वो जाति वो मज़हब
किस काम का
जो सीखा ना सकें
परायों से भी अपनापन।
वो धर्म वो परंपराए
किस काम की
जो बात ना सकें
इंसान को इंसानियत।
वो अपने वो पराए
किस काम के
जो काम ना आ पाए
सही समय पर।
वो ज्ञान वो ध्यान
किस काम का
जो थाम न पाए
मनोवृत्तियों के वेग को।
राजीव डोगरा