अरुण कुमार डनायक
आज शिक्षक दिवस है , भारत के प्रख्यात दार्शनिक , महान शिक्षक , प्रथम उपराष्ट्रपति डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन। अपने समकालीन भारतीय विद्वानों की भांति वे भी महात्मा गांधी के संपर्क में 1915 में आये। राधाकृष्णन शिक्षक थे पर महात्मा गांधी से उनकी वार्ता शायद धर्म, आध्यात्म को लेकर ज्यादा हुई। उन्हें महात्मा गांधी के 71 वें जन्मदिन पर ‘गांधी अभिनन्दन ग्रन्थ’ व गांधीजी की मृत्यु उपरान्त ‘गांधी श्रद्धांजलि ग्रन्थ’ के सम्पादन का दायित्व सौंपा गया। इन ग्रंथों में उन्होंने गांधी जी के धर्म, आध्यात्म, धार्मिक सहिष्णुता, रचनात्मक कार्यक्रम व राजनीतिक विचारों पर दो लेख लिखने के साथ ही गांधीजी के नई तालीम संबंधी विचारों पर चंद पंक्तियाँ लिखी- “खादी पर बार बार जोर देने में और शिक्षण की अपनी योजना का आधार बनाने में भी ग्रामों का पुनरुद्धार रहा है।” डाक्टर राधाकृष्णन का सहयोग गांधीजी ने 1937 नई तालीम का स्वरूप तय करने या नई तालीम की समीक्षा करते समय नहीं लिया था। फिर भी डाक्टर राधाकृष्णन ने इस योजना की प्रसंशा की इसीलिये उनके जन्मदिन पर नई तालीम की प्रासंगकिता पर हमें चर्चा तो करनी ही चाहिए :
महात्मा गांधी अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति के सख्त खिलाफ थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने अपने तीन पुत्रों को सरकारी विद्यालयों की जगह स्वयं घर पर ही शिक्षित किया। भारत में भी उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की शिक्षा पद्धति को गलत बताया और 1937 में जब नई तालीम पर विमर्श शुरू किया तो तत्कालीन शिक्षा पद्धति के विरोध में निम्न कारण गिनाये :-
1. वर्तमान शिक्षा प्रणाली, देश की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती है, के कारण उच्च शिक्षित, अंग्रेज़ी के मुट्ठी भर जानकार लोगों व अनपढ़ जनसमुदाय के बीच एक स्थायी दीवार खडी हो गई है। जनसमुदाय सरकारी मुलाजिमों से बात करने में घबराता है और अधिकारी जनता के साथ समानता का व्यवहार नहीं करता।
2. श्रम विहीन शिक्षा के कारण विद्यार्थियों का शारीरिक दृष्टि से नुकसान हुआ है। वे शरीर से कमजोर और आलस्य से भरपूर बन गए हैं।
3. धंधों के शिक्षण के अभाव में शिक्षित वर्ग को उत्पादक काम के सर्वथा अयोग्य बना दिया गया है। विद्यार्थियों के सर्वतोमुखी विकास के लिए, शिक्षा धंधे के माध्यम से दी जानी चाहिए, ताकि विद्यार्थी अपने परिश्रम के फल द्वारा अपनी पढ़ाई का खर्च अदा कर सकें और सीखे हुए धंधे के द्वारा अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर रोजी रोटी कमा सकें।
4. प्राथमिक शिक्षा में जो कुछ सिखाया जाता है , उसे विद्यार्थी जल्दी ही भूल जाते हैं।
5. शराब की बिक्री से प्राप्त राजस्व का उपयोग शिक्षण में करने से छात्रों मे नैतिक गुणों का विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
उपरोक्त आकलन के आधार पर गांधीजी ने सुझाया कि प्राथमिक शिक्षा मातृ भाषा में दी जाए । सात वर्ष की शिक्षा की अवधि बालकों के सात वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर शुरू होकर चौदह वर्ष की आयु में समाप्त हो । बच्चों को सृजनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से शिक्षित किया जाय और उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं की बिक्री सरकार सुनिश्चित करे , इससे शिक्षा को स्वयं प्रेरित और स्वाश्रयी बनाने में मदद मिलेगी और उसकी सरकार के राजस्व पर निर्भरता कम होगी। उनकी दृष्टि में शिक्षा का अर्थ ख़ास धंधों