एन.सी.ई.आर.टी के बदलाव: इतिहास का डर, सत्ता की फ़िक्र!

अवतार सिंह जसवाल

एन.सी.ई.आर.टी ने कुछ समय पहले छ्ठी से बारहवीं कक्षा की इतिहास, सामाजिक विज्ञान और राजनीतिक विज्ञान की पाठयपुस्तकों में जो बदलाव किए हैं, उन्होंने इतिहासकारों और शिक्षाविदों को उनकी आलोचना ही नहीं बल्कि विरोध करने को मजबूर कर दिया है। देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों के 250 से अधिक प्रमुख इतिहासकारों ने उनका विरोध करते हुए कहा है कि यह बदलाव सांप्रदायिक दृष्टिकोण से प्रेरित होकर चुनिंदा ढंग से किए गए हैं। ‘ द हिंदू ‘ की रिपोर्ट के मुताबिक इन बदलावों के विरुद्ध ब्यान जारी करने वालों में देश के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद के विश्वविद्यालय के साथ अमेरिका के कोलंबिया और प्रिंसटन विश्वविद्यालयों के शिक्षाविद भी शामिल हैं।

एन.सी.ई.आर.टी का गठन जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में स्कूली शिक्षा की बेहतरी के लिए नीतिगत और कार्यक्रमगत सलाह-मशवरे के आधार पर काम करने वाले एक स्वायत्त संस्थान के रूप में हुआ था। शिक्षण के क्षेत्र में उसे एक अभिलेख जैसा दर्जा हासिल है। लेकिन आज यह संस्थान विवादों के घेरे में है। क्यों ? क्योंकि पिछले कुछ समय में उसने कक्षा छठी से 12वीं तक की इतिहास, समाज विज्ञान और राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में, संबंधित विषयों के लेखकों,जानकारों/ विशेषज्ञों से सलाह -मशवरा किए बिना,जो बदलाव किए हैं, वे तर्कों, तथ्यों से परे ही नहीं, वर्तमान सत्ता की सांप्रदायिक विचारधारा को प्रतिबिंबित भी करते हैं।

इन बदलावों के तहत् दिल्ली सल्तनत और मुगल दरबार के अध्यायों को हटा दिया गया है; गांधी की हत्या, उसमें हिंदू कट्टरपंथियों की भूमिका, गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को पुणे का ब्राह्मण होने और एक हिंदू कट्टरपंथी अखबार का संपादक होने, जो गांधी को मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाला बताता था, बताने वाले अंशों को हटाने के साथ देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित उल्लेख को भी हटाया गया है; देश के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के ज़िक्र को हटा दिया गया है; सन् 1975 में लगी इमरजेंसी को हटाने के साथ उस दौरान कुचले गए मानव अधिकारों, न्यायपालिका और मीडिया की शर्मनाक भूमिका के उल्लेख को भी हटाया गया है; भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव, दलित लेखकों के जिक्र, सन् 2002 में गुजरात में अल्पसंख्यक समुदाय के हुए कत्लेआम को सांप्रदायिक दंगे बताकर उसके उल्लेख में से ‘मुस्लिम विरोधी’ शब्दों को हटाना, लेकिन सन् 1984 में हुए सिखों के कत्लेआम को बने रहने देना, पर्यावरण परिवर्तन और प्रदूषण के कारण देश में हुईं मौतों के आंकड़ों को हटाने के साथ आज़ादी के बाद हुए राजनीतिक और जनसंघर्षों के उल्लेख को हटाया जाना, जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की शर्त, स्वायत्त शासन, को हटा देने के साथ ‘निराला’ जैसे प्रगतिशील कवियों, लेखकों को भी पाठ्यक्रम से हटा देना, इत्यादि इन बदलावों में शामिल हैं।

इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस (आई. सी. एच) ने भी 10 अप्रैल को जारी अपनी विज्ञप्ति में एन.सी.ई.आर.टी द्वारा इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में किए गए अतार्किक बदलावों को गलत और अस्वीकार्य करार दिया है। उसके अध्यक्ष प्रोफेसर वेलुथैट और सचिव प्रोफेसर नदीम अली रिजवी ने इतिहास के प्रति इस तरह के संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण को आज के युग के किसी आधुनिक प्रगतिशील विचार के विपरीत बताया है।

लोकतंत्र और संविधान का गला घोंटना और जनआंदोलनों को कुचलना सांप्रदायिक राजनीति का प्रमुख एजेंडा होता है। पिछले कुछ दशकों में देश में जो जनांदोलन हुए, उनमें से कई को किताबों से गायब कर दिया गया है। चिपको आंदोलन के साथ आदिवासियों के अधिकारों और पर्यावरण की रक्षा के लिए चलाए गए नर्मदा बचाओ आंदोलन की चर्चा को भी अब पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया है।

हिंदुत्व की राजनीति पक्के तौर पर यह चाहती है कि दलित और आदिवासी हमेशा समाज के सबसे निचले पायदान पर बने रहें। इसीलिए किताबों से दलित पैंथर आंदोलन की चर्चा को भी हटा दिया गया है। ज्ञात हो कि सन् 1970 के दशक में चले इस आंदोलन ने दलितों को उनके हालात और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया था। इस आंदोलन को एक तरह से दलितों का विद्रोह भी कह सकते हैं। इसी तरह सूचना के अधिकार आंदोलन को भी अब किताबों से गायब कर दिया जाएगा। यह आंदोलन जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों में एक प्रमुख और महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

