सन्दीप तोमर
आज एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी, उन्होने किसी अजय की सोशल साइट पर लिखी एक पोस्ट का हवाला देकर कहा- “आपने पढ़ी उनकी वह पोस्ट?” असल में मैंने उस व्यक्ति की उज्जड भाषा के चलते उससे किनारा किया हुआ है, लेकिन “राजनीति के सोनगाछी में सज गयी रंडियाँ बिकने को तैयार हैं…” जैसे वाक्य को पढ़कर किसी का भी माथा ठनक सकता है। आपको ज़िंदगी में ऐसे कितने ही लोग मिलते हैं जिनकी भाषा की जानकारी कभी आपको उनके ज्ञान पर मुग्ध करती है तो कभी उनकी अज्ञानता पर शर्मिंदा भी कर सकती है। उक्त मित्र से बातचीत भाषा के मसलों से होती हुई आजकल के युवाओं द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शब्दों पर टिक गयी।
मुझे लगता है कि आज के युवा न जाने कितने ही ऐसे शब्द आज धड़ल्ले से बोलते हैं, जो एक जमाने में वर्जित थे, यहाँ वर्जना से मेरा अभिप्राय सबके सामने या अपने से बड़ो के सामने न बोल पाने से है।
मित्र से बात करते हुए मुझे याद आया कपिल शर्मा के शो में अक्सर एक जुमला इस्तेमाल होता है-“बाबाजी का ठुल्लू”, आज की पीढ़ी ने टेलीविज़न से सीखकर इसका प्रयोग भी बहुतायत में करना शुरू कर दिया है जबकि मेरा दावा है कि उनमे से बहुत कम लोग इस शब्द का अर्थ जानते होंगे, आप कह सकते हैं कि सभ्य भाषा में इसका अर्थ ‘ठेंगे’ से लिया जा सकता है लेकिन असल में इसका अर्थ ठेंगा कदापि नहीं है, इसका असल मतलब लगभग अन्प्रीडिक्टेबल है, जिसे असंवैधानिक कहना ज्यादा उचित होगा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले इसके लिए उपयुक्त शब्द जानते हैं।
एफएम रेडियो पर कुछ समय पहले एक कार्यक्रम एयर होता था- ‘कह कर लूंगा’, आप अंदाजा लगाइए आम बोलचाल में इस शब्द पुंज का क्या निहितार्थ है? ‘कह कर लूंगा’ अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के एक गाने का मुखड़ा भी है आप खुद सोच सकते हैं कि इस द्विअर्थी गाने का क्या अर्थ लिया जाना चाहिए, कोई कहेगा कि गाने में किसी की जान लेने की बात कही जा रही है, लेकिन क्या आप ऐसा मानते हैं कि गाने के लिरिक्स लिखने वाले ने जान लेने के संदर्भ में ही इसे लिखा? याद कीजिये दादा कोंडके की फिल्मों के टाइटल- अंधेरी रात में….., तू झुक…., पाँच कमरे……, इस तरह के द्विअर्थी टाइटल के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है, मुझे नहीं मालूम, हो सकता है ये सस्ती लोकप्रियता के लिए शॉर्टकट हो या फिर बिजनेस टूल, लेकिन जो भी है, इसे मैं भाषाई स्तर पर दोयम दर्जे के प्रयोग के रूप में देखता हूँ।
ऐसे कई द्विअर्थी शब्द-समूह पिछले कुछ सालों में हाशिये को लांघकर मुख्यधारा का हिस्सा बने हैं, आज से तीस-बत्तीस साल पहले जिन जुमलों को कभी-कभार गिने-चुने लोगों के बीच विशेष वातावरण में इस्तेमाल किया जाता था, और इस बात का खास ध्यान रखा जाता था कि कोई अपने से बड़ी उम्र का व्यक्ति हमारे वार्तालाप को सुन न ले, यह सस्ती भाषा अब हमारे ड्राइंगरूम में होने वाली बातचीत का अभिन्न हिस्सा बन रही है।
किसी रेडियो कार्यक्रम को एयर करते समय क्या इस बात का ध्यान नहीं रखना चाहिए कि उनके कार्यक्रम को एक विशेष वय-वर्ग न सुनकर हर वय का श्रोता सुनता है, रेडियो के कार्यक्रम में ये चेतावनी भी नहीं होती कि ये सिर्फ वयस्कों के लिए है। क्या द्विअर्थी और अश्लील बात को परिवार के मनोरंजन और इस्तेमाल की चीज बनाने की कोशिश करना उचित है इस बात पर भी सवाल होना चाहिए।
