के बारे में ज्ञान का बहुत बड़ा खजाना होतीं हैं। आमतौर पर, यह जानकारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारित की जाती है। लेकिन जब किसी भाषा का ह्रास होता है, तो वह ज्ञान प्रणाली पूरी तरह से समाप्त हो जाती है। भाषा की हानि के साथ संस्कृति में सब कुछ खो जाता है।
बहरहाल, किसी भाषा को लुप्त होने से बचाने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया जा सकता है, वह यह है कि इसके बोलने वालों के लिए तथा इसे अपने बच्चों को इसे सिखाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया जाए। बोलियों की लिपियों को विकसित करने की दिशा में यथेष्ठ प्रयास किए जाएं। किसी भाषा को लिखेंगे तो उसका साहित्य संरक्षित रह सकेगा। विलुप्त हो रही भाषाओं के लिटरेचर को संरक्षित करने के प्रयास किए जाएं, कविताएं प्रकाशित की जाएं,नाटक प्रदर्शित किए जाएं, उन पर फिल्में आदि बनाई जाएं, उनके वक्ताओं को प्रोत्साहित किया जाए, सीखने में रूचि का प्रदर्शन किया जाए। आज शब्दकोश व व्याकरण बनाकर भाषाओं को बचाया जा सकता है। किसी भी भाषा को बचाने के लिए उसका संप्रेषण करना व उसे लिपिबद्ध किया जाना बहुत जरूरी है। यहाँ यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि जब भी कोई भाषा अपने सहज स्वाभाविक अर्थ को छोड़कर विशेष अर्थ को व्यक्त करने लगती है तो वह क्लिष्ट या कठिन बन जाती है और भाषा यही कलिष्टता(कठिनता) उसके जनसामान्य/आमजन से कटने की वजह बनती है। उदाहरण के तौर पर संस्कृत , ग्रीक , लैटिन आदि भाषाएँ। आज यदि हम किसी भाषा के प्रचलित मुहावरों, लोकोक्तियों को सहेज कर रखें तो हम भाषा को भी बचा सकते हैं, क्योंकि भाषा का संबंध संस्कृति, परिवेश, अस्मिता, खान-पान और रहन-सहन से है और किसी भी भाषा समाज का असली प्रतिबिम्ब होती है। भाषा प्रचलन की चीज है, इसलिए भाषा को बचाने के लिए उसका प्रचलन में होना कहीं न कहीं अति आवश्यक है। इसके अलावा किसी भी भाषा को बचाने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार भाषा के मानदंडों में परिवर्तन करें तथा उन बोलियों को भी संरक्षित करे जिनकी लिपि नहीं है तथा जो दस हजार से कम जनसंख्या द्वारा प्रयोग की जाती है। भाषाओं को बचाने के लिए सबसे सफलतम तरीका यह हो सकता है कि उस भाषा में पढ़ाने वाले स्कूलों को अधिकाधिक बढ़ावा दिया जाना चाहिए, तभी हम भाषाओं को विलुप्ति के कगार पर पहुंचने से बचा सकते हैं।
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)