क्या भाजपा वसुंधरा राजे को छोड़ आगे बढ़ पायेगी ?

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति का एक ऐसा पात्र हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। राजस्थान की सक्रिय राजनीति में 2002 में आई वसुंधरा राजे ने पिछले 20 सालों में अपना ऐसा आभामंडल बनाया है कि कांग्रेस और भाजपा में उनके विरोधी भी उनके राजनीतिक कौशल को दम साधे देखते रहते हैं। उनके साथ रात दिन रहने वाले राजनेता भी पक्के तौर पर उनके बारे में कुछ कहने से बचते ही दिखते हैं।

राजस्थान में होने वाले राजस्थान विधानसभा चुनावों में राजे की भूमिका को लेकर तरह तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं, भाजपा का शीर्ष नेतृत्व वसुंधरा राजे के अलावा अन्य नेताओं को अपने आप को साबित करने का मौका दे रहा है, लेकिन जमीन पर भाजपा का कार्यकर्ता यह तय नहीं कर पा रहा है कि जिनको मौका मिल रहा है और जिनको मौका नहीं मिल पा रहा है, उनकी आगामी विधानसभा चुनावों में कितनी भूमिका रहने वाली है। तो यह कह सकते हैं कि भाजपा में हर नेता ने भाजपा संगठन के समानांतर अपने समर्थकों की फौज तैयार कर रखी है। जिसका हर कार्यक्रम में व्यापक प्रभाव नजर आता है।

इसी असमंजस की स्थिति के कारण चुनाव से लगभग 100 दिन पहले भी कार्यकर्ता इस उधेड़बुन में है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ हैं लेकिन राज्य में उनका नेतृत्व कौन करने वाला है ? यह वह सवाल है जिसका जवाब भाजपा कार्यकर्ता, नेताओं के साथ साथ सत्तारूढ़ कांग्रेस भी जानना चाहती है। प्रश्न यह भी है कि क्या भाजपा वसुंधरा राजे को छोड़ आगे बढ़ने का निर्णय लेने के लिए तैयार है ? हांलाकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने राजे को अपनी टीम में उपाध्यक्ष बनाकर यह संकेत तो दे दिया है कि राजे को भाजपा अपने साथ रखना चाहती है, लेकिन राज्य में उनकी भूमिका को लेकर कशमकश है।

उधर राजे और उनके समर्थक चाहते हैं कि राजस्थान चुनाव की कमान उनके हाथों में दी जाए, जिससे वो ना केवल राजस्थान में भाजपा की सरकार में वापसी करा सकें अपितु 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भी भाजपा के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को दोहरा सकें। समस्या यह है कि भाजपा में मौजूद वसुंधरा विरोधी किसी भी हालत में वसुंधरा राजे की मुख्यधारा में वापसी नहीं चाहते, उनको भय है कि वसुंधरा राजे के मुख्यधारा में वापसी के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन पर पूर्ण विराम लग जाएगा।

राजस्थान में भाजपा की राजनीति पर बारीक नजर रखने वाले राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि वसुंधरा राजे दुष्प्रचार की शिकार हैं और उनकी तरफ से इस दुष्प्रचार का जवाब ना देना ना केवल उनके प्रति असमंजस को बढ़ाता है, अपितु इस तथ्य को पुष्ट भी करता है कि जो कुछ उनके बारे में बोला या लिखा जा रहा है, वह प्रमाणिक ही है। जैसे राजे के बारे में बहुधा यह कहा जाता है कि वह अलग राजनीतिक दल बना कर भाजपा को कमजोर कर देंगी, लेकिन ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण आजतक सामने नहीं आया जिसमें यह साबित होता हो कि वह अलग पार्टी के गठन को लेकर गंभीर थीं या हैं। इसके उलट जब वे यह कहती हैं कि भाजपा मेरी मां की बनाई पार्टी है, मैं भला इसे क्यों छोडूंगी ? तो इस बात को कहीं से समर्थन मिलता नहीं दिखता। इसके अलावा 2003 में वसु मित्र मंडल बनाने वाले चंद्रराज सिंघवी को वसुंधरा राजे ने ऐसा सबक सिखाया कि वे आज तक अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं। इस बात की चर्चा भी कहीं नहीं होती।

इसी प्रकार का एक दुष्प्रचार रात को आठ बजे बाद उपलब्ध ना होने को लेकर था, जिसे आजतक खूब प्रचारित किया जाता है, लेकिन मुख्यमंत्री के स्टाफ में रहे कार्मिकों, सुरक्षाकर्मियों, आई ए एस और आई पी एस अधिकारियों ने भी इस बात को कोरा दुष्प्रचार ही बताया। लेकिन राजे की तरफ से इस बात का मजबूत प्रतिवाद ना किये जाने के कारण आज भी यह दुष्प्रचार राजनीतिक क्षेत्रों में तैर रहा है। यह भी याद रखना चाहिए कि 2018 के चुनावों से ठीक पहले उठे नारे मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं का नारा भी भाजपा के अंदर बैठे वसुंधरा विरोधियों ने ही जन जन तक पहुंचाया था। जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा को अपनी सरकार गंवानी पडी थी।

इस बात से किसी को इंकार नहीं है कि राजस्थान में व्यापक जनाधार वाले दो ही नेता हैं, भाजपा में वसुंधरा राजे और कांग्रेस में अशोक गहलोत। इन दोनों में सभाओं में उमडे़ जन सैलाब को वोटों में बदलने की ताकत है। दोनो के पास संगठन के अलावा भी व्यक्तिगत निष्ठा वाले प्रभावी राजनेताओं की लंबी सूची है। दोनों की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का यह चौथा चुनाव है। दोनों के लिए यह आखिरी चुनाव है, देखना यह है कि यदि भाजपा वसुंधरा राजे को पीछे छोड़ आगे बढ़ने का निर्णय करती है तो क्या गजेन्द्र सिंह शेखावत, राजेन्द्र राठौड़, सतीश पूनिया, ओम बिड़ला, अर्जुन लाल मेघवाल उस अंतर को पाट पायेंगे जो वसुंधरा राजे के हटने के बाद अस्तित्व में आएगा।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी, जयपुर
सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट