क्यों भारत को चाहिए कई सुधा मूर्ति?

आर.के. सिन्हा

श्रीमती सुधा नारायणमूर्ति की शख्सियत से कोई बिना प्रभावित हुये नहीं रह सकता। उन्होंने अपने पति एन. नारायणमूर्ति को अपनी कंपनी खोलने के लिए अपने प्रिय गहने तक बेच डाले थे। उन्होंने पति को पैसे देकर उन्हें प्रेरित किया कि वे अपने हिस्से के आकाश को छू लें। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सास सुधा मूर्ति जब कोई बात कहती हैं तो उसके पीछे उनके जीवन भर का अनुभव और दर्शन छिपा होता। उन्होंने कुछ दिन पहले एक टीवी के कार्यक्रम में उन लोगों को प्यार-प्यार में कसा जिनके लिए जीवन में पैसा ही सब कुछ होता है। इस तरह के लोग पैसे के आगे शेष सभी चीजों को गौण ही मानते हैं। ये उन स्त्रियों को भी दोयम दर्जे का ही मानते हैं जो साड़ी या सवार-कमीज पहनती हैं। सुधा जी ने इस बाबत अपने साथ घटी एक सच्ची घटना को भी सुनाया।

दरअसल पैसा कमाने में कुछ भी गलत नहीं है। अब लोग पैसा कमा भी बहुत रहे हैं। भारत में ही तमाम नये-नये अरब पति सामने आ रहे हैं। इनकी संख्या हर वर्ष तेजी से बढ़ती ही चली जा रही है। पर सिर्फ किसी को इसलिए आदर्श या नायक तो नहीं माना जा सकता न , क्योंकि ; उसने खूब सारा धन कमा लिया है। हाँ, लेकिन , धन कमाकर उसका समाज और देश के लिए उपयोग किया जाना सबसे अहम ज़रूर माना जा सकता है।

सुधा मूर्ति अपने धन को सैकड़ों करोड़ रुपये के घरों के निर्माण में नहीं फूंकतीं। वे दसियों कारें नहीं रखतीं । उनके लिए ज्ञान और छपे हुए शब्दों का विशेष महत्व है।

हो सकता है कि आपने जितेन्द्र सिंह शंटी का नाम न सुना हो। पर वे किसी फरिश्ते से कम नहीं हैं। वे करोड़ोंपति भी नहीं हैं। उन्होंने कोरोना की दूसरी लहर के समय कोरोना रोगियों को बेड दिलवाने में दिन-रात एक कर दी थी। शंटी गुजरे 30 सालों से राजधानी और इसके आसपास के शहरों में लावरिस शवों का अंतिम संस्कार करवा रहे हैं। उन्होंने खुद अपने हाथों से सैकड़ों लावरिस लोगों का अंतिम संस्कार किया है। शंटी ने अब तक 100 से अधिक बार रक्त दान करके एक कीर्तिमान भी बनाया है। पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से राजधानी के राम मनोहर लोहिया अस्पताल (आरएमएल) से जुड़े हुए डॉ राजीव सूद की अगुवाई में कोरोना की पहली और दूसरी लहर में उनके अस्पताल ने हजारों कोरोना रोगियों का इलाज करके घर भेजा था।इसी क्रम में वे खुद भी कोरोना की चपेट में आ गए थे। एक बार ठीक हुए तो फिर से लग गए थे मरीजों का इलाज करने में। उस कठिन काल में यहां जो कोई भी आया उसे सेहमतमंद करने के लिए आरएलएम के डॉक्टरों और नर्सों ने अपनी जान लगा दी थी। वे अपने को क्रेडिट देने से बचते हैं। सिर्फ इतना कहते हैं कि हमने जो किया वह हमारा फर्ज था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के 100 करोड़ कोरोना टीकों के लक्ष्य को हासिल करने के दौरान आरएमएल पहुंचे थे। उन्होंने तब यहां डॉ.राजीव सूद और बाकी कोरोना वारियर्स से मुलाकात भी की थी। शंटी और डॉ. सूद का तो हमने यहां पर उदाहरण दे दिया। ये कोई करोड़पति नहीं हैं। इन दोनों की तरह से देशभर में सैकड़ों लोग निस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं। ये तब भी सक्रिय थे जब सारा देश कोरोना के कारण त्राहि-त्राहि कर रहा था। ये अब भी एक्टिव हैं। पर इन्हें पहचान नहीं मिलती जिसके ये हकदार हैं।

