सीता राम शर्मा ” चेतन “
राष्ट्र चिंतन इन दिनों ज्यादा यातनादायक हो चला है ! मैं भविष्यवक्ता तो नहीं पर यह बात बहुत पहले लिख कह चुका हूं कि जुन 2023 से मई 2024 तक का समय भारत के लिए इक्कीसवीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण कालखंड सिद्ध होगा ! गौरतलब है कि भारत के लिए निकट भविष्य में वैश्विक चुनौतियों के जारी रहने और कुछ शत्रु राष्ट्रों के साथ छद्म तथा घोषित-अघोषित द्विपक्षीय युद्धों के होने की संभावनाएं बनी रहेगी और भविष्य की उन संभावित वैश्विक चुनौतियों और अकाट्य रुप से होने वाले नैतिक सैद्धांतिक सामरिक युद्धों की जीत और हार भी इस एक वर्ष के परिणाम से ही बहुत ज्यादा प्रभावित होगी । इसलिए वर्तमान सरकार द्वारा विकसित, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली भारत बनाने की प्रारंभ की गई यात्रा को फिलहाल बिना किसी सत्ता परिवर्तन के हर हाल में जारी रखने की जरूरत है । यदि वर्तमान मोदी सरकार 2024 में होने वाला लोकसभा चुनाव जीत कर फिर से केंद्रीय सत्ता में आती है तो यह भारत के लिए इस सदी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विकास के कर्मोत्सव का स्वर्णिम काल सिद्ध होगा । यह बात हर भारतीय और भारतीय शुभचिंतक को बहुत जरुरी तौर पर जानने समझने की जरूरत है । यहां इस बात को भी ध्यान में रखना जरुरी है कि यदि यह सरकार घोर अदूरदर्शी हो आत्मघाती अवस्था में आकर स्वंय ही अपना विनाश कर लेती है तो यह एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी सिद्ध होगी । कैसे ? इस पर विस्तार से बात फिर कभी । फिलहाल बहुत संक्षिप्त में बात वर्तमान राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रमों के साथ इस बात और आशंका पर कि भाजपा आखिर आत्मघाती क्यों हो रही है या हो सकती है ? तो वह इसलिए कि भाजपा भी फिलहाल उसी रास्ते की तरफ बढ़ती दिखाई देती है, जिसमें उसे त्वरित सुधार की जरूरत है । उसे जहां नैतिकता दिखानी चाहिए और अपने परिस्थितिजन्य राष्ट्रधर्म और नीति का पालन करना चाहिए वहां वह कठोरता और अनीति के साथ खड़ी दिखाई देती है तो दूसरी तरफ जहां उसे कठोर होना चाहिए वहां वह कई बार थोथी नैतिकता के लबादे में अपने पापी लचीलेपन का आवरण ओढ़कर असहाय हो जाती है ! स्पष्ट कर दूं कि केवल अपने कर्तव्यों की आंशिक या खंडित पूर्णता का निर्वहन राष्ट्रीय कर्तव्यनिष्ठा का उचित और सार्थक प्रमाण अथवा प्रयास नहीं होता और ना ही कहा जा सकता है । उसके लिए सामुहिक समुचित प्रयासों की बाध्यता का अनुशासन बनाना और निभाना पड़ता है । सामुहिक और सार्थक प्रयासों का तात्पर्य स्पष्ट है – सत्ता दायित्व के पूर्ण निर्वहन के लिए खुद की कर्तव्यहीनता, अनैतिकता और बाह्य भ्रष्टाचार से बचने का सफलतम प्रयास ही काफी नहीं, उसके लिए व्यवस्था के हर क्षेत्र में पारदर्शी कर्तव्यनिष्ठता, ईमानदारी और आंतरिक भ्रष्टाचार से पूर्णतः मुक्ति का आचरण भी आवश्यक है । सत्ता के लचीलेपन के अनिवार्य गुण का सिद्धांत उसके किसी भी दायित्व अथवा कार्य से संबंधित कठोरता की अनिवार्य शर्त के उल्लंघन के हद तक जाना नहीं होता है और ना ही सत्ता की कठोरता के अनिवार्य गुण का सिद्धांत उसे अनावश्यक सत्ता और पद के अहंकार, जिद और लापरवाही में लिप्त होने की अनुमति देता है । वर्तमान केंद्र सरकार एक बेहतर सरकार होने के बावजूद कई बार इन सिद्धांतों और कर्तव्यों से दूर दिखाई देती है । किसान आंदोलन को लंबा खींचने की भूल भाजपा ने पहलवान आंदोलन में भी दिखाई है और अब बंगाल तथा मणिपुर में उसका विलंब जारी है ! भाजपा शासित राज्यों के भ्रष्टाचार ने केंद्र के भ्रष्टाचार