गोविन्द ठाकुर
12 जून को महागठबंधन की रुपरेखा तय करनी थी । इसके लिए सभी सदस्यों को पटना में मौजूदगी जरुरी थी । मगर यह अहम बैठक टल गई – क्यों ?। इसके वैसे तो कई कारण है, मगर दो कारण सबसे महत्वपूर्ण है। पहला, कुछ दलों को कुछ दलों पर विश्वास नहीं है । वे आज भी खुद को ही नेता और पीएम उम्मीदवार मानकर चल रहे हैं । दूसरा, दलों के वीच सीटों का तालमेल और समझौते की रुपरेखा को लेकर तलवारें खींची हुई है। बीच की कड़ी बने, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ी जो परेशानी है कि वह किस तरह कांग्रेस और टीएमसी , सपा और दुसरे दलों को दोनों मुददों पर सहमति करा एक मंच पर एकत्रित करे । इस रस्सा कस्सी के बीच यह तो एक बहाना है कि 12 जून को कई नेताओं के पास समय नहीं थे इसलिए इसे बढाकर 23 जून कर दिया गया है। सही बात यह है कि कांग्रेस 350 सीट से नीचे नहीं आ रही है जबकि दूसरे दल कांग्रेस को 250 से 275 सीट देने को राजी है।
हलांकि अमेरिका में राहुल गांधी ने वयान दिया है कि गठबंधन हो चुका है बस थोड़ा सा गिव एंड टेक करना है। राहुल का यह वयान काफी मायने रखता है। वयान पर गौर करें तो यही दिखता है कि कांग्रेस सीटों को लेकर लगभग तैयार हो चुकी है थोड़ी सी कसर है जिसे सुलझा लिया जायेगा। मगर जो सवाल आज भी इउठ रहे हैं वह तीन बातों में सिमटी है। पहला, गठबंधन का अधिकारिक ऐलान कब होगा दुसरा, गठबंधन की रुपरेखा क्या होगा और तीसरा, सीटों का बंटबारा किस फार्मूला से होगा।
गठबंधन की घोषणा बैठक पर निर्भर करता है अगर 23 जून को बैठक होती है तो पटना में ही इसकी घोषणा हो जायेगी। मगर इसके लिए सभी दलों को बीच मुख्य मुददों पर आपसी सहमती होनी होगी। यहां पर देखा जाय तो जो सबसे अधिक बखेड़ा कांग्रेस और टीएमसी, कांग्रेस सपा, कांग्रेस आप के बीच है। टीएमसी कांग्रेस को कुछ गिने हुए सीट ही देने को तैयार है तो कांग्रेस बंगाल में उस कांग्रेसी वोट को नहीं छोड़ना चाह रही है जो कभी उसकी रही है। अगर कांग्रेस ममता की बात मान लेती है तो कांग्रेस खुद ब खुद अपनी पैर पर कुलहारी मारेगी क्योंकि पार्टी के वोट टीएमसी के खाते पर चली जोयेगी और बंगाल कांग्रेस सदा के लिए खत्म हो जायेगी। इसलिए कांग्रेस बंगाल में भी एक सम्मान जनक सीट चाहेगी जिससे कि संगठन बनी रहे।
ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश में चल रही है यहां सपा भी ममता बनर्जी की तरह अड़ा हुआ है , कांग्रेस यहां कमसे कम 20 सीटे चाह रही है जो सपा के लिए मुश्किल है। भीतरखाने बातचीत चल रही है।
कांग्रेस आप के साथ तो चलना ही नहीं चाह रही है क्योंकि आप कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी बाधा है। मैने तो कांग्रेस के लिए आप बीजेपी से भी बड़ा बाधा है वो इसलिए कि आप उसी वोट को टारगेट करती है जो कांग्रेस की है। वैसे भी देखें तो आप वहीं चुनावी टॉरगेट सेट करता है जहां कांग्रेस मजबूत है, कई राज्यों में आप ने कांग्रेस को सत्ता पर काबिज नहीं होने दिया है जिसका नतीजा बीजेपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद भी सत्ता हासिल कर ली। फिर आप ने कांग्रेस से दिल्ली और पंजाब छीन चुकी है बांकि राज्यों पर भी कांग्रेस को परेशान कर रही है। अगर कांग्रेस या आ दोनों में से जो भी कमजोर होगी तो एक दुसरे को लाभ ही होगा। मगर विपक्षी दलों को दबाव में कांग्रेस एकमंच पर बैठने को तैयार है।
महागठबंधन की बैठक पटना में ही क्यों हो रही है- इसको इस रुप में ले सकते हैं। पहला, दिल्ली में 9 सालों में जो भी प्रयास किये गये वह असफल रहे हैं कह सकते हैं कि वह महज एक फोटोशूट ही रहा। क्योंकिं कांग्रेस विरोधी विपक्ष सोनिया गांघी के आवास या राहुल की मौजूदगी में असहज हो रहे थे तभी ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार से कहा था कि महाघठबं की बैठक पटना में ही होनी चाहिए। दूसरा, पटना में जो भी गठबंधन बने हैं वह सफल रहे हैं 2015 के महागठबंधन, तो 1977 के जेपी के नेतृत्व में कांग्रेस विरोधी गठबंधन।
देखा जाय तो इस संभावित गठबंधन में नीतीश कुमार का रौल काफी अहम रहा है। इससे पहले शरद पवार ने काफी मेहनत की थी मगर वे दिल्ली तक ही सिमट कर रह गये थे और इतने दलों का समर्थन भी नही था मगर नीतीश कुमार ने करीब 20 दलों को साथ होने का दावा तो कर ही दिया है। अगर यह गठबंधन बनता है तो नीतीश कुमार रौल क्या होगा। माना जा रहा है कि यूपीए की तरह सोनिया गांधी महागठबंधन का चेयरपर्शन होंगी या फिर शरद पवार को भी बनाया जा सकता है मगर संयोजक का रौल नीतीश कुमार के पास होगा। इस गठबंधन में नीतीश का रोल अहम है जो सभी दलों को एक सूत्र में बांधकर रख सकते हैं।
प्रधानमंत्री का चेहरा कौन होगा यह सबसे बड़ा सवाल है, इसका जबाव यही कहा जा रहा है कि इसपर सभी दलों में आमराय बन चुका है कि चुनाव के बाद ही नेता का चुनाव होगा ।
जहां तक गठबंधन की रुपरेखा की बात है तो सूत्र बताते हैं कि गठबंधन दो स्तर पर होंगे पहला चुनाव से पहले दुसरा चुनाव के बाद। चुनाव से पहले जो दल शामिल होने वाले हैं उनमें कांग्रेस, जेडियू, आरजेडी, एमके, शिवसेना, एनसीपी, वामदल,जेएमएम, इनेलो, एआईडीयूएफ, सपा, आरएलडी, और आप चुनाव के बाद जो संभावित दल हैं – बीएसपी, बीआरएस, बीजेडी, वाईएसआर, जेडीएस, ये बाहर से समर्थन दे सकते हैं।
टिकट का फार्मूला मोटा मोटी इस प्रकार है, जहां कांग्रेस मजबूत है वहां वह नेतृत्व करे और जहां क्षेत्रीय दल मजबूत है वहां क्षेत्रीय दल करेंगे मतलब कांग्रेस को कुछ समझौता कुछ राज्यों में करनी होगी।