ललित गर्ग
उतार-चढ़ाव, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख हर इंसान के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन फिर भी इन जटिलताओं के बीच एक सपना एवं जिजीविषा जरूर होनी चाहिए जो आपको हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहे। जीवन ऐसेे जीना चाहिए जैसे जिंदगी का आखिरी दिन हो। भले ही हमारी जिंदगी उतार-चढ़ावों से भरी हो फिर भी हमें बढ़िया और नेक काम करते हुए जीवन के पल-पल को उत्साह एवं उमंग से जीना चाहिए। लेकिन हमारी बढ़िया या नेक काम करने की इच्छा अधूरी ही रहती है क्योंकि अक्सर जब हम जिंदगी के बुरे दौर से गुजरते हैं, तब उससे निकलने और जब अच्छे दौर में होते हैं, तब उस स्थिति को बरकरार रखने में जिन्दगी बिता देते है। हर इंसान के जीवन में निराशा एवं असंतुष्टि पसरी है। आंकड़े बताते हैं कि करीब 70 फीसदी लोग अपनी मौजूदा नौकरी या काम से संतुष्ट नहीं हैं और करीब 53 फीसदी लोग किसी भी रूप में खुश नहीं हैं। यह एक चिंताजनक बात है। जब हम दिल से प्रसन्न नहीं होते तो हमारे अंदर से आगे बढ़ने की चाह खत्म होने लगती है। और फिर धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगता है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना देता है।
जिन्दगी तो सभी जीते हैं, लेकिन यहां बात यह मायने नहीं रखती कि आप कितना जीते हैं, बल्कि लोग इसी बात को ध्यान में रखते हैं कि आप किस तरह और कैसे जीते हैं। जीवन में आधा दुख तो इसलिए उठाते फिरते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते हैं कि सच में हम क्या हैं? क्या हम वही है जो स्वयं को समझते हैं? या हम वो हैं जो लोग समझते हैं। हमारे संकल्प और हमारे आदर्श सांसारिक जीवन के बंधनों में बंधे रहने के बजाय उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बढ़ना चाहते हैं, लेकिन मन की इच्छाएं इसके विपरीत होती हैं। इन दोनों में लगातार संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष में जीत अक्सर मन की इच्छाएं की ही होती है। इसका कारण यह है कि इच्छाओं की मांगें पूरी करने में मनुष्य को तुरंत सुख और आनंद मिलता है। इसके विपरीत आदर्श को जीने या आदर्श की अपेक्षाओं को पूरा करने में मनुष्य को शुरुआती दौर में अपने सुख और आनंद का बलिदान करना होता है। इसलिए लोग सामान्यतया ऐसा करने से बचते हैं। अगर यही स्थिति लंबे समय तक बनी रहे और आदर्श की अपेक्षाओं को दबाया जाता रहे, तो धीरे-धीरे आदर्श की उड़ान समाप्त होने लगती है।
महान और आदर्श काम करने के लिए अक्ल से ज्यादा दिलेरी की जरूरत होती है और यह दिलेरी लुप्तप्राय होती जा रही है। आज लगभग देश और दुनिया इसी आदर्शहीनता के स्थिति से ही मुखातिब है। सीधे-सीधे आसान रास्तों पर चलते हुए भी कोई भटकता रह जाता है। कुछ भटकते हुए भी मंजिल की ओर ही कदम बढ़ा रहे होते हैं। दरअसल, जब भीतर और बाहर का मन एकरूप होता है तो भटकना बेचैन नहीं करता। भरोसे और भीतर की ऊर्जा से जुड़े कदम आप ही राह तलाश लेते हैं। ओशो कहते हैं, ‘भटकता वही है, जो अपने भीतर की यात्रा करने से डरता है।’ जब आपके अंदर किसी काम को लेकर जुनून होता है तो कभी-कभी वह जुनून ही जीवन के उद्देश्य में तब्दील होने लगता है। जीवन कभी एक सा नहीं चलता। इसलिए यह जरूरी भी नहीं कि बेहद प्रारंभिक अवस्था में ही आपको अपने जीवन का उद्देश्य मिल जाए। जीवन में अनेक पड़ाव आते हैं, जो अलग-अलग अनुभव देते हैं। इसलिए कभी एक बेहद तनाव वाले पड़ाव में लगे कि किसी तरीके का बदलाव आपके जीवन को सरल और खुशनुमा बना सकता है तो उसे आप अपना उद्देश्य बना लीजिए। लेकिन यह कोई ऐसा कार्य नहीं है, जिसके बारे में आप बैठकर अलग से मंथन करें। यह हमारा मन तय करता है कि उसे किस कार्य को करने से खुशी मिलती है। पर दिमाग के साथ दिल का तालमेल बिठाना न भूलें और जहां लगे कि दिल और दिमाग मिल गए हैं तो समझ जाएं कि आपको अपने जीवन का उद्देश्य मिल गया है।
जिंदगी का कोई लम्हा मामूली नहीं होता, हर पल वह हमारे लिए कुछ-न-कुछ नया पेश करता रहता है-जब हमारी ऐसी सोच बनती है तभी हम अपने आप से रूबरू होते। स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार के बिना हमारी लक्ष्य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती है। स्वयं की शक्ति और ईश्वर की भक्ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में हम औरों के मुहताज बनते हैं, औरों का हाथ थामते हैं, उनके पदचिन्ह खोजते हैं। अक्सर आधे-अधूरे मन और निष्ठा से हम कोई भी कार्य करते हैं तो उसमें सफलता संदिग्ध हो जाती है। सफलता या ऊंचाइयों आप तभी पा सकते हैं, जब अपना काम करते हुए इस बात को नजरअंदाज कर दें कि इसकी वाहवाही किसे मिलेगी? हम तो मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च में जाकर भी अपने धनबल, बाहुबल या सत्ताबल के आधार पर लम्बी-लम्बी लाइनों के बजाय वीआईपी दर्शन करके लौट जाते हैं। क्या हमारा ईश्वर से मिलने का यह तरीका परिणामकारी हो सकता है? हम हमारी आस्था या भगवान के प्रति निष्ठा को सस्ता न बनने दें। हमें अपना हर सुख इस तरह भोगना चाहिए, जैसे हम सौ साल तक जीयेंगे, पर ईश्वर से रोजाना प्रार्थना एवं अपना काम ऐसे करना चाहिए, जैसे कल हमारी जिंदगी का आखिरी दिन हो। जब हम ईश्वर के प्रति और अपने उद्देश्यों-कार्यों के प्रति इतने पवित्र, जुझारू एवं परोपकारी बनकर प्रस्तुत होंगे तभी जीवन को सार्थकता तक पहुंचा सकेंगे। वैसे भी अमीर वह नहीं है, जिसके पास सबसे ज्यादा है, बल्कि वह है, जिसे और कुछ नहीं चाहिए। सच्चाई तो यही है कि जिसे और कुछ नहीं चाहिए वही सच्चे रूप में ईश्वर से साक्षात्कार की पात्रता अर्जित करता है।
आप या तो इस बात पर सिर धुन सकते हैं कि गुलाब में कांटे हैं या इस पर खुश हो सकते हैं कि कांटों से भी गुलाब खिलते हैं। जब भी हम ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, किसी की मदद करते हैं अथवा कोई अच्छा कार्य करते हैं, अपने जीवन के कार्यों को अंजाम तक पहुंचाते हैं तो उससे अपने भीतर हम अपार संतोष महसूस करते हैं। तब वही भाव हमारे चेहरे और विचारों पर भी झलकने लगता है। इससे हमारे पूरे व्यक्तित्व में एक सकारात्मक परिवर्तन होता है। संतुष्टि और आनंद की अवस्था में व्यक्ति तनावमुक्त रहता है और इसलिए स्वस्थ रहता है। यह अवस्था मनुष्य के अच्छे स्वास्थ्य के साथ-साथ एक सफल एवं सार्थक जीवन की परिचायक है।