के साथ बुद्धि को प्रशिक्षित करना , शरीर को सुगठित करना , हाथ की लिखावट को सुधारना , कला की भावना को जागृत करना होना चाहिए तथा इतिहास , भाषा ,साहित्य के अध्ययन में वर्षो लगाने की अपेक्षा दस्तकारी सिखाना ज्यादा महत्वपूर्ण है । हुनर या दस्तकारी का शिक्षण विद्यार्थियों की शोध बुद्धि का विकास करेगा। इसीलिये गांधीजी ने नई तालीम में पांच घंटे की शाला में चार घंटे शरीर श्रम के लिए और एक घंटा भाषा, इतिहास ,भूगोल व गणित की शिक्षा के लिए नियत किया। गांधीजी की नई तालीम में नैतिक शिक्षा पर तो जोर था पर वे धार्मिक शिक्षा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। वे शिक्षा को अनिवार्य व मुफ्त रखने और 25 छात्रों के बीच एक शिक्षक रखे जाने के हिमायती थे।
उस वक्त के शिक्षाविदों ने नई तालीम को सहजता से नहीं लिया। अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने इसे मध्य युगीन बताया और कहा कि इससे बच्चों पर बोझ बढेगा , उनका शोषण होगा, कच्चे माल की बर्बादी होगी और तैयार वस्तुओं की बिक्री करना खर्चीला होगा। गांधीजी ने अप्रैल 1947 में बिहार में आयोजित हिन्दुस्तान तालीमी संघ की बैठक में इन सभी शंकाओं के समाधानकारक उत्तर दिए। गांधीजी की नई तालीम के बारे में कल्पना थी कि वह ऐसी शांत, सामाजिक क्रांति की अग्रदूत होगी जिसमें अत्यंत दूरगामी परिणाम होंगे। वे मानते थे कि नई तालीम में शिक्षित बच्चे साहसी, स्वस्थ, संस्कारी और सेवा के लिए उत्सुक रहेंगे। उनमें धोखाबाजी और इसी तरह के दोष नहीं होंगे।
गांधीजी की मान्यता –‘शिक्षा में बुनियादी फेरबदल होने के बाद ही हिन्दुस्तान की आज़ादी का आनंद लूटा जा सकता है’, के अनुरूप स्वतंत्र भारत की सरकारों ने समय समय पर शिक्षा नीति में फेरबदल किये। 1952 में माध्यमिक शिक्षा हेतु लक्षमणस्वामी मुदलियारआयोग, 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की अनुसंशाओं पर आधारित शिक्षा नीति का लक्ष्य ‘राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशल’ युवक-युवतियों को तैयार करना था। वर्तमान सरकार 2020 में एक नई शिक्षा नीति लेकर आई है। नई शिक्षा नीति में बच्चों का स्कूल से परिचय 3 वर्ष की उम्र में हो जाएगा और उसे आठ वर्ष की उम्र होने तक दूसरी कक्षा के स्तर की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जायेगी। पाँचवीं कक्षा की शिक्षा में मातृभाषा/स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अध्यापन के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है। साथ ही इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है। स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा परन्तु किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी। मोटे तौर पर शिक्षाविदों ने नई शिक्षा नीति की प्रसंशा की है। लेकिन अनेक प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। यह सही है कि नई तालीम की प्रासंगिकता बरकरार है फिर भी उसमें समय के साथ परिवर्तन होना चाहिए।जब तक केवल मातृभाषा में शिक्षा का माध्यम सभी के लिए अनिवार्य नहीं किया जाएगा, शिक्षा में व्याप्त गुणवत्ता संबंधी असमानता को दूर नहीं किया जा सकता। तीन भाषा फार्मूला, अधिक से अधिक विषयों में पारंगत करने की भावना, शालेय कार्य के निष्पादन में स्वावलंबन का अभाव, परीक्षाओं के कारण मानसिक तनाव, पाट्यक्रम में अवांछित बदलाव, विषय को रटकर याद करने की आदत, विश्लेषण क्षमता का अभाव व तार्किक शक्ति का विकास कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिनका उत्तर खोजा जाना बाकी है।