सीता राम शर्मा ” चेतन “
आधुनिकता और भौतिकता से मानवीय जीवन और समाज में चाहे जितने अच्छे बदलाव आए हों, इनसे मानवीय जीवन और चरित्र से भावनाओं, संवेदनाओं और पारिवारिक आत्मिक रिश्ते लगभग पूरी तरह तहस-नहस हो गए हैं ! सब जानते हैं जीवन क्षण भंगुर है । दृश्य जीवन की अंतिम परिणति मृत्य है । धन-दौलत जमीन जायदाद और तमाम रिश्ते-नाते, कुछ भी सदा-सदा के लिए नहीं, सब नष्ट होने, खोने के लिए हैं । जीवन में इन संपदाओं का जो जितना बेहतर सदुपयोग करेगा, व्यक्ति विशेष के लिए इनकी सार्थकता उतनी ही ज्यादा होगी । दूसरी तरफ जो इनकी हवस से वशीभूत हो इन्हें पाने के लिए कुछ भी अमानवीय कृत्य करने को तैयार होगा, करेगा, खुद के साथ कई लोगों के लिए दुखदाई और कलंकित जीवन जीकर त्रासदी ही उत्पन्न करेगा । घोर आश्चर्य की बात है कि धरती पर रहती मनुष्य जाति इस जीवन यथार्थ को ज्ञाण, शिक्षा, संस्कार, धर्म और कर्म के कई माध्यमों से जानती समझती और समझाती आई है, बावजूद इसके मानवीय जीवन और उसकी व्यवस्था से मनुष्यता के भाव, आचरण, कर्म और धर्म का निरंतर ह्रास हो रहा है ! पतन की हद यह है कि मनुष्य सब कुछ जानता समझता हुआ भी धन-दौलत जमीन-जायदाद के लिए अपने माता-पिता, भाई-बहन, बेटे-बेटी और अन्य अत्यंत करीबी रिश्तेदारों, मित्रों से भी छल-कपट और हिंसा करने से नहीं रूकता-चूकता ! आए दिन घनिष्ठ पारिवारिक रिश्तों में भी अपराध और जानलेवा हिंसा तक की खबरें अब आम हो चुकी है । गौरतलब है कि शिक्षा और जानकारी के नव आधुनिक तकनीकों, संचार प्रसार माध्यमों से पतन के गर्त में जाते मानवीय पारिवारिक भावों और रिश्ते नातों को बचाने में थोड़ा सहयोग अवश्य मिला है । अपने व्यक्तिगत कानूनी अधिकारों की जानकारी से लाखों पथभ्रष्ट हुई भोगवादी भटकी संतानों की संवेदनहीनता और दुष्टता से असहाय और नारकीय जीवन जीने की विवशता से लाखों लोग ना सिर्फ बच रहे हैं बल्कि विवशता में ही सही लाखों भटकी संतानों को अपने वृद्ध माता-पिता के प्रति जवाबदेह भी होना पड़ रहा है । निःसंदेह भटकी हुई, स्वार्थी और दुष्टता की सारी हदें लांघती आज की पीढ़ी से नारकीय होती वृद्धावस्था को विभिन्न माध्यमों से मिलती कानूनी जानकारी के प्रचार-प्रसार से थोड़ी सुरक्षा मिली है, जिसका व्यापक प्रचार प्रसार होना अभी भी बहुत जरूरी है । भोगवादी अपसंस्कृति और संवेदनहीन होती आज की संतानों का काला सच आज हर दूसरे घर की हकीकत है तब आज के पूरे समाज को यह सोचना समझना बेहद जरूरी है कि वह वृद्ध माता-पिता और नालायक पुत्र, दोनों में से किसके साथ खड़ा हो ? यदि पिता के चार पुत्र हैं और उनमें से तीन अपने वृद्ध माता-पिता को घोर कष्ट दे रहे हों । उनका अनादर कर रहे हों । उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से भी कष्ट दे रहे हों और एक उनके साथ हो, उनकी उचित देखभाल कर रहा हो तो वह किसके साथ हों और किसका विरोध करें ? तेजी से बदलते आज के समय में पूरे समाज को परिवार को लेकर अपने पुराने परंपरागत विचारों और उनके साथ अपने दैनिक व्यवहार में बदलाव लाने की जरूरत है । उनके साथ व्यवहार में तार्किक और न्यायिक दृष्टिकोण से परिवर्तन लाने की जरूरत है, ताकि आने वाले कल में हर व्यक्ति का बुढ़ापा सुरक्षित हो । आज हर एक व्यक्ति को दूरदर्शी होकर यह जानना समझना जरूरी है कि आज का युवा और बच्चा भो आने वाले समय में वृद्ध होगा । यदि आज उसने किसी भी स्वार्थ, कारण अथवा मनुष्यता के एकांगी भाव से भटकी हुई पीढ़ी और मातृ तथा पैतृक दायित्व से विमुख हुई नालायक संतानों के साथ खड़े होने की, दया दिखाने की अदूरदर्शिता दिखाई तो यह अप्रत्यक्ष रूप से अपने आने वाले वृद्धावस्था को कष्टप्रद बनाना होगा । कानून तो समयानुसार सदैव इस दिशा में हर एक व्यक्ति के सुरक्षित और खुशहाल जीवन के नियमों के साथ सर्वत्र उपलब्ध है और रहेगा भी । जरूरत समाज को इस संदर्भ में अपने ज्ञान को बढ़ाने की है । उसे व्यवहार में लाने की है । यदि हम चाहते हैं कि समाज में बुजुर्गों के तेजी से बिगड़ते हालात पर अंकुश लगे और हर एक व्यक्ति का बुढ़ापा सुरक्षित हो तो अत्यंत भोगवादी और धन-संपत्ति की हवसी संतानों का भविष्य हमें असुरक्षित करना ही होगा ।