शिशिर शुक्ला
हाल ही में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मंडी में रैगिंग की एक घटना प्रकाश में आई है। विगत 14 अगस्त को सीनियर विद्यार्थियों के द्वारा जूनियरों को परिचय के बहाने कक्षा में बुलाया गया एवं उनके साथ अनेक उल्टी सीधी हरकतों को अंजाम दिया गया। यहां तक कि विरोध करने वालों को मुर्गा बनाकर धमकी भी दी गई। हालांकि अच्छी बात यह रही कि पीड़ित विद्यार्थियों के अभिभावकों की शिकायत पर एंटी रैगिंग कमेटी के द्वारा मामले की जांच की गई एवं दस छात्रों को निलंबित कर दिया गया। हतप्रभ कर देने वाली बात तो यह है कि रैगिंग में बहत्तर छात्र संलिप्त थे। सभी पर संलिप्तता के आधार पर जुर्माना लगाया गया है। एक बेहद चिंताजनक सवाल यह उठता है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जोकि भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में अपनी एक अद्वितीय पहचान रखते हैं, रैगिंग जैसे दुष्कृत्य की चपेट में कैसे आ रहे हैं। रैगिंग को लेकर यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी अनेक बार रैगिंग एवं उसके भयावह दुष्परिणाम प्रकाश में आ चुके हैं। इंजीनियरिंग से लेकर मेडिकल कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों तक में रैगिंग के नाम पर उत्पीड़न की सीमा को लांघने की घटनाएं यदा-कदा ही घटती रहती हैं। अनेक स्थितियों में तो ऐसा भी हुआ है कि रैगिंग का शिकार हुए विद्यार्थियों ने शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न से परेशान होकर आत्मघाती कदम तक उठा लिए। आईआईटी मंडी की घटना में आरोपी छात्रों के द्वारा यह बयान दिया गया कि वे केवल जान पहचान एवं हास परिहास कर रहे थे।
इंटरमीडिएट की परीक्षा को उत्तीर्ण करने के उपरांत उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थी अपने मन मस्तिष्क में भविष्य को लेकर विभिन्न उज्ज्वल स्वप्न संजोकर प्रवेश लेते हैं। यहां पर एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि प्रतिभा का किसी क्षेत्र अथवा परिवेश से कोई खास लेना देना नहीं होता। प्रतिभावान विद्यार्थी शहरों में भी होते हैं और गांवों में भी। हां, परिवेश के कारण इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि शहर के विद्यार्थी व्यक्तित्व विकास एवं उन्मुक्तता के पैमाने पर गांव के विद्यार्थियों से कहीं आगे होते हैं।
बहिर्मुखी एवं अंतर्मुखी स्वभाव के पीछे कहीं न कहीं वह परिवेश ही उत्तरदायी होता है जहां विद्यार्थी रहते एवं शिक्षा दीक्षा ग्रहण करते हैं। अंतर्मुखी स्वभाव के प्रतिभावान विद्यार्थी जब उच्च शिक्षण संस्थानों में कदम रखते हैं तो निस्संदेह उन्हें एक परिवर्तित परिवेश का सामना करना पड़ता है एवं उस समय उनके पास स्वयं को उस परिवेश में ढालने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि उनकी शिक्षा, भविष्य एवं कैरियर प्राथमिकता के रूप में उनके सामने खड़ा होता है। वरिष्ठ छात्रों के द्वारा परिचय की आड़ लेकर जूनियर विद्यार्थियों को रैगिंग के पाश में फंसाना उन विद्यार्थियों पर विशेष रूप से भारी पड़ जाता है जोकि नवीन वातावरण में स्वयं को ढालने के साथ-साथ अपने परिवार की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कठिन मानसिक संघर्ष की स्थिति से गुजर रहे होते हैं। रैगिंग के नाम पर अश्लील हरकतें, शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना, अनावश्यक हास परिहास इत्यादि को अंजाम दिया जाता है। ये सभी घटनाएं संवेदनशील विद्यार्थियों के आत्मविश्वास का स्तर गिरने में कोई कसर नहीं छोड़ती। दुष्परिणाम यह होता है कि विद्यार्थी पढ़ाई छोड़कर