ललित गर्ग
भारत के राष्ट्रपति, महान दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को 5 सितम्बर को पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित करने के बाद से देश में शिक्षा एवं शिक्षक पर व्यापक चर्चा आरंभ हो गई है। शिक्षकों को अधिक सशक्त, जिम्मेदार एवं राष्ट्र- व्यक्ति निर्माण में उनकी भूमिका पर विशेष बल दिया जाने लगा है। लार्ड मैकाले की शिक्षा में अब तक भारत में गुरु एवं शिक्षक श्रद्धा का पात्र न होकर वेतन-भोगी नौकर बन गया था, शिक्षक की भूमिका गौण हो गयी थी। ‘सा विद्या या विमुक्तये’, यह भारतीय शिक्षा जगत का प्रमुख सुभाषित है। इस सुभाषित के अनुसार सच्ची शिक्षा वह है जो विद्यार्थी को नकारात्मक भावों और प्रवृत्तियों के बंधनों से मुक्ति प्रदान करें। पर ंिचंता का विषय बना रहा कि भारत के शिक्षक ही आज इसकी उपेक्षा करते रहे हैं। ऐसा लगता है, मानो उनका लक्ष्य केवल बौद्धिक विकास ही है। अब नयी शिक्षा नीति में शिक्षक के लिये शिक्षा एक मिशन होगा, स्वदेशी, सार्थक और मूल्य आधारित शिक्षा के माध्यम से उन्नत पीढ़ी का निर्माण होगा। गुरु के महत्व को बढ़ाकर प्रबन्ध-तंत्र के वर्चस्व को घटाया जायेगा। अब भारत की नयी शिक्षा नीति में शिक्षक का चरित्र एवं साख दुनिया के लिये प्रेरक एवं अनुकरणीय बनकर प्रस्तुत होगा, जिसमें भारतीय संस्कारों एवं संस्कृति का समावेश दिखाई देगा।
किसी भी राष्ट्र एवं समाज की बहुत बड़ी शक्ति होती है- अध्यापक वर्ग। इस वर्ग की प्रासंगिकता, अनिवार्यता और उपयोगिता कभी समाप्त नहीं हो सकती। इस वर्ग के कंधों पर राष्ट्र के भविष्य-निर्माण का गुरुत्तर दायित्व होता है। यदि इस दायित्व में थोड़ी-सी भी भूल रह जाती है तो समाज के निर्माण की नींव खोखली रह जाती है। वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका भले ही बदली हो, लेकिन उनका महत्व एवं व्यक्तित्व-निर्माण की जिम्मेदारी अधिक प्रासंगिक हुई है। क्योंकि सर्वतोमुखी योग्यता की अभिवृद्धि के बिना युग के साथ चलना और अपने आपको टिकाए रखना अत्यंत कठिन होता है। फौलाद-सा संकल्प और सब कुछ करने का सामर्थ्य ही व्यक्तित्व में निखार ला सकता है। शिक्षक ही ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार सर्वांगीण विकास का अर्थ है- हृदय से विशाल, मन से उच्च और कर्म से महान। भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास हेतु शिक्षक एवं गुरु आचार, संस्कार, व्यवहार और विचार- इन सबका परिमार्जन एवं विकास करने का प्रयत्न करते रहते थे। जबकि मैकाले की शिक्षा विद्यार्थी को शरीर, मन, बुद्धि एवं चरित्र से रुग्ण बनाकर केवल धन कमाने की मशीन, कुसंस्कृत एवं पतनोन्मुख बनाती रही है। राजनीतिक संघर्ष से भले ही देश को शारीरिक स्वतंत्रता मिली पर विगत साढे़ सात दशकों में मानसिक-बौद्धिक-भावात्मक परतंत्रता की बेड़िया मजबूत हुई है। अब नरेन्द्र मोदी सरकार ने शिक्षा की इन कमियों एवं अधूरेपन को दूर करने के लिये नयी शिक्षा नीति घोषित की है और उसमें शिक्षकों के दायित्व को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्हें जिम्मेदार, नैतिक-चरित्रसम्पन्न नागरिकों का निर्माण करने की जिम्मेदारी दी गयी है।
भारत के मिसाइल मैन, पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि अगर कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त है और सुंदर दिमाग का राष्ट्र बन गया है, तो मुझे दृढ़ता से लगता है कि उसके लिये तीन प्रमुख सामाजिक सदस्य हैं जो कोई फर्क पा सकते हैं वे पिता, माता और शिक्षक हैं।” डॉ. कलाम की यह शानदार उक्ति प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग में आज भी गूंज रही हैं। शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करते हुए प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. ए. एस. अल्तेकर ने लिखा है- ‘‘शिक्षा प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत है, जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरंतर सामंजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करती है और उसे उत्कृष्ट बनाती है।’’ लेकिन हमने प्राचीन शिक्षा प्रणाली की इन विशेषताओं को भूला दिया है। आजादी के बाद से चली आ रही शिक्षा प्रणाली में शिक्षालय मिशन न होकर व्यवसाय बन गया था। इस बड़ी विसंगति को दूर करने की दृष्टि से वर्ततान शिक्षा नीति में व्यापक चिन्तन-मंथन किया गया है। पूरे देश में ‘एक जैसे शिक्षक और एक जैसी शिक्षा’ पॉलिसी पर काम किया जाने लगा है। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, शिक्षक देश के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इसी वजह से वे अधिक सम्मान के योग्य होते हैं।’ नयी शिक्षा नीति में ऐसी संभावनाएं है कि राष्ट्र के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका अधिक प्रभावी बनकर प्रस्तुत होगी। अब शिक्षा से मानव को योग्य, राष्ट्र-निर्माता एवं चरित्रवान बनाने का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा।