मुक्त भाजपा के शासन को संदिग्ध बना दिया है । भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्रिय सत्ता में आई भाजपा नौ वर्षों तक शासन में रहते हुए भी भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों पर कोई ठोस और बड़ी कारवाई नहीं कर पाई है । अब तो विपक्षी दलों के नेता और वक्ता भी इस बात को बहुत मुखरता के साथ कहने लगे हैं कि उन पर जिन लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार का आरोप लगा भाजपा 2014 में सत्ता में आई थी, अपने नौ वर्षीय शासन काल में उन आरोपों के आधार पर वह एक भी भ्रष्टाचारी नेता को जेल नहीं पहुंचा पाई ! उनके ऐसे वक्तव्यों को सुनती जनता के कानों में 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी का वह आश्वासन भी गुंजता है जिसमें उन्होंने जनता से कहा था कि अपने पहले कार्यकाल में उनकी सरकार ने भ्रष्टाचारियों को जेल के दरवाजे तक पहुंचा दिया है और यदि इस बार वे सत्ता में आए तो उन्हें जेल के भीतर पहुंचा देंगे ! दूसरे कार्यकाल का भी चार वर्ष से अधिक का समय बीत गया पर आज भी जांच की लुका-छिपी का खेल जारी है ! इसलिए मोदी सरकार से अब यह तो बहुत सपाट शब्दों में कहा जा सकता है कि उसे और भाजपा को अब विपक्षी दलों के भ्रष्टाचार पर कुछ भी कहने का कोई नैतिक आधार नहीं है और रही बात उसके खुद के भ्रष्ट नहीं होने की, तो यह भी बहुत ज्यादा तर्कसंगत और सत्य नहीं लगती क्योंकि इस सरकार ने भी राजनीतिक चंदे के संदिग्ध सुराख को पारदर्शी बनाने की बजाय उसे ज्यादा जटिल ही बना दिया है । भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी मुक्त शासन व्यवस्था के लिए आम आदमी जिन नियम कानूनों की बात करता है, यह सरकार उससे भी बहुत दूर दिखाई देती है । विपक्षी दलों की उस बात में शत-प्रतिशत सच्चाई है कि भाजपा ने खुद को भ्रष्टाचार मुक्त करने की गंगोत्री बना लिया है ! अंत में रही बात इसकी आम जनता के प्रति दायित्व निर्वहन और राष्ट्रधर्म की, तो बंगाल और मणिपुर की निर्दोष जनता के रक्तपात और वहां के शासन और अपराधियों को निरंकुश बनाए रखने के लिए नैतिकता का पापी लबादा ओढ़ी भाजपाई केंद्र सरकार को उसके लिए कम दोषि कदापि नहीं माना जा सकता । क्या मोदी सरकार जनता को यह बता सकती है कि राष्ट्रपति शासन लगाने को लेकर उसकी नीति क्या है ? उसके लिए भय और अराजकता की अंतिम सीमा क्या है ? किसी अशांत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए उसके हिसाब से कम से कम कितने निर्दोष लोगों का बेघर होना और मारा जाना जरुरी है ? कुल मिलाकर संक्षिप्त में भाजपा और मोदी सरकार के लिए यह कहा जा सकता है कि बाह्य आवरण की भव्यता में खोई यह सरकार भीतर से अपनी ही जड़ें खोखली कर रही है । स्वच्छता अभियान, जनधन, उज्जवला, हर घर नल से जल और आयुष्मान योजना जैसी सामाजिक और राष्ट्रीय विकास की कई महत्वपूर्ण योजनाएं चलाकर राष्ट्रीय विकास की गति तीव्र करने और राष्ट्रीय सुरक्षा तथा अंतरराष्ट्रीय ख्याति में असीम वृद्धि करने के बावजूद मोदी सरकार कुछ ऐसी विसंगतियों से भरी हुई है जिसे ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, जवाबदेह और सक्षम विपक्ष के अभाव में हर हाल में जारी रखने की विवशता तो कहा जा सकता है, पर इसे पूरी तरह एक ईमानदार और जिम्मेवार सरकार तो कतई नहीं माना जा सकता । जिसका इसे प्रयास करना चाहिए अन्यथा छोटी ही सही, ये गलतियां इसके सारे विकास कार्यों पर कभी भी भारी पड़ सकती है । अंतिम सवाल यह कि क्या इसके शीर्षस्थ लोग अब भी इन तथ्यों पर आवश्यक चिंतन, विमर्श और सुधार करेंगे ? मेरा अनुभव जनित उत्तर तो नहीं ही है । बावजूद इसके देर से ही सही इसे यह समझने की जरूरत है कि सुधार और त्वरित भूल सुधार का गुण किसी भी व्यक्ति, संगठन और समाज का मुख्य गुण होता है ।
