प्रो: नीलम महाजन सिंह
भारत के नवीन संसद भवन उद्घाटन के उपरान्त अधिकांश विरोधी दलों ने हिस्सा न लेकर संविधान का भी तिरस्कार किया है। ‘सेंगोल’ क्या है, सच मे मुझे भी इसके बारे में इतनी जानकारी नहीं थी। सेंगोल सोने की परत चढ़ी चांदी का भाला है, जिसे भारत के नए संसद भवन में स्थापित किया गया है। इसी के आगे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने साष्टांग प्रणाम किया था। यह मूल रूप से 14 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को अधिनम मठ के संतों के प्रतिनिधिमंडल द्वारा उपहार में दिया गया था। शीघ्र ही सीताराम येचुरी, सीपीआई-एम के प्रमुख, ने ट्विटर, फेसबुक व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एक संदेश जारी किया व कहा कि, सेंगोल ‘प्रजातांत्रिक प्रणाली के विपरित का प्रतीक है’। क्या प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, प्रजातंत्र को समाप्त कर राजतंत्र की प्रस्तावना कर रहे हैं? ई.एच. कार, विख्यात इतिहासकार ने ‘वट इस हिस्ट्री’ मे यह लिखा कि; “सत्य की घटनाएँ अनिवार्य हैं और उसे परिभाषित करने में विभिन्न विचार हो सकते हैं”। फ़िर हमें इतिहास का अध्ययन कर भविष्य पर विचार करना चाहिए। 15 अगस्त 1947 से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ कर भारत प्रजातांत्रिक देश बना। फिर यह चर्चा क्यों हो रही है कि राजा वही उत्तम है, जो राज धर्म को निभाता हो व उसे अपना धर्म समझे? देश में ऐसे बहुत लोग हैं जो राजा को जनप्रतिनिधि नहीं मानते। वे राजनीति से व शासक वर्ग के राजधर्म से घृणा करते हैं या उनके प्रति उदासीन भाव रखते हैं। परन्तु देश को प्रशासित करना भी तो राजधर्म है ना? इनके लिए राजा, राजनीति और राजधर्म यह सभी ओच्छे लोगों के कार्य हैं। क्योंकि वे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को ‘राजा’ के रूप मे चित्रित कर रहें हैं। राजा, राजनीति और राजधर्म के सन्दर्भ में भारतीय बौद्धिक परम्परा में इन तीनों का पवित्र व सार्थक अर्थ है। जहां तक राजधर्म की बात है तो इसका अर्थ ‘राजा का धर्म’ या ‘राजा के पवित्र कर्तव्य कर्म’ से लिया जाना चाहिए। 21वीं सदी के राजशाही में भी प्रजातांत्रिक मूल्य हैं। राजनीति अपने आप में एक पवित्र संस्था इसलिए है कि इससे आम जन-मानस की सेवा की जा सके। क्योंकि इसका उद्देश्य समाज में शांति व्यवस्था स्थापित कर एक सुव्यवस्था प्रदान करना ही नहीं है, अपितु यह मानव मन-मस्तिष्क में उन सुविचारों का आदान करने वाली भी है, जिनसे संसारिक शांति व्यवस्था बनी रहे। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी लाभदायक परिस्थितियां बनी रहें। प्रत्येक व्यक्ति को अपने मानसिक, शारीरिक व आत्मिक विकास के अवसर सहज रूप से उपलब्ध रहें। जब राजनीति अपने कर्तव्य-कर्म को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करती है तो उसके लिए यह राजधर्म बन जाता है। निष्कर्षार्थ प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी ‘राजधर्म’ शब्द का प्रयोग किया है, तो फिर क्या प्रजातंत्र पर संकट आ गया था? राजा के विवेक से, राजनीति के वैराग्य से व राजधर्म की भक्ति से ही कोई समाज उन्नत समाज बन सकता है। विवेक, वैराग्य व भक्ति की इसी त्रिवेणी में स्नान करके कोई भी देश पवित्र होकर विश्व के लिए मार्गदर्शक, ‘विश्वगुरु’ बन सकता है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड भी तो इसी प्रजातांत्रिक नियमों के पूरक हैं। भारतीय अध्यात्म के दिव्य स्वरूप की अनुभूति, जिसका अपने मौलिक स्वरूप में व्यष्टि से समष्टि तक का कल्याण करने का उद्देश्य हो; वहीं जन सेवा का प्रतीक है। भारत में इसे ही राजधर्म माना जाता है। भारत के इसी राजधर्म के चलते हमारे देश में ऐसे लोगों को ही राजनीति में लाया जाता था जो लोक कल्याण को अपने जीवन का परमोद्देश्य घोषित करते थे। स्वार्थभाव से प्रेरित होकर राजनीति में आना आज के राजनीतिक लोगों का शौक हो सकता है, परंतु प्राचीन भारत में राजधर्म का निर्वाह बड़ी पवित्रता के साथ किया जाता था। इसके निर्वाह करने में राजा अपना सौभाग्य समझता था। सच्चे हृदय व नि:स्वार्थ भाव से वे मानव सेवा करते थे। ऐसा राजधर्म संसार के किसी अन्य देश में खोजा जाना संभव नहीं है। भारत के राजधर्म को मूल रूप से वेदों से प्रेरणा मिलती है। न्याय, नीति, धर्म, विवेक, वैराग्य व भक्ति का वेदों में वर्णन है।
भारतीय राजा, राजनीति व राजधर्म; मनुष्य के लिए वही परिस्थितियां व अवसर उपलब्ध करा देना चाहते हैं; जिनसे प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष का अभिलाषी ही न बने अपितु उसे प्राप्त करने वाला भी बने। वेदों के पश्चात कई ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें साधारण मनुष्य के लिए और राजा के लिए उनके धर्म का उल्लेख किया गया है।भारत के इन आर्षग्रंथों में हम ‘मनुस्मृति’, ‘शुक्रनीति’, महाभारत के ‘विदुर प्रजागर’, ‘शान्तिपर्व’ तथा चाणक्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ आदि को सम्मिलित कर सकते हैं। महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश देते हुए बहुत सुंदर बातें कही हैं। भीष्म — युधिष्ठिर को राजधर्म का पाठ पढ़ाते हुए कहते हैं, कि राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परंतु जीवन में कटुता न आने दें। इन ग्रंथों का दोहन कर देश, काल व परिस्थिति के अनुकूल अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने भी एक पूरा अध्याय राजधर्म पर लिखा है। इस के माध्यम से स्वामी दयानंद जी महाराज ने भारत के राजधर्म के वास्तविक मूल्यों का चित्रण करने का प्रयास किया है, जिससे वर्तमान समाज व संसार को यह पता लग सके कि प्राचीन भारत में राजधर्म, लोककल्याण की कामना करता था। राजधर्म या प्रजातंत्र: नागरिकों का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास ही मूल मंत्र होना चाहिए।
प्रो: नीलम महाजन सिंह
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक समीक्षक, दूरदर्शन व्यक्तित्व, मानवाधिकार संरक्षण सॉलिसिटर व परोपकारक)