सीता राम शर्मा ” चेतन “
सिद्ध अविश्वासी मित्र से मित्रता सजगता की निरंतरता और निरंतर परख तथा पारदर्शिता की जरूरत को आचरणगत विशेषता बनाए रखने की मांग करता है । सड़क पर यात्रा का सार्वजनिक भारतीय मंत्र है – सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी । भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की अभी-अभी पूरी हुई अमेरिका यात्रा से भारत-अमेरिका संबंधों में अनायास ही आई बहुत ज्यादा सकारात्मकता, आशा और गर्मजोशी वास्तविकता की धरातल पर परिस्थितिजन्य अमेरिकन यथार्थ नीति है या फिर एक बहुत बड़ी प्रायोजित कूटनीति ? अमेरिका में आया यह बदलाव सचमुच विश्वास करने योग्य है या फिर उसकी किसी वैश्विक कूटनीति का हिस्सा ? ये प्रश्न कम से कम भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों और विश्वास को लेकर भारत को गंभीर होने और निकट भविष्य में भी गंभीर बने रहने की चेतावनी अवश्य देते हैं । मोदी की अमेरिका यात्रा का विश्लेषण व्यापक दृष्टिकोण से और व्यापक परिप्रेक्ष्य में सबसे पहले खुद मोदी को करना चाहिए और फिर मोदी सरकार को । यह सुझाव प्रथम दृष्टया अटपटा और बेहद गैर जरुरी लग सकता है, पर जाने क्यों विषयगत गंभीरता बार-बार संदिग्धता और इस दिशा में दीर्घकालीन सजगता की मांग करती है । अमेरिकन राष्ट्रपति जो बाइडेन के अब तक के पूरे कार्यकाल में भारत-अमेरिका के जैसे संबंध रहे हैं या फिर अमेरिकन और वैश्विक परिस्थितियों में दोनों देशों की एक दूसरे से आशाएं, आकांक्षाएं और अपेक्षाएं रही हैं, उन्हें देखते समझते हुए भी इस बात को बल मिलता है कि भारत को महज तीन-चार दिन ( हालांकि इसकी तैयारी महिनों में होती है ) की आतिथ्यपूर्ण उत्साहवर्धक और अत्यंत प्रभावशाली लगती यात्रा से बहुत ज्यादा आशावादी होने की जरूरत बिल्कुल नहीं है । ना ही कुछ नीतिगत, व्यवसायिक और रणनीतिक समझौतों के होने भर से सामने वाले संदिग्ध मित्र को हमें अपना प्रगाढ़ मित्र मान लेना चाहिए ।
वैश्विक परिस्थितियों और अपेक्षाओं के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जा रही भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा को चाहे जितना महत्व दिया जाए भारत के लिए उसकी सार्थकता चंद नीतिगत समझौतों तक भी तब मानी जानी चाहिए, जब वे समझौते पूरी तरह धरातल पर उतर जाएं । मोदी की यात्रा को अमेरिका द्वारा बहुत ज्यादा महत्व देने के बावजूद उस पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं करने का कारण बहुत स्पष्ट है और वह यह है कि अमेरिका वास्तव में विश्व का सबसे बड़ा व्यापारी देश है । अमेरिका का सबसे पहले सिर्फ और सिर्फ व्यापारी देश होना उसके मानवीय और वैश्विक स्वभाव तथा दृष्टिकोण को संदिग्ध बनाता है । जिसे उसने कई बार सिद्ध भी किया है । तेजी से बदलती वैश्विक परिस्थितियों के बीच वैश्विक महाशक्ति बने रहने की उसकी भूख अब भी जारी है । युक्रेन-रुस युद्ध के दौरान भारत को लेकर उसकी नीतियों और मंशाओं से हम भलीभांति परिचित हैं । इसमें कतई संदेह नहीं है कि अमेरिकन नेतृत्व बाइडेन मोदी की इस बात को गहराई से पकड़े हुए हैं कि यह युग युद्ध का नहीं कूटनीति का है क्योंकि अमेरिका तो बहुत पहले से अपनी कूटनीति का मुख्य मंत्र युद्ध को बनाए हुए है । अंदरुणी और अंतरराष्ट्रीय युद्ध और युद्ध के भय का स्थायित्व और विस्तार ही उसके समृद्धशाली और महाशक्ति होने का आधार है । इसलिए जाने क्यों ऐसा लगता है कि बाइडेन मोदी के कूटनीतिक ज्ञान को मोदी और भारत के साथ अपनी कूटनीति से एक नये अध्याय के रुप में लिखने की मंशा रख सकते हैं । ऐसा ना हो और इस संदर्भ में मेरा अनुमान अथवा विचार पूर्णतः गलत सिद्ध हो, यह मैं भी चाहता हूं पर मोदी की यात्रा का समय, उसका अमेरिकी आग्रह, उसकी जरूरत, उसका कालखंड और यात्रा के दौरान अमेरिकन गतिविधियों के साथ बाइडेन के भूतपूर्व अमेरिकन राष्ट्रपति मित्र बराक ओबामा के वक्तव्य मुझे सकारात्मक होने की अनुमति नहीं देते । संभव है कि रुस, चीन और हिंद प्रशांत महासागर का संकट अमेरिका को बदलने को विवश कर रहा हो, पर जब तक यह संभावना शत-प्रतिशत सत्य सिद्ध ना हो जाए भारत को अपने हिस्से की उच्च स्तरीय सजगता, चतुराई और कुटनीति बनाए रखनी चाहिए ।