अनुज अग्रवाल
उत्तर प्रदेश का कुख्यात राजनीतिक माफिया जिसका साम्राज्य हज़ारो करोड़ रुपयों का था , अतीक अहमद अपने भाई अशरफ के सहित मारा गया, इससे पहले उसका पुत्र पुलिस एनकाउंटर में मारा गया तो उधर बिहार का राजनीतिक माफिया आनंद मोहन सिंह जो एक जिलाधिकारी की हत्या में दोषी साबित होने के कारण आजीवन कारावास की सजा भोग रहा था उसको बिहार की नीतीश सरकार ने जेल मैनुअल में संशोधन कर छ: वर्ष पहले ही रिहा कर दिया। शायद उनके इस कदम से लोकसभा चुनावों से पूर्व विपक्ष को एक करने की उनकी मुहिम को बल मिलने जा रहा होगा। इधर हाल ही में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पाई आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल के बंगले के रख रखाव में 43 करोड़ रुपए खर्च किए जाने की खबर सामने आई। उनकी पार्टी के नंबर दो और तीन फिलहाल शराब घोटाले, मनी लांडरिंग व भ्रष्टाचार के आरोपी बन जेल में बंद हैं और स्वयं उनसे सीबीआई पूछताछ कर चुकी है किंतु इस सबसे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं व विस्तार पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा । लालू यादव का तो पत्नी, बेटे, बेटी सहित पूरा परिवार ही अनेक घोटालों की जांच का लगातार सामना कर रहा है किंतु जाति- धर्म की विभाजन की राजनीति के बीच उनकी राजनीति की दुकान पूरे ज़ोर शोर से चल रही है।भाजपा नेता व कुश्ती संघ के अध्यक्ष बाहुबली बृजभूषण सिंह के खिलाफ यौन उत्पीड़न आदि आरोपों के साथ कुछ प्रमुख पहलवान खिलाड़ी महीनों से आंदोलित हैं किंतु सरकार के कानो में जूँ तक नहीं रेंग रही क्योंकि वे इसके पीछे दीपेंद्र हुड्डा के कुश्ती संघ पर क़ब्ज़े के खेल और विपक्ष के मोदी सरकार को बदनाम करने के षड्यंत्र मान रही है। और तो और जलवायु परिवर्तन, कोरोना व यूक्रेन संकट के कारण भूख , गरीबी बीमारी व महंगाई झेल रहे देश जिसकी अस्सी करोड़ जनसंख्या सरकारी अनाज पर निर्भर है को उच्चतम न्यायालय समलैंगिक अधिकार देने में जुटा है जबकि जग ज़ाहिर है कि इसके पीछे ड्रग्स व मेडिकल माफिया के भी बड़े खेल हैं।
सच्चाई यही है कि राज्य हो या केंद्र हर स्तर पर राजनीति का अर्थ पैसा बन चुका है। पार्टी पदाधिकारी बनने से लेकर प्रधानी, जिला परिषद सदस्य व अध्यक्ष, वार्ड मेंबर, नगर पालिका व नगर निगम अध्यक्ष, विधायक, सांसद, निगमों के अध्यक्ष, मंत्री आदि बनने व पाला बदलने के लिए कभी भी राजनीतिक दल व नेता कोई भी डील कर लेते हैं और उसके बाद बड़ी बेशर्मी से उसे न्यायोचित भी ठहराते रहते हैं। सत्ता प्राप्ति की राह वोट बैंक रूपी टोल नाके से गुजरती है जिससे गुजरने पर सबको टोल देना होता है। यह टोल सरकारी कल्याणकारी योजना के लाभ, पेंशन, छात्रवृत्ति,डायरेक्ट मनी ट्रांसफर या फिर शराब , नकदी और उपहार बाँट कर दिया जाता है। इस खर्च की भरपाई टिकट व पद के उम्मीदवारों से नकदी लेकर, सरकारी धन बाँट कर , ठेकों में कमीशन लेकर, विभिन्न घोटालों के माध्यम से अथवा वास्तविक लागत से कई गुने पर ठेका आवंटित कर की जाती है। यह एक शाश्वत प्रक्रिया बन चुकी है व सभी दल इसमें पारंगत हैं। