डॉ.वीरेंद्र प्रसाद
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।
मधुमय उदास सी तन्हाई
लेती है हर रात अंगड़ाई
दर्द सीने में मचलता ऐसे
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।
फैलाती है जब उषा राग
जग कहता है उनका विराग
प्रीत, मोह, घृणा, पीड़ा
मिलकर बिखेरे आतप आग
कौन अकिंचन अति आतुर
निगाहों ने कहानी दुहराई
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।
कहता दिगन्त से मलयपवन
हर दिक् लाज भरी चितवन
लहरों की क्रीडा भी चंचल
बिखरा देते हैं अखिल भुवन
सान्ध्य गगन के रंगमयी पर
तारों ने भी निगाह दौड़ाई
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।
सुधि के सुरभित नेह घुले
आतप के चुंबन से निखरे
विद्युत के दे चरण उन्हें
उड़ते है क्षण पुलक भरे।
मसि सागर का पन्थ बना
कांधे पर जो जुल्फ लहराई
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।
शून्य के निश्वा स ने दी
यह स्पन्दन अंक व्यथा के
चिर उज्ज्वल है तम के शैल
बिखरी विस्मृत क्षार कथा के
कैसे थाह लगाऊ मन रे
प्रीत की, जीवन की गहराई
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।
मेरे गम के, तेरे सितम के
अनुमान लगाना है मुश्किल
रात में जब सब सो जाये
यादों को सुलाना है मुश्किल
सासों की समाधि है तन
फिर दिल के चोट उभर आई
वक्त बेवक्त उनकी याद आई।