नरेंद्र तिवारी
कांग्रेस ने कर्नाटक में जोरदार विजयी हासिल कर कमजोर होती पार्टी उसके कार्यकर्ताओं, नेताओं को संजीवनी दी है। कर्नाटक की विजय का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। ऐसा राजनीतिक समीक्षकों का मानना है। इन समीक्षकों का यह भी मानना है कि इस विजय से 2023 में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों पर भी असर पड़ेगा। 2024 के लोकसभा चुनाव भी प्रभावित होंगे। समीक्षकों का यह भी कहना है कि कर्नाटक विजयी दक्षिण में कांग्रेस के विजय अभियान की शुरुवात है। दक्षिण के अन्य प्रांतों में भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनेगा। कर्नाटक में कांग्रेस की विजय के कारण तलाशे जा रहे है। भाजपा की पराजय के कारणों की भी खोज हो रही है। राजनीतिक दलों को जय और पराजय के कारणों की ईमानदार समीक्षा करना भी चाहिए। दरअसल एक राज्य की विजय को परिवर्तन का संकेत समझ लेना भी राजनीतिक नासमझी ही है। कर्नाटक राज्य की अपनी परिस्थिति है। वहां कांग्रेस के स्थानीय चेहरे भाजपा के स्थानीय चेहरों से अधिक जनप्रिय एवं लड़ाकू साबित हुए। सत्ताधारी भाजपा के विरुद्ध सत्ता विरोधी माहौल भाजपा की पराजय का मुख्य कारण बना। कांग्रेस के पक्ष में जातिगत समीकरणों का झुकाव, भाजपा का भष्टाचार और सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार का जनता के बीच पहुच पाना। विजयी के कारण रहे है। इन वजहों में कांग्रेस सगंठन का कुशल प्रबंधन और भारत जोड़ो यात्रा का प्रभाव भी माना जा सकता है। अब जबकि पूर्ण बहुमत से बनी कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने अपना पदभार ग्रहण कर लिया है, सवाल उठता है कि 2023 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव तक यह असर बना रहेगा, क्या कर्नाटक के उत्साह से प्रफुल्लित कांग्रेस कार्यकर्ता 2023 के चुनाव वाले प्रदेशो में विजयी पताका फहरा पाएंगे ? क्या दिल्ली की कुर्सी बैठी भाजपा के मजबूत संगठन से मुकाबला कर पाएंगे? क्या 9 साल से राष्ट्र में मजबूती से नैतृत्व कर रहें ख्याति प्राप्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रभाव पर यह विजयी असर डाल पाएंगी ? यह सवाल फिलहाल राजनीतिक नासमझी नजर आतें है किंतु असम्भव नहीं है। कर्नाटक की विजय महज कर्नाटक की विजयी है। इसे अन्य प्रांतों से जोडकर नहीं देखा जा सकता है। कर्नाटक राज्य में सत्ताधारी भाजपा सरकार की नाकामी कांग्रेस के नैतृत्व पर विश्वास भाजपा की पराजय और कांग्रेस की विजयी का महत्वपूर्ण कारण बना है। कुलमिलाकर राज्यों के विधानसभा चुनावों पर प्रांतों की स्थानीय गतिविधियों एवं राजनीतिक हालातो का व्यापक असर होता है। लोकसभा चुनाव के समय मतदाताओं का रुख परिवर्तित हो जाता है, लोकसभा में मोहर लगातें समय मतदाताओं का व्यापक दृष्टिकोण होता है। जब वह राष्ट्र की सरकार चुन रहा होता है, तब उसके मन मे सशक्त नैतृत्व का भाव तो रहता ही है। देश की आंतरिक परिस्थियों से निपटने में सक्षम नैतृत्व पर मतदाता की नजर होती है। मतदाता देश की सरकार से यह अपेक्षा रखता है कि वह उसकी रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरत को तो पूर्ण करेंगी ही, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों का भी ख्याल रखेगी। मतलब सीधा है। विधानसभा चुनाव के विषय अलग, केंद्र के विषय अलग। राजनीतिक घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदलतें है। अखबारों की सुर्खियां और टीवी की बहसों के विषय भी हर दिन बदलते रहते है। कांग्रेस को कर्नाटक की जीत से संजीवनी मिल सकती है तो राजस्थान में गहलोत और पायलट के मध्य जारी वर्चस्व की लड़ाई का रिसता घाव भी नुकसान पहुचा सकता है। राजस्थान में बार-बार सिर उठाता गहलोत, पायलट विवाद अब इतना आगे बढ़ चुका है कि कांग्रेस के तेजतर्रार नेता, भारत मे कांग्रेस का प्रभावी चेहरा सचिन राजेश पायलेट अपनी सरकार के खिलाफ प्रदेश व्यापी यात्रा पर निकल गए। राजस्थान में वर्चस्व की लड़ाई से जुड़ा यह विवाद राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के मध्य है। इस विवाद ने राजस्थान प्रदेश में कांग्रेस को दो खेमों में विभाजित कर दिया