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे व उनके द्वारा रैलियों, चुनावों , यातायात व दैनिक प्रबंधन आदि पर होने वाला खर्च में कई गुना अंतर होता है।चुनाव प्रचार व सामग्री, रैलियों, मीडिया, सर्वे एजेंसियों, पेड कार्यकर्ताओं, वोटरों को दिए जाने वाले धन , उपहार व शराब आदि के खर्चे सब नकद में होते हैं व सालाना आधार पर देश की जीडीपी के 2% तक हो सकते हैं। किंतु अब ये चर्चा के बिंदु नहीं बन पाते। कर्नाटक चुनावों में ही अभी तक चुनाव आयोग 450 करोड़ अवैध रुपए वसूल चुका है किंतु अब यह बहस का मुद्दा ही नहीं है।
ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी जी का जाँच एजेंसियों को बिना किसी दबाव के काम करने के आह्वान के सीमित परिणाम ही निकल पा रहे हैं क्योंकि जितने अतीक अहमद जैसे माफिया निबटते हैं उससे कई गुना सामने आ जाते हैं। ऐसा इसलिए है कि भारत की राजनीति आज भी अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद के बीच झूल रही है। निश्चित रूप से भारतीय चुनावी राजनीति की विकृति अल्पसंख्यकवाद वाली सेकुलर राजनीति की ही देन हैं जिसने वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा दिया। लंबे समय तक देश में सत्तारूढ़ रही कांग्रेस पार्टी ने भीम – मीम एकता के नारे के साथ ब्राह्मण, दलित व मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता पर कब्जा रखा।उसके इस फार्मूले का अंधानुकरण दर्जनों राजनीतिक दलों ने विभिन्न राज्यों में व केंद्र में किया और हर जाति व पंथ के लोग अलग अलग दल का वोट बैंक बन गए। विभाजन की राजनीति ने भाषा, क्षेत्र, जल , कृषि व खनिज संसाधन हर सामान्य चीज को मुद्दा बना दिया। हमारे देश में इस तरह की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल आसानी से चीन , अरब देशों, अमेरिका व यूरोप से वैध -अवैध सहायता व समर्थन लेते रहते हैं।
पिछले दस वर्षों में भारत में बहुसंख्यकवाद की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी है। बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी इस राजनीति के प्रवर्तक हैं। अब यह प्रयोग सफल होकर स्थायी स्वरूप ले चुका है। लगातार दो कार्यकाल पूरा करने की ओर बढ़ रही मोदी सरकार की बढ़ती लोकप्रियता इस बात का सबूत है। हताश, निराश व बिखरा विपक्ष आज भी अपनी पुरानी सोच व विभाजन की राजनीति से बाहर नहीं निकल पा रहा। आगामी लोकसभा चुनाव विपक्ष की राजनीति का लिटमस टेस्ट साबित होने वाले हैं। अगर वे विफल रहते हैं तो भारत में अल्पसंख्यकवाद व विभाजन की राजनीति हमेशा के लिए हाशिए पर चली जाएगी। ऐसे में हम उम्मीद कर सकते हैं कि सन् 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद देश की राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन हो सकते हैं व यह बहुसंख्यकवाद बनाम राष्ट्रवाद का स्वरूप ले लेगी और इसकी बहुत सी वर्तमान विकृतियाँ सिमट जाएँगी। किंतु हमको बहुत आशावादी नहीं होना चाहिए क्योंकि राजनीति का मूल चरित्र ही मुद्दे पैदा कर उन पर संघर्ष का होता है। इसलिए कहा भी जाता है कि भाई राजनीति राजनीति होती है।