अन्य कलाओं की भांति शिक्षण भी एक महत्वपूर्ण कला है, शिक्षक उस कलाकार के समान होता है, जो अनगढ़ पत्थर को तराशकर पूज्य प्रतिमा का रूप प्रदान करता है। वर्तमान में शिक्षण-कौशल एवं शिक्षण विधियों पर बहुत अनुसंधान हो रहा है। डॉ. जाकिर हुसैन ने अध्यापक को प्रेम, सहिष्णुता और त्याग की प्रतिमूर्ति माना है। पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री जॉन डयूवी ने ‘एजूकेशन ऑफ टुडे’ नामक ग्रंथ में शिक्षक के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘‘शिक्षक बालक के लिए सदैव परमात्मा का पैगम्बर होता है, जो परमात्मा के सच्चे राज्य में प्रवेश कराने वाला है।’’ एक अध्यापक स्रष्टा की भांति समाज की भावी पीढ़ी का निर्माण करके समाज द्वारा उत्पन्न शून्य को भरने का प्रयत्न करता है। यदि उसके दायित्व में कमी रहती है तो उसे क्षम्य नहीं माना जा सकता।
ऋग्वेद के सूक्त में शिक्षक का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है- ‘‘हे ज्ञान और ऐश्वर्य के स्वामी आचार्य! आप पिता के समान शुभचिंतक तथा बुद्धि के स्वामी हैं अतः हमें पूर्णतः शिक्षित कीजिए।’’ जे. कृष्णामूर्ति ने सच्चे अध्यापक की जो कसौटियां प्रस्तुत की हैं, वे उसके व्यक्तित्व के माहात्म्य को प्रकट करने वाली हैं- ‘‘सच्चा अध्यापक अभ्यंतर में समृद्ध होता है अतः अपने लिए कुछ नहीं चाहता, वह महात्वाकांक्षी नहीं होता, वह अपने अध्यापन को पद अथवा सत्ताधिकार प्राप्त करने का साधन नहीं बनाता। सच्ची संस्कृति इंजीनियरों और टेकनीशियनों पर नहीं, अपितु शिक्षकों पर आधारित होती है। अब शिक्षक एवं शिक्षा-नीति एक क्रांतिकारी बदलाव की ओर अग्रसर हुई है। शिक्षक एवं शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य अब प्राप्त होगा। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में -‘व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अत्यन्त कठिन है। निःस्वार्थी और जागरूक शिक्षक ही किसी दूसरे व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है।’ हाल ही में आपने सुपर-30 फिल्म में एक शिक्षक के जुनून को देखा। इस फिल्म में प्रो. आनन्द के शिक्षा-आन्दोलन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुति दी गयी है। अब नयी शिक्षा नीति से ऐसे ही आन्दोलनकारी शिक्षा उपक्रम जगह-जगह देखने को मिलें, तभी इस नवीन घोषित शिक्षा नीति की प्रासंगिकता है।
अनेकानेक विशेषताओं के बावजूद अब तक शिक्षक का पद धुंधला रहा था। जैसाकि महात्मा गांधी ने कहा था-एक स्कूल खुलेगी तो सौ जेलें बंद होंगी। पर उल्टा होता रहा है। स्कूलों की संख्या बढ़ने के साथ जेलों के स्थान छोटे पड़ते गये हैं। जेलों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ रही है। स्पष्ट है- हिंसा और अपराधों की वृद्धि में मैकाले की शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षक भी एक सीमा तक जिम्मेदार है। अशिक्षित और मूर्ख की अपेक्षा शिक्षित और बुद्धिमान अधिक अपराध करते रहे हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में जो तनाव, टकराव और बिखराव की घटनाएं घटित होती रही हैं, उसके मूल में संकीर्णता और ईर्ष्या की मनोवृत्ति भी एक बड़ा कारण है। व्यक्तित्व का टकराव भी इसी कारण बढ़ा है। क्या कारण है कि नयी पीढ़ी के निर्माण में ऐसी त्रुटियां के बावजूद सरकारें कुंभकरणी निद्रा में रही, शिक्षक क्यों नहीं एक सर्वांगीण गुणों वाली पीढ़ी का निर्माण कर पाएं? इसका कारण दूषित राजनीतिक सोच रही है। मानव ने ज्ञान-विज्ञान में आश्चर्यजनक प्रगति की है। परन्तु अपने और औरों के जीवन के प्रति सम्मान में कमी आई है। विचार-क्रान्तियां बहुत हुईं, किन्तु आचार-स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन कम हुए। शान्ति, अहिंसा और मानवाधिकारों की बातें संसार में बहुत हो रही हैं, किन्तु सम्यक्-आचरण का अभाव अखरता है। अब नयी शिक्षा नीति से सम्यक् चरित्र, सम्यक् सोच एवं सम्यक् आचरण का प्रादुर्भाव होगा।