है। ऐसा नहीं है कि खेमेबाजी सिर्फ कांग्रेस में ही है, राजस्थान भाजपा भी खेमेबाजी की समस्या से जूझ रही है। इस वक्त बात कांग्रेस की चल रही है। कांग्रेस की खेमेबाजी मारपीट तक पहुच गयी है। विधायक गुटों और खेमों में बटे हुए नजर आते है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार विधानसभा चुनाव का फीडबैक लेने अजमेर पहुची कांग्रेस की सह प्रभारी अमृता धवन के कार्यक्रम के दौरान दोनों गुटों के कार्यकर्ता और विधायकों के मध्य मारपीट की खबरें है। राजस्थान में इस साल के अंत मे प्रस्तावित विधानसभा चुनाव के मध्य राज्य में जारी मुख्यमंत्री की कुर्सी की लड़ाई का खामियाजा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है। यह नुकसान राजस्थान का ही नहीं होगा। यह पांच राज्यो के विधानसभा चुनाव सहित लोकसभा में भी कांग्रेस कार्यक्रताओं को निराश करेगा। यह कांग्रेस के केंद्रीय नैतृत्व की असफलता का परिणाम है कि गहलोत और पायलट विवाद अब तक निपट नहीं पाया है। सचिन पायलट ने अपनी ही राज्य सरकार के विरुद्ध 11 अप्रेल को पहले एक दिवसीय उपवास किया। इसके बाद जन सँघर्ष यात्रा निकाली। सचिन का उपवास और यात्रा राजस्थान कांग्रेस के लिए असहज स्थिति पैदा करने वाली रही है। केंद्रीय नैतृत्व राजस्थान में चल रहे इस विवाद का समय रहते हल खोजने में नाकाम सिद्ध हुआ है। कर्नाटक की विजय बेशक कांग्रेस के लिए उत्साह का वातावरण निर्माण करने वाली हो, किन्तु राजस्थान कांग्रेस में चल रही रसाकसी भी हिंदी प्रदेशों में चर्चा का कारण बना हुआ है। सचिन पायलट कांग्रेस का राष्ट्रीय चेहरा है। सूत्र बताते है कि उनका सब्र अब जवाब दे गया है। वे कांग्रेस से अलग अपनी नई पार्टी बनाने की राह में आगे निकल चुके है। उनका कांग्रेस से अलग होना कांग्रेस के लिए नुकसान का उतना ही बड़ा कारण बन सकता है। जितना बड़ा कारण कर्नाटक राज्य में मिली विजयी के बाद राष्ट्रव्यापी उत्साह के रूप में देखा जा रहा है। पायलट अभी गए नहीं है। वह कांग्रेस में रहकर ही अपना विरोध कर रहे है। यह समय है कांग्रेस हाईकमान इस विवाद का कोई स्थायी हल निकालें। जो काम कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने किया राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट करते आए है। दोनों की संयुक्त ताकत से ही राजस्थान प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन सकी है। इस ताकत का टूटना राजस्थान सहित देश मे कांग्रेस कार्यकर्ताओं को निराश करेगा। राजनीति संभावनाओं का खेल है, यहा हर पल दृश्य बदलता रहता है। कर्नाटक की संजीवनी राजस्थान में आकर रिसता घाव बनता दिख रहा है। इस रिसते घाव पर कांग्रेस की महलम पट्टी का असर नही हो रहा है। यह घाव नासूर हो सकता है। कर्नाटक में कांग्रेस विपक्ष में थी। राजस्थान में सत्ता पर काबिज है। इस राज्य में भी पांच साल में परिवर्तन जैसा रिवाज प्रचलित है। सचिन पायलट का आक्रमक रवैय्या राजस्थान में कांग्रेस की सत्ता खोने का कारण तो बनेगा ही यह अन्य प्रदेशों के विधानसभा एवं 2024 के लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित कर सकता है। कांग्रेस नैतृत्व को बूढ़े हो चुके गहलोत को आराम देकर चुनाव पूर्व सचिन को राजस्थान की कमान सौपना चाहिए। यह निर्णय कांग्रेस हाईकमान को पंजाब में किये चुनाव पूर्व प्रयोग से मिली असफलता के कारण रोकता जरूर है। किंतु यह भी सच है कि पंजाब और राजस्थान की परिस्थियों में अंतर है। सचिन का नैतृत्व राजस्थान की हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा के बीच लिया गया सफल निर्णय हो सकता है। कांग्रेस को विधानसभाओं और 2024 लोकसभा चुनावों में विजयी प्राप्त करने के लिए सख्त निर्णय लेने की दरकार है। सचिन को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला देश मे युवाओं को आकर्षित कर सकता है। कर्नाटक की जीत की खुशी को बरकरार रखने के लिए समय रहते राजस्थान का हल खोजना कांग्रेस की महती आवश्यकता है। यह सचिन की उपेक्षा से तो कतई सम्भव नहीं है। यह सचिन की चुनाव पूर्व ताजपोशी से ही सम्भव नजर आता है। राजस्थान में सचिन की ताजपोशी कर्नाटक में मिली विजयी के उत्साह को बरकरार रखेगी।