अशोक मधुप
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के रहने वाले सिडनी में जा बसे विजय कुमार सिंह की पुस्तक जट्ट चल दिए एक एतिहासिक दस्तावेज है।यह पुस्तक उन जाटों के बारे में है जो अब से एक हजार साल पहले पश्चिम एशिया की और गए। वे वहां चले तो गये किंतु इतने लंबे अंतराल में इनकी पहचान तक गुम हो गई।इनके बारे में कोई जानता भी नहीं।
विजय कुमार सिंह को मैं लंबे समय से जानता हूं। वे उत्कृष्ट कवि हैं,उपन्यासकार है। उनके कविता संग्रह और उपन्यास मैंने पढ़े हैं,किंतु वह इतिहास के इतने बड़े ज्ञाता है यह पहली बार ही पता चला।
उनकी पुस्तक जट चल दिए की कहानी 623 एडी से शुरू होती है।623 एडी से 654 एडी तक राशिदून खलीफा फारस जीत कर सिंध की पश्चिम सीमा के नजदीक पहुंच गए।अरबों की फारस की इस विजय से दो सौ साल पहले से जाट सिंध से लेकर अरब प्रायदीप के पूर्वी हिस्से में बसे हुए थे। तब तक जाटों का सिंध से उत्तरी पंजाब और पूर्वी राजस्थान की ओर बढ़ना प्रारंभ नही हुआ था। सिंध ( आधुनिक बलुचिस्तान प्रांत, पाकिस्तान तब सिंध के अंर्तगत ही आता था) के ग्रामीण क्षेत्रों में उस समय जाट और खेतीहर और भैंस− भैंसे पालने पालने वाले पशुपालकों की बहुलता थी। राज्यों को सुरक्षित करने के लिए उनसे सटे तीन विशाल स्थानों को खाली छोड़ दिया गया।इन स्थान में बड़ी तादाद में शेर पैदा हो गए। अरब वाले जान गए थे कि भैंस शेरों का मुकाबला करने में सक्षम हैं।छटे उमर खलीफा अल वालिद ने इराक के गवर्नर को अल हज्जाज को भैंसे भेजने को लिखा।अल हज्जाज के आदेश पर सिंध से जाट चरवाह को इराक की राजधानी वासित आधुनिक बगदाद से सौ मील दक्षिण−पूर्व इराक की ओर रवाना कर दिया। चार हजार भैंसे और उनके पालक वासित से अल मस्सीसाह के लिए भेजे गए।शेष जाट चरवाहों को वासित से सटे जंगल में बसा दिया गया।इसके बावजूद शेरों की बढ़ती आबादी को देखते हुए अंताखिया अल मस्सिसाह मार्ग की सुरक्षा के लिए भेज गए भैंसे कम पड़ते दिखाई देने पर , और भैंसे भेजने की मांग उठी।नौवे उमर खलीफा यजीद द्वितीय द्वारा और भैंसे भेजेने को कहा गया।उसके शासन काल में चार हजार और भैंस और उनके स्वामी जाटों को भेजा गया।
सातवीं और आठवीं शतांब्दी में जाटों को तीन बार पश्चिम एशिया की ओर भेजा गया।667/670एडी में पहली बार बसरा से, 712/714 एडी में दूसरी बार सिंघ से और फिर 720/724 एडी में तीसरी बार कासकरके जंगल से इन्हें रवाना किया गया ।इन तीन बार के प्रवजन ही इस पुस्तक की विषय वस्तु हैं।
लेखक ने इन तीनों प्रव्रजन को तीन कहानियों में रूप में प्रस्तुत किया है। तीनों कहानियों में उस समय के सामाजिक सांस्कृतिक और राजनैतिक इतिहास को बताया गया है। कहानी इस तरह लिखी गई हैं कि पाठक पुस्तक से जुड़ा रहता है। अपनी जड़ों से कटकर ये जट्ट जहां गए, वहां के होकर रह गए।धीरे− धीरे इन्होंने अपनी पहचान भी खत्म कर दी।क्षेत्र के साथ ये देश −काल −परिस्थिति और स्थान के अनुरूप ढल गए। जहां पहुंचे, वही के होकर रह गए।
लेखक ने पुस्तक में जाटों के तीनों बार के प्रव्रजन मार्ग के नक्शे भी दिए हैं। इतिहास के संदर्भ दिए जाने के कारण पुस्तक इतिहास से इतर पढने वालों के लिए दुरूह हो सकती है,किंतु लेखक की कोशिश पुस्तक को रोचक बनाने की रही है। इतिहास के जानकारों और जाट इतिहास में रूचि रखने वालों के लिए पुस्तक संग्रहणीय है। पुस्तक का प्रिटिंग शानदार है।पेपर क्वालिटी बढिया है।
लेखक ने जाटों पर के इन तीनों प्रव्रजन के एक छोटी सी कविता भी टाइटिल के बाद के पेज पर दी है।–लो जट चल दिए/अब सिंध से सिलिसियस।आ कास्कर बसे हम/अरबों को खूब देखा/देखा है दुर्ग वासित, आमील भी खूब देखा।अपने न भाग में थी,उस ठौर भी मड़इया।बसरा में हम हैं छाए, हम जा बसे हैं कूफा/अहवाज में हैं मामा, कारून में हैं फूफा।कितने ही गांव अपने, अब तो हैं अलबतीहा।दजला को लांघ आए,हमने फरात देखी/तारों की आसमां में हमने बरात देखी।गाड़ी का देख अब भी, लो घूमता है पहिया। हम दुश्मनों के ऊपर , तूफान बनके छाए, हम दास्तों में खुश हों,ये जान भी लुटाएं ।धरती के लाल हम हैं, आकाश के रखईय्या।
पुस्तक का नाम− जट्ट चल दिए
लेखक −विजय विक्रम सिंह सिडनी, आस्ट्रेलिया
प्रकाशक समन्वय प्रकाशन कविनगर ,गाजियाबाद
पृष्ठ 400 , पुस्तक मूल्य 500 रूपये
समीक्षक अशाेक मधु