दरअसल देश-दुनिया में आर्थिक उदारीकरण के बाद पैसे को महत्व बढ़ता ही जा रहा है। पैसा जरूरी है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। पर क्या पैसा मनुष्यता से भी बड़ा हो गया ? नहीं ना। मैं बहुत सारे धनकुबेरों को जानता हूं जो लोक कल्याण कार्यों में अठन्नी भी नहीं देते। उन्हें तो सिर्फ अपने से सरोकार है। वे सपरिवार किसी रेस्तरां में बैठकर डिनर करने में हजारों रुपये खर्च कर देते हैं। पर वे अपने आसपास की किसी लाइब्रेयरी को पचास रुपये भी दान नहीं देते। ये निर्धन परिवारों के बच्चों को किताबें मुफ्त देने की भी जरूरत महसूस नहीं करते। इन्हें लगता है कि सालाना टैक्स अदा करके ये अपने देश के प्रति दायित्व का निर्वाह कर लेते हैं। ये सोच सही नहीं मानी जा सकती है।

मैं तो उन्हें भी बहुत सम्मान देता हूं जो सुबह-शाम अस्पतालों के बाहर मरीजों और उनके परिवार वालों को भोजन करवा रहे होते हैं। ये फरिश्ते बिना किसी लाभ के दुखी का सहारा बन रहे होते हैं। दीन-हीन का साथ देने के लिए हमेशा कोई बहुत पैसा वाला होना जरूरी नहीं होता। आपको हरेक शहर में इस तरह के कुछ अध्यापक मिल जायेंगे जो निर्धन परिवार के बच्चों को पढ़ा रहे होते हैं।

ये वक्त का ताकाजा है कि हमारा समाज सिर्फ उन लोगों को ही महत्व ना दे जो मोटा पैसा कमा चुके हैं। अगर धनी इंसान शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी अपने धन का कुछ हिस्सा दे रहा है तो उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। तुलसीदास, कबीर, बाबा नानक के दौर में भी भारत में धनी लोग और अलग-अलग राजा थे। उन्हें कौन याद करता है। पर इन संतों के प्रति हरेक भारतीय के मन में आदर का भाव है।

हजरत निजामउद्दीन औलिया को दिल्ली अपना मानती है। वे दिल्ली से से बेपनाह मोहब्बत किया करते थे। इसलिए उनके दर पर हमेशा रौनक रहती है। जब निजामउदीन औलिया यहां पर रहते थे तो गयासुद्दीन तुगलक का दिल्ली पर राज था। वह उनसे जला-भूना रहता था। इसकी वजह ये थी कि निजामउदीन औलिया साहब उसके पास जाकर हाजिरी नहीं बजाते थे। तुगलक को पसंद नहीं थी निजामउद्दीन औलिया साहब की लोकप्रियता। उसी समय उसके किले का निर्माण हो रहा था। किले के निर्माण में जुटे मजदूर रात में निजामउद्दीन में एक बावड़ी के निर्माण में काम करते। इससे नाराज तुगलक ने मिट्टी के तेल की सप्लाई रोक दी। कहते हैं, तब निजामुद्दीन औलिया साहब ने निजामद्दीन इलाके की बावड़ी से निकलने वाले पानी से दीपक जलाया था। अब जहां तुगलक का किला दिन में भी उजाड़ नजर आता है, वहीं निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में चहल-पहल बनी रहती है। तो भारत में दरिद्रनाथ की सेवा करने वालों को सदैव सम्मान मिलता रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)