मुझे याद आया- मेरे बीएड करने के दौरान मेरी एक सहपाठी ने एक शब्द इस्तेमाल किया- ‘केएलपीडी’, असल में 1990 से 2000 के बीच ये शब्द लड़कों के बीच खासा लोकप्रिय था, लोकप्रिय यानि अच्छा-खासा बोले जाने वाला शब्द, और अमूमन हर लड़का हिंदी शब्दों के इस संक्षिप्त (अंग्रेजी) स्वरूप ‘केएलपीडी’ का अर्थ जानता था, यह शब्द अपने विस्तार में बड़ी अश्लीलता से लगभग वही कहता है जो एक लोकोक्ति- जहां जाए भूखा, वहां पड़े सूखा- कहती है। मैंने उक्त सहपाठी से कहा-“तुम जिस शब्द को अभी प्रयोग कर रही थी, उसका अर्थ जानती हो?” उसने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए मुझसे कहा-“तुम जानते हो?” मैंने उसे अर्थ जानने की हामी भरते हुए बता पाने की असमर्थता जाहिर की, लेकिन आज इसका विस्तारित स्वरूप जाने बिना, छोटों-बड़ों, लड़कों-लड़कियों सबके द्वारा इसका भरपूर प्रयोग देखने को मिलता है।
बात सिर्फ चंद शब्दों की नहीं है, कितने ही शब्द हैं जो आज भरपूर बोले जा रहे हैं, बिना अर्थ जाने, कुछ को पूरे वाक्य में प्रयोग न करने आधे वाक्य के रूप में प्रयोग किया जा रहा है, मसलन- फट्टू जैसे शब्द।
स्कूल में अध्यापन के समय कुछ बच्चों के मुंह से उनके आपसी वार्तालाप मे ऐसे कितने ही शब्द कानों में पड़ते हैं जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है, ‘अबे तेरी क्यों फट रही है’ अब यहाँ किसी की बाजू या पेंट के फटने की बात तो कम से कम नहीं ही हो रही है, फिर क्या ये पीढ़ी नहीं जानती कि इस अश्लीलता के मायने क्या हैं? तुझे क्यों ‘लग गयी’, ‘तेरी क्यों सुलगी पड़ी है’ जैसी भाषा जब घरो, स्कूलों में प्रयोग होने लगे तो मेरे विचार ये ये एक गंभीर समस्या है, जिसको अभी ठीक किया जाना जरूरी है। सवाल यह भी है कि देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रवाद, वामपंथ-दक्षिणपंथ जैसे छोटे-बडे मुद्दों पर तरह-तरह के सवाल-जवाब करने वाला इंसान इस विषय पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाता?
हो सकता है कि ये सब शब्द, शब्द गुच्छ गलियों, चौराहों पर मस्ती की भाषा बन जाते हो लेकिन इनमें श्लीलता-अश्लीलता को ढूंढना बेमानी कदापि नहीं होगा क्योंकि न ही ये घर की भाषा कभी थे, न ही इन्हें घर की भाषा के रूप में स्वीकार ही किया जा सकता है। गली-चौराहों पर अपने सस्ते रूप में प्रयोग होने वाले इन शब्दों को घर के रास्ते ड्राइंग रूम मे पसरने से रोकना आवश्यक है।
ऐसे कुछ और शब्दगुच्छ हैं – ‘ले ली’, ‘सुलग गईं’, ‘उंगली मत कर’ और ‘उखाड़ ले जो उखाड़ना है’। इनमें से सबके ही अश्लील अर्थ हैं, इनके सामान्य स्वरूप को खोजना बिल्ली के आगे आँखें बंद करना ही है। जो लोग उत्तर भारत के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों से हैं उनमें से ज्यादातर ने लड़कपन में इन शब्दो का इस्तेमाल अवश्य किया होगा लेकिन खुलेआम इनका प्रचलन नहीं रहा, इन्हें इस्तेमाल करने वाले युवा आज इसलिए इन्हें सामान्य मानते हैं क्योंकि उन्हें इनके उद्गम या विस्तारित स्वरूप या इनके असल मायने का भान नहीं है, लेकिन सवाल ये भी है कि अगर इस पीढ़ी को इनका असल मतलब पता भी हो तो क्या वे इनको सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल करने से बचना चाहेंगे? अगर वे तब भी इनका इस्तेमाल करते हैं तो फिर रसातल में जाने वालों को कौन रोक सकता है?
