शिशिर शुक्ला
पिछले कुछ दिनों से समाचार पत्रों में सर्पदंश से होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें नियमित रूप से आ रही हैं। वस्तुतः मई से लेकर सितंबर तक का समय सर्पदंश की दुर्घटनाओं हेतु अनुकूलता से परिपूर्ण है क्योंकि प्रचंड गर्मी के कारण अधिकांश सर्प भूमि के अंदर बने अपने बिलों से बाहर आ जाते हैं। अधिकांशतः वे ऐसा शीतलता एवं आहार की तलाश में करते हैं। यही वजह है कि इस समयान्तराल में सर्प और मनुष्य के द्वारा एक दूसरे के रास्ते में आने की संभावना बढ़ जाती है। उपलब्ध आंकड़े यह बताते हैं कि प्रतिवर्ष भारत मे पचास लाख लोग सर्पदंश का शिकार हो जाते हैं। यद्यपि यह सभी दंश विषमय नहीं होते, इनमें कुछ शुष्क दंश भी होते हैं जिनसे मृत्यु की कोई संभावना नहीं होती। किंतु फिर भी प्रतिवर्ष एक अच्छी खासी जनसंख्या सर्पदंश के माध्यम से काल का ग्रास बन जाती है। गावों में तो इन दुर्घटनाओं के लिए कहीं बेहतर अनुकूल परिस्थितियां पाई जाती हैं, लिहाजा गांव के व्यक्तियों के लिए सर्पदंश कहीं अधिक घातक हो जाता है। धान की रोपाई व सिंचाई के दौरान, पशुओं को चारा खिलाने अथवा दूध दुहने के दौरान, खेतों का भ्रमण करने के दौरान प्रायः लोग सर्पदंश का शिकार हो जाते हैं एवं किसी परिचित या परिजन को खबर न लग पाने के कारण तड़प तड़प कर मर जाते हैं।
सर्पदंश के कारण प्रतिवर्ष होने वाली जनहानि एक गंभीर चुनौती का रूप लेती जा रही है। यहां पर एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि सर्प एवं सर्पदंश को लेकर भारत में एक सीमा से अधिक अंधविश्वास एवं भ्रांतियां व्याप्त हैं। हमारे यहां सर्प को मारना पाप माना जाता है, और तो और नागपंचमी जैसे त्योहारों पर उसकी पूजा की जाती है एवं उसके दर्शन को शुभ माना जाता है। पुरानी मान्यताओं के साथ-साथ हिंदी फिल्मों ने भी सर्पों के विषय में बहुत सी बेबुनियाद बातों को भारतीय जनमानस के मन में बिठा दिया है, जैसे कि सर्प के द्वारा इच्छानुसार रूप धारण करना, नाग व नागिन के जोड़े में से एक को मार दिए जाने पर दूसरे के द्वारा बदला लिया जाना इत्यादि। भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों का एक प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश लोग अंधविश्वास के पाश में जकड़े होने के कारण उपचार के रूप में झाड़फूंक को प्राथमिकता देते हैं। झाड़-फूंक, जड़ी-बूटी एवं तंत्रमंत्र के चक्कर में वह समय बरबाद होता है जिसका एक एक मिनट पीड़ित व्यक्ति के लिए बहुत कीमती होता है। सत्य तो यह है कि विषैले सर्प के काटने के तुरंत बाद ही पीड़ित व्यक्ति के लिए मृत्यु का काउंटडाउन शुरू हो जाता है। मौत के मुंह से निकल पाना केवल और केवल तभी संभव है जब रोगी को शीघ्र से शीघ्र प्रतिविष उपलब्ध हो जाए। कोबरा (नाग), करैत, एवं रसेल वाईपर जैसे सर्प इस हद तक विषैले होते हैं कि इनके बारे में एक कहावत तक बन चुकी है, इनका काटा सुबह का सूरज नहीं देख पाता। जागरूकता एवं सतर्कता के अभाव में हमारे यहां के लोग झाड़-फूंक, तंत्रमंत्र, ओझा, नीमहकीम इत्यादि के चक्कर में पड़कर समय नष्ट करने के अलावा और कुछ नहीं करते। नतीजा यह होता है कि मरीज मौत के मुंह में समा जाता है।अक्सर ऐसा भी होता है कि जिस सर्प ने व्यक्ति को काटा है वह जहरीला नहीं होता किंतु दुर्घटना होते ही व्यक्ति इतना अधिक घबरा जाता है कि उसकी मृत्यु हृदयाघात से हो जाती है। यदि व्यक्ति न घबराया एवं परिजनों के द्वारा उसे किसी झाड़-फूंक करने वाले के पास ले जाया गया, तो व्यक्ति का जीवन बचाने का श्रेय बिना किसी वजह के ही झाड़-फूंक वाले को मिल जाता है, जबकि सच्चाई यह होती है कि उस दंश के कारण व्यक्ति की जान को कोई भी खतरा नहीं होता है। विषैले सर्प के द्वारा काटे जाने पर झाड़-फूंक के द्वारा बचने की कोई संभावना नहीं होती। उस स्थिति में केवल और केवल एक ही विकल्प है जो व्यक्ति को मौत से जिंदगी की ओर ले जा सकता है, और वह है समय रहते प्रतिविष मिल पाना। विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा एंटीवेनम को एक जरूरी औषधि के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इन गंभीर दुर्घटनाओं पर नियंत्रण करने का एकमात्र उपाय यह है कि जिले से लेकर छोटे छोटे स्तर तक और विशेषत: गावों में एंटी वेनम की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए। साथ ही साथ जनसामान्य को इस बात से जागरूक किया जाना चाहिए कि सर्पदंश का एकमात्र इलाज प्रतिविष है, ताकि वे तंत्र मंत्र एवं झाड़-फूंक के चक्कर में पड़कर अमूल्य समय एवं जीवन से हाथ न धो बैठें। निस्संदेह यह एक ऐसी समस्या है जिसको खत्म करना तो मुश्किल है, किंतु परिस्थिति उत्पन्न होने पर यदि धैर्य एवं विवेक के साथ निर्णय लिया जाए तो इस गंभीर चुनौती एवं आपदा के दुष्प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकता है।