घर वापस आ जाने जैसे कदम उठाने को विवश हो जाते हैं। कुछ विद्यार्थी तो इस हद तक आहत हो जाते हैं कि वह आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं। कुल मिलाकर नतीजा सिर्फ एक होता है, और वह है प्रतिभा की हत्या अथवा दमन। आंकड़े बताते हैं कि 2021 में रैगिंग के 511 मामले जबकि 2020 में 219 मामले दर्ज किए गए। ये सिर्फ कागजी आंकड़े हैं। जाहिर सी बात है कि बहुत से मामले ऐसे भी होते होंगे जोकि प्रकाश में ही नहीं आ पाते। पीड़ित विद्यार्थी अपने साथ हुए उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने का साहस ही नहीं कर पाते और इस तरह मामला स्वतः ही दब जाता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तमाम दिशानिर्देशों के बावजूद भी रैगिंग जैसी कुत्सित घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। प्रत्येक उच्च शिक्षण संस्थान के परिसर में स्पष्ट रूप से नोटिस बोर्ड पर लिखा है कि रैगिंग एक दंडनीय अपराध है, किंतु आए दिन रैगिंग की घटनाओं का होना कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि रैगिंग के संबंध में दिए गए नियमों एवं दिशानिर्देशों का खुलकर मजाक उड़ाया जा रहा है।
निश्चित रूप से यह एक गंभीर चिंता का विषय है इस मुद्दे पर अभिभावकों, शिक्षण संस्थानों, प्रशासन एवं सरकार, प्रत्येक स्तर पर जागरूकता, सतर्कता एवं सख्ती की महती आवश्यकता है। काश एक लोकप्रिय हिंदी फिल्म “मुन्ना भाई एमबीबीएस” का वह दृश्य वास्तविकता में परिणत हो पाता जिसमें सीनियर विद्यार्थियों द्वारा जूनियरों की रैगिंग के समय एक जूनियर छात्र के द्वारा पूरा सीन ही पलट कर रख दिया जाता है और देखते ही देखते जूनियर छात्र सीनियर छात्रों की रैगिंग करने लगते हैं। बहरहाल इस रोगतुल्य मनोवृति से छुटकारा पाने के लिए सर्वप्रथम तो अभिभावकों के द्वारा विद्यार्थियों को इस तरह से अभिप्रेरित किया जाना चाहिए कि वह अपना पूर्ण ध्यान अपनी पढ़ाई पर केंद्रित करें। पहली बार एक नए माहौल में जा रहे विद्यार्थियों को अभिभावकों के द्वारा एक मजबूत सहारे के रूप में अपना मार्गदर्शन देते हुए उनके अंदर यह भावना कूट-कूट कर भरनी चाहिए कि वे किसी भी परिस्थिति से तनिक भी न घबराएं एवं अपने साथ होने वाले किसी भी अत्याचार के खिलाफ खुलकर आवाज उठाने की हिम्मत जुटा सकें।
अभिभावकों को प्रत्येक स्तर पर विद्यार्थी के साथ खड़े रहना चाहिए। उच्च शिक्षण संस्थानो के द्वारा सत्र के आरंभ में नवप्रवेशित एवं वरिष्ठ विद्यार्थियों के लिए संयुक्त रूप से एक ऐसे कार्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिए जिसमें रैगिंग को कठोरता के साथ दंडनीय बताते हुए विद्यार्थियों में इसके परिणाम को लेकर भय की भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाए। उल्लंघन करने वाले विद्यार्थियों के खिलाफ संस्था से निष्कासन जैसे सख्त कदम उठाए जाने चाहिए। अगले स्तर की बात करें तो शासन के द्वारा ऐसे कड़े नियम बनाए जाने चाहिए जो रैगिंग में संलिप्त विद्यार्थियों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार करें। यह बात सौ फीसदी सच है कि जब तक रैगिंग करने को लेकर विद्यार्थियों में भय की भावना नहीं उत्पन्न होगी एवं रैगिंग का शिकार होने वाले विद्यार्थियों में निर्भीकता नहीं आएगी, तब तक रैगिंग जैसी घटनाएं रुकने वाली नहीं है। यह एक कटुसत्य है कि रैगिंग का सीधा सा अर्थ है– प्रतिभा का दमन एवं नाश। जब तक उच्च शिक्षण संस्थानों से रैगिंग पूर्णतया समाप्त नहीं होगी तब तक प्रतिभाओं का दमन यूं ही जारी रहेगा। प्रतिभा के नाश से कहीं बेहतर है कि रैगिंग की प्रथा का ही नाश कर दिया जाए।