योगेश कुमार गोयल
भारत-चीन लड़ाई का उल्लेख करें अथवा भारत-पाक युद्ध का या फिर कोरोना से जंग के कठिन दौर का, प्रेस ने प्रत्येक ऐसे विकट अवसर पर अपनी महत्ता सिद्ध की है और कहना गलत नहीं होगा कि इसमें हिन्दी पत्रकारिता का स्थान सर्वोपरि रहा है। चाहे हिन्दी भाषी टीवी चैनलों की बात हो या हिन्दी के समाचारपत्र अथवा पत्रिकाओं की, देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ उनका विशेष जुड़ाव रहा है और इस दृष्टि से राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास की दिशा में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि हिन्दी पत्रकारिता के 197 वर्षों के इतिहास में समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य बदलते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद सुखद स्थिति यह है कि हिन्दी पत्रकारिता के पाठकों या दर्शकों की रूचि में कोई कमी नहीं आई। यह अलग बात है कि अंग्रेजी मीडिया और उससे जुड़े कुछ पत्रकारों ने भले ही हिन्दी पत्रकारिता की उपेक्षा करते हुए सदैव उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु वास्तविकता यही है कि पिछले कुछ दशकों में हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी ताकत का बखूबी अहसास कराया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी विश्वसनीयता बढ़ी है। यह हिन्दी पत्रकारिता की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि कुछ हिन्दी अखबारों ने अनेक संस्करणों के साथ प्रसार संख्या के मामले में कुछ अंग्रेजी अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है।
हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत 30 मई 1826 को कानपुर निवासी पं. युगुल किशोर शुक्ल द्वारा प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के साथ हुई थी, जिसका अर्थ था ‘समाचार सूर्य’। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में कई समाचारपत्र निकल रहे थे किन्तु हिन्दी का पहला समाचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 को कलकत्ता से पहली बार प्रकाशित हुआ था, जो साप्ताहिक के रूप में आरंभ किया गया था। पहली बार उसकी केवल 500 प्रतियां ही छापी गई थी लेकिन चूंकि कलकत्ता में हिन्दी भाषियों की संख्या काफी कम थी और इसके पाठक कलकत्ता से बहुत दूर के भी होते थे, इसीलिए संसाधनों की कमी के कारण यह लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो पाया। 4 दिसम्बर 1826 से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बंद कर दिया गया लेकिन इस समाचारपत्र के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी नींव रखी जा चुकी थी कि उसके बाद से हिन्दी पत्रकारिता ने अनेक आयाम स्थापित किए हैं। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद अंग्रेजी शासनकाल में अनेक हिन्दी समाचारपत्र व पत्रिकाएं एक मिशन के रूप में निकलते गए किन्तु ब्रिटिश शासनकाल की ज्यादतियों के चलते उन्हें लंबे समय तक चलाते रहना बड़ा मुश्किल था, फिर भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने सराहनीय सफर तय किया। अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं और हिन्दी पत्रकारिता भी मिशन न रहकर एक बड़ा व्यवसाय बन गई है किन्तु अच्छी बात यह है कि आज भी हिन्दी पाठक व दर्शक अपनी-अपनी पसंद के अखबारों व चैनलों के साथ पूरी शिद्दत से जुड़े हैं।
देश-विदेश की हर छोटी-बड़ी हलचल से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों और हर प्रकार की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों या दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की बात हो या, व्यवसायीकरण के आरोपों या घर बैठे दुनिया की सैर कराने की, तमाम विरोधाभासों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता यह काम बखूबी कर रही है और आमजन के भरोसे पर खरा उतरते हुए हिन्दी पत्रकारिता आज आम जनजीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। अधिकांश हिन्दी समाचारपत्रों के अब ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करके अनेक सफेदपोशों के चेहरों पर पड़े नकाब उतार फैंकने का श्रेय भी पत्रकारिता जगत को ही जाता है, जिसमें हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को भी किसी भी लिहाज से कमतर नहीं आंका जा सकता। वर्तमान में जहां देशभर में नैतिक मूल्यों में बड़ी गिरावट आई है और राजनीतिज्ञों, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायिक व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है, वहीं पत्रकारिता भी इस नैतिक पतन का शिकार होने से नहीं बची है। फिर भी इतना संतोष तो किया ही जा सकता है कि इसने इसके बावजूद अधिकांश अवसरों पर सराहनीय भूमिका निभाई है। हालांकि आज के पूर्ण व्यावसायिकता के दौर में पत्रकारिता को अव्यावसायिक बनाए रखने की बात करना बेमानी होगा क्योंकि इस पेशे से जुड़े लोगों को भी अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाना अनिवार्य होता गया है लेकिन व्यावसायिकता के इस दौर में भी इसे एक उद्योग-धंधे के रूप में स्थापित करने के प्रयासों के चलते पत्रकारिता के मानदंडों को ताक पर रखने की प्रवृति से तो हर हाल में बचना ही चाहिए।
(लेखक 33 वर्षों से हिन्दी पत्रकारिता में निरन्तर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार तथा कई चर्चित हिन्दी पुस्तकों के लेखक हैं)