ललित गर्ग
भारत संयुक्त राष्ट्र की एक रपट में यह जानकारी दी गई है कि प्रसव एवं उसके पश्चात जच्चा-बच्चा की मौतों के मामले में जिन देशों की स्थिति बहुत नकारात्मक पाई गई है, उसमें भारत की तस्वीर सबसे खराब है। भारत मंे प्रसव के दौरान महिलाओं, मृत शिशुओं के जन्म और नवजात शिशुओं की मौत के मामले सबसे ज्यादा हैं। सन् 2020-2021 में दुनिया के अलग-अलग देशों में तेईस लाख नवजात शिशुओं की मौत हो गई, जिनमें से भारत में मरने वालों की संख्या सात लाख अठासी हजार रही है। यह चिन्ताजनक स्थिति भारत का एक कड़वा सच है लेकिन एक शर्मनाक सच भी है और इस शर्म से उबरना जरूरी है। सवाल है कि विकास के ढांचे में शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को लेकर हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं? सवाल यह भी है कि जिस दौर में नरेन्द्र मोदी सरकार स्वास्थ्य को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील होने और प्राथमिकता में सबसे ऊपर मानकर काम करने का दावा कर रही है, उसमें आज भी प्रसव के दौरान महिलाओं और नवजात की मौत के मामले क्यों अधिक हैं?
दरअसल, जच्चा-बच्चा मौतों को लेकर यह दुखद एवं त्रासद तस्वीर नई नहीं है। लंबे समय से यह विडंबना एक तरह से स्थिर और कायम है कि प्रसव के दौरान महिलाओं या नवजात की जान चली जाती है। चिकित्सा सुविधाओं का दायरा फिलहाल इतना है कि उस तक बहुत सारे जरूरतमंद परिवारों की पहुंच नहीं है या फिर वहां बुनियादी सुविधाओं की कमी है। सरकार की योजनाओं एवं समुचित बजट में प्रावधान के बावजूद उसकी असरकारी तस्वीर सामने न आने का बड़ा भ्रष्टाचार भी है। कहीं-ना-कहीं हमारे विकास के मॉडल में खामी है। ऐसा लगता है कि हमारे यहां विकास के लुभावने स्वरूप को मुख्यधारा की राजनीति का मुद्दा बनाने एवं चुनाव में वोटों को हासिल करने में तो कामयाबी मिली है, लेकिन इसके बुनियादी पहलुओं को केंद्र में रखकर जरूरी कदम नहीं उठाए गए या उन पर अमल नहीं किया गया। यह बेवजह नहीं है कि नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देश भी इस मामले में हमसे बेहतर स्थिति में पहुंच गए, जो अपनी बहुत सारी बुनियादी जरूरतों तक के लिए आमतौर पर भारत या दूसरे देशों पर निर्भर रहते हैं। साफ है कि हमारी प्रगति की तस्वीर काफी विसंगतिपूर्ण है और ताजा रिपोर्ट भारत की एक बड़ी जनसंख्या की बदहाली का अकेला सबूत नहीं है। खुद देश में सरकार एवं अन्य एजेन्सियों की तरफ से कराए गए सर्वेक्षण और कई दूसरे अध्ययनों के जरिए कंगाली, भुखमरी और कुपोषण के दहलाने वाले आंकड़े समय-समय पर विकास की शर्मनाक तस्वीर प्रस्तुत करते रहे हैं।
एक बड़े तबके के बीच महिलाओं को गर्भधारण के बाद जिन पोषक तत्वों की जरूरत होती है, कई कारणों से उससे वे वंचित होती हैं। इसका सीधा असर उनकी सेहत, शारीरिक क्षमता और प्रसव पर पड़ता है, जिसमें कई बार प्रसव के समय महिला की जान चली जाती है या बच्चा इतना कमजोर पैदा होता है कि उसे बचाया नहीं जा पाता। यह स्थिति तब है जब महिलाओं की सेहत और प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर सरकारों की ओर से अनेक तरह की योजनाओं और कार्यक्रमों का संचालन हो रहा है। गौरतलब है कि सुरक्षित प्रसव के लिए प्रसूता महिलाओं को अस्पतालों में सुविधाएं और नगदी सहायता मुहैया कराई जाती है। 2005 से लागू जननी सुरक्षा योजना की शुरुआत ही गर्भवती माताओं और नवजात की सेहत में सुधार लाने के मकसद से हुई थी। इसके तहत कई राज्यों में गर्भवती महिलाओं के खाते में छह हजार रुपए दिए जाते हैं, ताकि जच्चा-बच्चा को जरूरी पोषण मिल सके। एक तरफ भारत खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि अनाज का एक बड़ा हिस्सा निर्यात करते हैं। वहीं दूसरी ओर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कुपोषित आबादी भारत में है। भारत में महिलाओं की पचास फीसदी से अधिक आबादी एनीमिया यानी खून की कमी से पीड़ित है। इसलिए ऐसे हालात में जन्म लेने वाले बच्चों का कम वजन होना लाजिमी है। राइट टु फूड कैंपेन नामक संस्था का विश्लेषण है कि पोषण गुणवत्ता में काफी कमी आई है।
केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार मंत्रालय ने जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम की शुरुआत की और इसके दो साल बाद इसके तहत दी जाने वाली सुविधाओं का विस्तार हुआ और उसमें जन्म के बाद नवजात के पोषण और इलाज की सहूलियत भी शामिल की गई। कायदे से अनेक योजनाओं और कार्यक्रमों के बाद जच्चा-बच्चा की मौतों के मामले में स्थिति में सुधार आना चाहिए था। मगर आखिर ऐसा क्यों है कि तमाम प्रयासों के बावजूद प्रसव के दौरान महिलाओं और नवजातों की मौत का सिलसिला आज भी कायम है? समूचे देश में स्वास्थ्य को प्राथमिकता दिए जाने के दावे के दौर में यह तस्वीर एक तरह से आईना दिखाती है कि जमीनी स्तर पर हकीकत क्या है और अभी कितना कुछ किया जाना बाकी है। रिपोर्टें बताती हैं कि ऐसी गंभीर समस्याओं से लड़ते हुए हम कहां से कहां पहंुचे है। इसी में एक बड़ा सवाल यह भी निकलता है कि जिन लक्ष्यों को लेकर भारत अपने प्रयासों के दावे कर रहा है, उनकी कामयाबी कितनी नगण्य एवं निराशाजनक है। कुपोषण, गरीबी, भूख में सीधा रिश्ता है और भारत की विशाल आबादी इसके लिये एक चुनौती बनी हुई है।
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के जीवन में अनेक वित्तीय, सामाजिक और स्वास्थ्य विषयक दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं, वैज्ञानिक तथ्य यह है कि कम उम्र में लड़कियों का विवाह कर देने और फिर उनके मां बन जाने का सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। वे जीवन भर शारीरिक रूप से कमजोर और बीमारियों से घिरी रहती हैं। वे स्वस्थ बच्चों को जन्म नहीं दे पातीं। कम उम्र में ही उनकी मौत हो जाती है। शिशु और मातृ मृत्यु दर पर काबू पाना इसी वजह से चुनौती बना हुआ है। भूखे या अधपेट रह जाने वाली जनसंख्या में दुनिया में हुए इस इजाफे में तीन करोड़ लोग केवल भारत के हैं। इसमें पीने के पानी, कम से कम माध्यमिक स्तर तक शिक्षा और बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं के अभाव को जोड़ लें तो हम देख सकते हैं कि भारत आजादी के अमृत काल में भी असल में वंचितों की दुनिया है।
आत्मनिर्भर भारत एवं सशक्त भारत के निर्माण के लिये हमें अपनी विकास योजनाओं को नए सिरे से गढ़ना होगा, जिनमें स्वास्थ्य और शिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक निश्चित प्रतिशत आवंटन अनिवार्य होना चाहिए। किसी भी देश में आम नागरिकों का स्वास्थ्य वहां के विकास की सचाई को बयां करता है। लोगों की सेहत की स्थिति इस बात पर निर्भर है कि उन्हें भरपेट, उचित चिकित्सा सुविधाएं, शिक्षा और संतुलित भोजन मिले। इस लिहाज से देखें तो विकास और अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ने के तमाम दावों के बीच भारत में अपेक्षित प्रगति संभव नहीं हो सकी है। गौरतलब है कि प्रसव एवं उसके पश्चात जच्चा-बच्चा की मौतों के मामले में भारत की स्थिति काफी दुखद, त्रासदीपूर्ण एवं चिंताजनक है। यह कैसा विकास है? यह कैसे आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर होते कदम है? भूख, कुपोषण, अभाव, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी की त्रासदी को जी रहा देश कैसे विकसित राष्ट्रों में शुमार होगा, कैसे विश्व की बड़ी आर्थिक ताकत बनेगा?