सवाल है कि वर्तमान सत्ता को स्कूली पाठ्यक्रम की पुस्तकों में इस तरह के अंशों को हटाने या बदलने की ज़रूरत क्यों थी ? इसका सीधा और स्पष्ट उत्तर है कि मौजूदा केंद्रीय भाजपा सरकार, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की (जो खुद को एक सांस्कृतिक संघटन बताता है) एक राजनीतिक शाखा है, वह उसके हिंदूराष्ट्र के एजेंडे से निर्देशित होकर चलती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आर.एस.एस का जन्म सितंबर, 1925 में भारत को एक हिंदूराष्ट्र बनाने के लिए पांच-छः मराठी ब्राह्मणों द्वारा हुआ था। उस समय कांग्रेस और गांधी के नेतृत्व में देश में स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था, जिसमें आर.एस.एस और हिंदू महासभा ने हिस्सा नहीं लिया था। कारण? गांधी और कांग्रेस देशवासियों में एकता और धर्मनिरपेक्षता की बात करते थे। उसके विरुद्ध सन् 1937 में हिंदू महासभा का अध्यक्ष बनने के बाद सावरकर भारत में दो कौमों, दोराष्ट्रों का विभाजनकारी सिद्धांत पेश कर रहा था। उसके इस सिद्धांत को बाद में मुस्लिम लीग ने लपक लिया और अपने लिए पाकिस्तान की मांग करनी शुरू कर दी। इस तरह आज़ादी की लड़ाई के अंतिम दौर में पहुंचने के साथ देश में मुस्लिम लीग और हिंदू सांप्रदायिक संगठनों यानी आर.एस.एस और हिंदू महासभा ने धर्म को लेकर जो ज़हरीला सांप्रदायिक वातावरण तैयार किया, उसके ही कारण देश भारत और पाकिस्तान में बंट गया।

आज़ादी के बाद भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने अपने घृणा, हिंसा पर आधारित घातक, विभाजनकारी हिंदूराष्ट्रवाद के एजेंडे को नहीं छोड़ा। उसके चलते ही जनवरी, 1948 में हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी की हत्या कर दी गई। उसके कारण कुछ समय के लिए दोनों संगठनों पर प्रतिबंध लगा और उनकी गतिविधियां बंद रहीं, लेकिन रोक हटने के साथ फिर दोबारा शुरू हो गईं। सांप्रदायिक घृणा को सत्ता की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने वाले आर.एस.एस और उसकी भारतीय जनता पार्टी आखिर केंद्र में सन् 1998-99 में और फिर 2014 में सरकार बनाने में सफल हो गए। उसके बाद से संघ अपने हिंदूराष्ट्र निर्माण के एजेंडे पर पूरी ताक़त और तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसी क्रम में उसने एन.सी.ई.आर.टी जैसे स्वायत्त शिक्षण संस्थान में अपनी विचारधारा वाले लोगों को नियुक्त करवाकर अब स्कूली पाठ्यक्रम की पुस्तकों में अपनी विचारधारा के अनुसार हेरफेर करने का अभियान चलाना शुरू किया है।

हिंदूराष्ट्र के अपने लक्ष्य के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचारधारा के साथ देश के इतिहास के महत्व को, उसकी भूमिका को भी बहुत अच्छी तरह से समझता है। इसी के चलते उसके नेतृत्व ने अपनी धर्म आधारित,विभाजनकारी सांप्रदायिक घृणा की विचारधारा को छात्रों और युवाओं में फैलाने के लिए अब एन.सी.ई.आर.टी के पाठ्यक्रम को चुना है। वैसे इस काम के लिए वह देश की शिक्षा व्यवस्था में पहले से घुसा हुआ है। आज़ादी के बाद उसने इसके लिए सरस्वती शिशु शिक्षा मंदिरों, विद्या भारती के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों, डी.ए.वी के नाम से विद्यालयों, कॉलेजों की स्थापना पहले से कर रखी है। इस के अलावा बच्चों और किशोरों को सांप्रदायिक बनाने के लिए लंबे अरसे से वह देश भर में रोज सुबह-शाम शाखाएं लगा रहा है। उनमें बताया जाता है कि भारत हिन्दुओं का देश है, मुसलमान हमारे शत्रु हैं, वह गद्दार और देशद्रोही हैं; वे विदेशी आक्रमणकारियों की संतानें हैं, इत्यादि। यह सब करने के बाद भी संघ संतुष्ट नहीं था, क्योंकि एन.सी.ई.आर.टी का पाठ्यक्रम उसकी सांप्रदायिक विचारधारा के स्कूली छात्रों में बेरोकटोक फैलाव में एक रोड़ा बना हुआ था। इसी कारण मौका मिलते ही उसने उसके इतिहास, सामाजिक विज्ञान और राजनीतिक विज्ञान की पुस्तकों में से तथ्यों पर आधारित सामग्री को हटाकर या तोड़-मरोड़ कर नए संस्करणों को पेश किया है। इसके द्वारा वह देश के 6 कक्षा से12वीं तक के छात्रों को अपनी विचारधारा में ढालना चाहता है। इस तरह वह देश के अतीत यानि वास्तविक इतिहास से पीछा छुड़ा कर वर्तमान को अपने हित में साधने की कोशिश कर रहा है। इसमें वह कहां तक सफल हो पाएगा, यह तो देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और आज़ादी, बराबरी और भाईचारे में यकीन रखने वाले लोगों के एकजुट होकर उसके विरुद्ध चलाए गए अभियान पर निर्भर करेगा।