एक और वाकया याद आया, दो बच्चो को वार्ता करते हुए सुना, एक लड़के ने दूसरे से कहा- ‘तेल डाल दूँगा’, जाहिर सी बात है वह, कुकर में तेल डालने या फिर कुप्पे या किसी शीशी में तेल डालने पर तो विमर्श नहीं ही था। दूसरे लड़के ने जुमला बोला- ‘अबे, तेल की शीशी और बोरा लेकर चौराहे पर बैठ जा।‘ सोचा जा सकता है ये किसी व्यवसाय की बात हो रही थी या फिर उस भाषा का विमर्श ही था जिसे परिवार में वर्ज्य माना जाता है।
आज के युग में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल फ़ैशन (चलन न होकर आधुनिकता) के तहत आता है। इन्हें इस्तेमाल करने वाले लोगों के लिए शायद यह दूसरे को आकर्षित करने का जरिया भर है परन्तु वे नही जानते कि आगे आने वाली पीढ़ी इनसे भी ज्यादा खुलेपन के साथ और अधिक वयस्क शब्दों को बोलेंगी।
इस तरह के जुमले वाले शब्द, शब्द गुच्छ से इतर भी कुछ शब्द अलग, अलग जगहो पर प्रचलित हैं, जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ‘साला’ शब्द प्रचलित यानि आम चलन में है और यह शब्द वहाँ के समाज द्वारा लगभग स्वीकार्य भी है। एक मित्र द्वारा साझा की गयी जानकारी के अनुसार अब्दुल बिस्मिल्लाह की कृति ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ में भी ऐसे वक्तव्यों की भरमार है। काशीनाथ सिंह के ‘काशी का अस्सी’ में भी ऐसे शब्द पढ़ने को मिलते हैं जो वहाँ तो खासा प्रचलित हैं लेकिन उन्हें परिवारों में शायद ही स्वीकार्यता मिले? यूँ तो डॉ राही मासूम रजा भी गलियों को अपनी कृतियों में इस्तेमाल करने के लिए खासे बदनाम रहे हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों का यदि आप भ्रमण करें तो आपको वहाँ के आपसी वार्तालाप को सुनकर हैरत हो सकती है, मसलन दो सगे भाई, बाप-बेटा, माँ-बेटी या दो दोस्त अथवा दो सहेलियाँ जिस तरह से बातचीत में स्त्री अंगों पर बनी गलियों का इस्तेमाल आपस में करते हैं, उन्हें शायद ही आप हजम कर पाएँ। हो सकता है कि यह सब उस परिवेश को कुछ विशिष्टता प्रदान करता हो परंतु यह भी भाषा का पतन ही है जो इन शब्दों को स्वीकार्य शब्दों में बदल देने की एक बदनाम कोशिश मात्र है।
असल में इस नयी तरह से तैयार नयी पीढ़ी के लिए भाषाई जानकारी होना न होना ज्यादा मायने नहीं रखता, उनके लिए इन शब्दों का प्रयोग “चिल्ड” / “कूल” होने का प्रतीक बन चुका है।
कुछ दिन पहले एक महिला मित्र से बातचीत के दौरान किसी अन्य पुरुष मित्र पर चर्चा चली, महिला मित्र ने कहा- “अरे आप भी किस ‘चु…’ की बात कर रहे हैं, हालाकि मैं इस शब्द का शाब्दिक अर्थ जानता था, तथापि मेरे सामने किसी महिला द्वारा इस शब्द का प्रयोग पहली बार हुआ, और महिला ही नहीं परिवारों में भी अक्सर मैंने अपनी पीढ़ी के पुरुषों द्वारा भी इस शब्द का परिवारों, घरों में प्रयोग नहीं देखा, चुनांचे मेरे लिए यह थोड़ा अप्रत्याशित अवश्य रहा।
‘चू…’ शब्द का संबंध संस्कृत के शब्द ‘च्युत’ से है। यह च्युत का अपभ्रंश (मतलब भ्रष्ट या बिगड़ा हुआ रूप) है। दिलचस्प बात यह है कि अपभ्रंश का जो अर्थ है, कुछ-कुछ वही च्युत का भी अर्थ है- गिर जाना, भ्रष्ट हो जाना, नष्ट हो जाना वगैरह। इसी से बने शब्द हैं- कर्तव्यच्युत, पदच्युत आदि। दूसरे अर्थ में इसका प्रयोग मूर्ख, कम दिमाग या बेअक्ल के रूप में भी प्रयुक्त होता है। लेकिन इस शब्द पर गूगल सर्च करने पर और अधिक जानकारी प्राप्त हुई। असम में कचारी वर्ग के लोग अपनी जाति के रूप में ‘चू…’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, इसे सूतिया भी उच्चारित किया जाता है। असम में इनकी आबादी 20 से 25 लाख के बीच बताई जाती है।
बिष्णु प्रसाद राभा, डब्ल्यूबी ब्राउन और पवन चंद्र सैकिया ने अपनी किताब ‘द डिबोनगियास’ में लिखा है शब्द चू-ति-या मूल तौर पर देओरी चूतिया भाषा से आया है, जिसका मतलब है कि शुद्ध पानी के करीब रहने वाले लोग। इसमें चू का अर्थ प्योर यानि शुद्ध या अच्छा, ति का मतलब पानी और या यानि उस भूमि में रहने वाले निवासी या लोग। ‘चूतिया’ शब्द के अर्थ और असम की जाति से इसका संबंध जानने के बाद भी हिन्दी जगत में इसके खुले प्रयोग पर आम सहमति बनती प्रतीत नहीं होती। विचार करने योग्य बात यह है कि इंसान पूरी जिंदगी इस बात को सीखने में निकाल देता है कि हमें समाज/समुदाय में बोलना कैसे है अगर हम ये सब नहीं सीख पाते तो हिन्दी भाषा की उसी तरह बत्ती बुझना तय है जैसे नुकसान होने के लिए गुजरती, मराठी से होते हुए यह ‘वाट लगना’ हो गया। अगर ऐसा होता है तो मेरे लिए बेहतर है कि मुझे अब किसी अन्य बेहतरीन विषय पर चिंतन-मनन करना चाहिए।