अब बात वर्तमान भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में विपक्षी दलों की, तो इनमें से अधिकांश दलों के लिए पहली और सपाट बात तो यही कही जा सकती है कि पिछले नौ वर्ष में इन्होंने खुद को राजनीतिक विपक्षी दल होने की बजाय देश का विपक्षी दल बना लिया है । एक राजनीतिक दल के जरुरी नियम, सिद्धांत, अधिकार और कर्तव्यों को अपने चित्त और चरित्र से ये लगभग पूरी तरह दूर कर चुके हैं । हालाकि इनकी यह समस्या नई नहीं है, यह इन्हें विरासत में मिली है । जिन्होंने इसमें सुधार किया वे राजनेता और दल के रूप में कुछ कम अयोग्य हुए पर अधिकांश की स्थिति आज भी वही बनी हुई है । पिछले नौ वर्षों में कुशल नेतृत्व और राजनेता के गुण और योग्यता के अभाव ने इन दलों को कुछ ज्यादा ही नाकारा और पथभ्रष्ट बना दिया है । वर्तमान समय में विपक्ष की इस पूरी राजनीतिक जमात के मन-मस्तिष्क में अपने भविष्य को लेकर जो भय व्याप्त हो गया है, उसका परिणाम वर्तमान समय में होते इनके टूट और बिखराव से भी स्पष्ट है और इनकी देश विरोध तक जाती गतिविधियों से भी । रही बात देश और जनहित के मुद्दों पर इनके नैतिक विरोध और संघर्ष के आचरण के नैतिक बल की, तो उसे इनके कलंकित इतिहास और वर्तमान चरित्र से ज्यादा लगभग हर क्षेत्र में इनसे बेहतर काम करती मोदी सरकार ने खत्म कर दिया है । परिणाम स्वरूप इनकी बौखलाहट और भयभीत मानसिकता ने इन्हें इतना ज्यादा तोड़ और कमजोर कर दिया है कि इन्हें अब अपने अस्तित्व की रक्षा का एकमात्र अंतिम उपाय अपने सारे मतभेद भूलकर एकजुट होने की विवशता ही दिखाई देता है । जिसका जी तोड़ प्रयास इनके द्वारा जारी है और वह जनता को स्पष्ट दिखाई भी दे रहा है । 2024 लोकसभा चुनाव को अपने पापी अस्तित्व की रक्षा का अंतिम अवसर मानते इन विपक्षी दलों ने पिछले कई महीनों के अथक प्रयास के बाद अब एक नया ठगबंधन ( गठबंधन ) बनाया है जो प्रथम दृष्टया ही वास्तव में एक बहुत कमजोर ठगबंधन दिखाई देता है । यहां निष्पक्ष रुप से यह स्पष्ट कर दूं कि इसमें मेरे द्वारा कोई पक्षपात नहीं किया जा रहा है क्योंकि 2024 लोकसभा चुनाव को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अंतिम अवसर बताने की बात खुद ये विपक्षी दल ही कह रहे हैं ! जिससे इनके अपने अस्तित्व और नैतिक बल की तस्वीर साफ दिखाई देती है । यहां भी सबसे बड़े आश्चर्य और दुख की बात यह है कि जिस सत्ता पक्ष से भयभीत हुए तमाम विपक्षी दल एकजुट होते हुए भी खुद को कमजोर ही दिखा और बता रहे हैं, उनके विरुद्ध अत्यधिक मुखरता का परिचय दे सत्ता पक्ष उन्हें मनोवैज्ञानिक प्रोत्साहन और बल देने की बड़ी भूल कर रहा है । मुझे लगता है सत्ता पक्ष की त्वरित और उग्र प्रतिक्रिया बड़ी भूल है । उसे अपना ध्यान सिर्फ और सिर्फ बचे हुए कार्यकाल के लिए निर्धारित जरुरी काम पर देना चाहिए था । अंदरुनी तैयारी के लिए ऐसी मुखरता बिल्कुल अनिवार्य नहीं थी क्योंकि वह तो उसने महाराष्ट्र घटनाक्रम से ही सिद्ध कर दी थी । अंत में बात विपक्षी गठबंधन के नाम की तो उसपर तो सत्ता पक्ष को कुछ भी बोलने की आवश्यकता ना अभी है और ना आगे होनी चाहिए । उसे नामों की बिना कोई तुलना किए उसको उस नाम से ही पुकारना चाहिए जो वह स्वंय जनता के बीच सिद्ध कर चुका है – ठगबंधन । आगे देखना यह है कि भटकती भाजपा का भटकाव कब और कहां जाकर खत्म होगा और पटना, बेंगलुरु के बाद मुंबई और दिल्ली की ओर भागता विपक्ष 2024 चुनाव तक कितना एकजुट और सफल रह पाएगा ?