ललित गर्ग
शंघाई सहयोग संगठन-एससीओ के सदस्य देश चाहे तो इस दुनिया का कायाकल्प कर सकते हैं। अहिंसक विश्व रचना, आतंकमुक्त संसार, आर्थिक उन्नति, आपसी व्यापार एवं समतामूलक दुनिया के सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक संकल्प को आकार दिया जा सकता है, लेकिन चीन एवं पाकिस्तान दो देशों के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा है। पाकिस्तान पडौसी देश में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने से बाज नहीं आ रहा है तो चीन अपनी विस्तारवादी गतिविधियों, आर्थिक महत्वाकांक्षाओं, एक दूसरे देशों की सीमाओं के प्रति असम्मान लगातार कर रहा हैं। शायद इसी का असर है कि एससीओ की मंगलवार को हुई शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ की उपस्थिति में कड़े एवं साहसिक शब्दों में कहा, ‘आतंकवाद किसी रूप में हो, उसकी एससीओ मंच से एक स्वर में निंदा होनी चाहिए। इसमें दोहरे मापदंड का कोई स्थान नहीं है।’
दुनिया में आतंकवाद, विस्तारवाद, अतिवाद और अलगाववाद की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। इन चुनौतियों का समाधान पाकर ही दुनिया में शांति, अमन-चैन, संतुलित विकास एवं समता की स्थापना संभव है। इसके लिये एससीओ एक सक्षम मंच है, इसके सदस्य देशों में दुनिया की लगभग 40 प्रतिशत आबादी रहती है और दुनिया के कुल व्यापार का करीब 24 प्रतिशत इन्हीं देशों के बीच होता है। अगर संगठन के सदस्य देश आपस में सहयोग करें और संकल्पबद्ध हो तो यह समूह बहुत बड़ी आर्थिक ताकत बन सकता है। समस्या यह है कि चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों को छोड़ने को तैयार नहीं जबकि पाकिस्तान आतंकवाद की खेती करना बंद करने को तैयार नहीं। पाकिस्तान और चीन दोनों ही भारत को एक के बाद एक जख्म देने की कोशिशें करते रहते हैं। पूर्वी लद्दाख में सीमा पर गतिरोध चीन की ऐसी ही कोशिश है। भारत, रूस और चीन परस्पर सहयोग का त्रिकोण बन जाए तो कोई ताकत इस त्रिकोण के सामने नहीं टिकेगी। जब तक पाकिस्तान और चीन अपनी नीतियां नहीं छोड़ते तब तक एससीओ अपने वास्तविक उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकेगा।
चीन एवं पाकिस्तान जैसे देशों ने एससीओ जैसे सार्थक मंच पर भी शतरंज की बिसात बिछा रखी है, यूं तो पूरा विश्व शतरंज बना हुआ है और सब अपने-अपने मोहरे और अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं। विश्व की शतरंज में घोड़ा सीधा और हाथी टेढ़ा चलता है। हम मोहरों को दोष नहीं दें। मोहरे चलते नहीं चलाए जाते हैं। कुछ आतंकवादी एवं विस्तारवादी शक्तियां शांति एवं सहयोग के नाम से अपनी चालें चलती हैं। जो अपने घोड़े, ऊंट और हाथी बचाने के लिए प्यादे को आगे कर मर जाने देते हैं। लेकिन इन यूरेशियाई देशों में तीसरी महाशक्ति भारत है, जो उनकी कुचालों को सफल नहीं होने दे रहा है। एससीओ की ओर से जारी संयुक्त बयान में चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ के उल्लेख से भारत ने जिस तरह दूरी बनाई, उस पर आश्चर्य नहीं, बल्कि वह उसकी दूरगामी एवं समझपूर्ण सोच को दर्शाता है। चीन ने इस परियोजना में अरबों डॉलर लगाए हैं। वह दुनिया में नंबर वन बनने के लिए कमजोर देशों को ऋण मुहैया कराने में जुटा है। आज श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार सहित कई अफ्रीकी देश इस कथित सस्ते ऋण के चक्कर में कंगाली के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। भारत इस परियोजना का प्रारंभ से ही विरोध करता आ रहा है। वास्तव में वह पहला देश था, जिसने तब इस परियोजना का विरोध किया था, जब छोटे-बड़े तमाम देश उसका समर्थन कर रहे थे। चीन यह कैसे सोच सकता है कि भारत उसकी इस परियोजना का समर्थन करेगा। चीन की इस परियोजना का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे वाले हिस्से से गुजरना है, जो कि भारत का भूभाग है। हालांकि चीन इस तथ्य से भलीभांति परिचित है, लेकिन वह अपने अड़ियल रवैये के चलते भारत की संप्रभुता की अनदेखी करने में लगा हुआ है। चीन इस मामले में दोगली एवं बिखरावमूलक नीति पर चल रहा है। एक ओर तो वह यह चाहता है कि भारत समेत अन्य देश उसका सहयोग करें, दूसरी ओर वह भारत में ही छेद करने में लगा है। भला ऐसी योजनाओं एवं नीति के साथ भारत कैसे खड़ा हो सकता है? उसका विरोध वाजिब है। चीन को भारत के विरोध को समझना ही होगा।
