फ़िल्म समीक्षा : पुरूषों के हक में सोच बदलने का एक सार्थक प्रयास है- अनुच्चारित

रावेल पुष्प

यह बात सही है की एक समय महिलाएं उत्पीड़न का शिकार होती रही हैं और वे हाशिये पर भी रहीं,इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए तमाम कानून तथा महिला आयोग भी बना। लेकिन आज बहुत सारी महिलाएं उन कानूनों का दुरूपयोग कर पुरुषों को ही प्रताड़ित कर रही हैं। अब उचित तो ये है कि एक बार फिर उन कानूनों की आज के सन्दर्भ में समीक्षा की जाए और ऐसे भी कानून बनें ताकि पुरुषों के साथ भी न्याय हो सके।

यह बात मान ली जाती है कि मर्द को दर्द नहीं होता, लेकिन ऐसी बात नहीं है वे पारिवारिक कलह जिसमें पत्नी द्वारा प्रताड़ना मुख्य है, जिस पर वे खुलकर बात भी नहीं कर पाते, इसकी एक तरफ तो लोक-लाज का भय दूसरा कई बार पौरूष भी आड़े आता है । इन सबको दरकिनार कर भी दिया जाए तो पुरुष की आवाज को सुनने को कोई तैयार नहीं – चाहे पुलिस थाना या कोर्ट कचहरी हो सब जगह कोई भी पुरुष के पक्ष में नहीं। आज तो स्थितियां ऐसी हो गई हैं कि अधिकतर एक विवाहित पुरुष हमेशा हार्ट अटैक की जद में रहते हैं या फिर आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। अगर हम 2021 के आंकड़े देखें तो उसमें आत्महत्या करने वालों में 72% पुरुष थे और 27% महिलाएं, यानि लगभग तीन गुना पुरुषों ने आत्महत्या की।

एक पुरुष है जो अपने परिवार के लिए ही जीता मरता है, चाहे घर हो या कार्यालय अगर उस पर झूठे आरोप लगा दिए जाते हैं तो वो निराशा और हताशा का जीवन जीने को अभिशप्त हो जाता है ।

पुरूषों के मानसिक उत्पीड़न के लिए महिलाओं की तर्ज पर एक पुरुष आयोग के गठन की मांग इधर कुछ वर्षों से लगातार की जा रही है, लेकिन हाल ही में एक जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया, जिसमें घरेलू हिंसा के शिकार प्रताड़ित विवाहित पुरुषों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं से निपटने के लिए दिशा निर्देश तैयार करने तथा उनके हितों के लिए राष्ट्रीय पुरुष आयोग गठित करने की मांग की गई थी।

सरकारी स्तर पर भले ही कुछ न हुआ हो, लेकिन गैर सरकारी स्तर पर कुछ प्रयास जरूर हुए हैं , जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्था है – परिवार कल्याण समिति और अब तो‌ इस विषय पर पुरुष अधिकारों के लिए काम करने वाली एक्टिविस्ट दीपिका नारायण भारद्वाज ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है जिसका नाम है – मारटेयर्स ऑफ़ मैरिज यानि विवाह के शहीद !

अब कोलकाता में भी पुरुषों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक संस्था सक्रिय हुई है जिसका नाम है- ऑल बंगाल मेंस फ़ोरम और इससे जुड़ी एक्टिविस्ट है – नंदिनी भट्टाचार्य !

इसी पुरूष उत्पीड़न का एक पक्ष दर्शाती एक बांग्ला लघु फिल्म हाल ही में कोलकाता रोटरी सदन में प्रदर्शित की गई है और इसकी लेखक और निर्देशिका हैं- भास्वती राय और फ़िल्म का नाम है – अनुच्चारित यानि अनटोल्ड मतलब अनकहा !

भास्वती राय इसी तरह की सामाजिक समस्याओं पर पहले भी 5 फ़िल्में बना चुकी हैं और यह उनकी छठवीं फिल्म है,जो इस साल एशियन फ़िल्म फेस्टिवल-2023 में प्रदर्शित की गई है और उन्हें सर्वश्रेष्ठ महिला निर्देशक का पुरस्कार भी मिल चुका है।

इस फ़िल्म में एक मॉडल रिजू सेन,जिसे हर साल उसके प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ मॉडल घोषित किया जाता है और लाखों का पुरस्कार गाड़ी वगैरह मिलते हैं, लेकिन वहीं एक महिला मॉडल पूजा चौधरी हमेशा पीछे रह जाती है। वो इर्ष्यावश एक प्लान के तहत उस पर एसिड अटैक करती है ,जिससे उसका चेहरा बुरी तरह झुलस जाता है। इसके अलावा वो निर्णायक मंडली को भी कमीशन देने की शर्तों पर अपने लिए सर्वश्रेष्ठ मॉडल का खिताब अपने नाम घोषित करवाने में कामयाब हो जाती है।

इस एसिड अटैक की घटना की पुलिस जांच की फाईल कुछ खानापूर्ति कर बंद कर दी जाती है। लेकिन उसी महिला माॅडल का पिता जो एक पुलिस अधिकारी है और अब व्हील चेयर पर है,वो इस घटना की अपने तईं तहकीकात करता है और सबूत इकट्ठे कर फ़ाइल पुनः खुलवाता है और सारे सुबूत उपलब्ध करवाता है। उसके बाद पुलिस द्वारा उसे गिरफ़्तार करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और यहीं होता है फिल्म का समापन!

इस बीच पुरुष मॉडल बिल्कुल टूट जाता है और बिल्कुल एक जिंदा लाश में तब्दील हो जाता है। उसकी मां भले ही उसके बाद उसे उस स्थिति से उबारने का भरसक प्रयास करती है।

इस फ़िल्म में व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते एक महिला मॉडल द्वारा एसिड अटैक,एक मां द्वारा अपने बेटे को फिर से स्थापित करने की जद्दोजहद और एक कर्त्तव्यपरायण पुलिस अधिकारी की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।

फ़िल्म के मुख्य पात्रों की भूमिका में रिजू सेन के रूप में तुहिन मुखर्जी, पूजा चौधरी के रूप में सुलग्ना मुखर्जी, पुलिस अधिकारी की भूमिका में डाॅ गौतम साहा तथा मां की भूमिका में लवली देवनाथ ने अपनी-अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम दिया है।

फिल्म के बीच-बीच में पुरुष अधिकारों के लिए संघर्षरत एक्टिविस्ट, डॉक्टर तथा वकील वगैरह के वक्तव्य कुछ जरूरी होते हुए भी फिल्म की मूल कथा के प्रवाह को अवश्य बाधित करते हैं। वैसे जो भी हो, पुरुषों के हक में सोच बदलने का एक सार्थक प्रयास है- अनुच्चारित !