समस्या केवल चीन कनेक्टिविटी के नाम पर बीआरआइ परियोजना की ही नहीं है, बात पाकिस्तान पोषित आतंकवाद की भी है, जो एससीओ की मूल भावना के विपरीत है। चीन आतंकी संगठनों को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान का आंख मूंद कर समर्थन एवं सहयोग कर रहा है। इस तरह इस मंच का उपयोग अपने स्वार्थ एवं नीतियों के लिये करने वाले देशों से सर्तक एवं सावधान होने की जरूरत है। चीन पाकिस्तान के उन आतंकियों का बेशर्मी के साथ बचाव भी करता है, जिन पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद पाबंदी लगाना चाहती है। वह अभी तक पाकिस्तान के ऐसे चार-पांच आतंकी सरगनाओं की ढाल बन चुका है, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रतिबंधित करने की कोशिश की। इसी के चलते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आतंकमुक्त विश्व की संरचना का संकल्प व्यक्त किया। उन्होंने दोनों देशों को खरी-खोटी सुनाई और यह साफ किया कि वे किस तरह आतंकवाद को खाद-पानी देने का काम कर रहे हैं। चीन आतंकवाद पर दोहरा रवैया अपनाने के साथ पड़ोसी देशों की अखंडता की जैसी अनदेखी करने में लगा हुआ है, उसे देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि एससीओ के सदस्य देशों में आपसी भरोसा, एकमतता एवं सांझी सोच कायम हो सकेगी। रूस भी भटका हुआ है। भारत ही एकमात्र देश है जो अपने संकल्पों के साथ अडिग खड़ा है, मोदी ने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का जिक्र करते हुए भारत का उदार नजरिया पेश किया। मोदी ने कहा, ‘भारत दुनिया भर के देशों को एक परिवार मानता है।’ उनका कहना था कि भारत ने एससीओ को एक ‘विस्तारित पड़ोस’ नहीं बल्कि ‘विस्तारित परिवार’ मान कर काम किया है। इसी से यह एससीओ संगठन दक्षेस जैसा निष्प्रभावी संगठन होने से बचा है।
एससीओ की बैठकों में कुल मिलाकर बड़े देशों में मतभेद ही उभर कर सामने आए है। अब बड़ा सवाल यह है कि एससीओ के सदस्य देश किस तरह से आपस में सहयोग करेंगे जबकि उनके निजी हित आड़े आ रहे हैं। एससीओ संगठन की स्थापना के वक्त यह संकल्प लिया गया था कि इसके सदस्य आपस में मिलकर बिना स्वार्थ एवं संकीर्णताओं के काम करेंगे तो पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था को चुनौती दे सकते हैं। अगर संगठन के सदस्य देश आर्थिक ताकत बनना चाहते हैं तो उन्हें एक-दूसरे की भावनाओं एवं हितों का सम्मान करना होगा और एक-दूसरे की संप्रभुता और सीमाओं का भी सम्मान करना होगा। लेकिन चीन और पाकिस्तान इसमें सबसे बड़ी बाधा हैं। लेकिन भारत जैसे देशों को इसमें सक्रिय होकर इस संगठन की अस्मिता एवं अस्तित्व को सुदृढ़ बनाने के लिये प्रतिबद्ध होना होगा। भारत अपने देश के हित में किसी का भी दबाव स्वीकार नहीं करता है। भारत एक तटस्थ देश है, भारत ने ही ईरान को इस संगठन में जोड़ने में पहल की। ईरान का एससीओ संगठन में आना कई नई संभावनाओं को जन्म दे रहा है। उसके चाबहार बंदरगाह से भारत ही नहीं मध्य एशियाई देशों को भी सुगम कारोबार करने के अवसर मिलेंगे। चाबहार बंदरगाह के निर्माण में भारत ने आर्थिक योगदान के साथ तकनीकी और इंजीनियरिंग सहयोग भी दिया है। इस तरह के उद्देश्यों के साथ आगे आकर ही एससीओ को अधिक सार्थकता एवं सुदृढ़ता प्रदान की जा सकती है।