वैश्विक लोकतंत्र और मानवाधिकार पर वैश्विक विमर्श की जरूरत

सीता राम शर्मा ” चेतन “

वर्तमान समय में विश्व का कोई भी राष्ट्र वैश्विक स्थिति-परिस्थिति अथवा बड़े घटनाक्रमों के प्रभाव से मुक्त नहीं रहता । भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में एक राष्ट्र के लिए उससे जुड़े या नहीं जुड़े एक या कुछ राष्ट्रों के बड़े घटनाक्रम उस पर पड़ने वाले अच्छे या बूरे प्रभावों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से थोड़े कम या अधिक प्रभावकारी सिद्ध हो सकते हैं पर उसका उसके परिणामों से पूर्णतः अप्रभावित रहना लगभग असंभव है । प्रकृति अथवा मानव जनित कोरोना महामारी और युक्रेन-रुस युद्ध जैसे दो वैश्विक संकटों का परिणाम प्रमाण स्वरुप हमारे सामने है । दोनो ने ही विश्व के लगभग सभी देशों की मानवीय और आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित किया है ! अतः एक राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य की बात करें या वैश्विक वर्तमान और भविष्य की, उसकी शांति, समृद्धि, विकास का प्राथमिक और मूल विमर्श वैश्विक व्यवस्था के मूल विमर्श पर ही केंद्रित होने की मांग करता है । यदि हम और हमारी दुनिया एकजुट हो वैश्विक व्यवस्था पर आवश्यक चिंतन और विमर्श करते हुए संपूर्ण विश्व और मानवता की सुरक्षा, भलाई और उसके समुचित विकास पर गंभीरतापूर्वक विचार और व्यवहार कर पाए तो निःसंदेह ना सिर्फ संपूर्ण विश्व को एक सुरक्षित, सौहार्दपूर्ण, समृद्धशाली और वैभवशाली व्यवस्था दे पाएगें अपितु ऐसा कर हम अपने संपूर्ण विश्व, वैश्विक मानवता, धरती और इसके पर्यावरण को भी एक सुरक्षित, सुनहरा और स्वर्णिम भविष्य दे सकते हैं ।

अब सवाल यह उठता है कि यदि वैश्विक समुदाय उक्त विमर्श को लेकर संगठित और सामुहिक वैश्विक विमर्श की बाध्यता को स्वीकार कर कुछ घंटों और दिनों के लिए ही सही अपने सारे मतभेद और शत्रुतापूर्ण भावों तथा नीति, नियम और कृत्यों को दरकिनार कर साथ बैठें तो उनके उस विमर्श के केंद्रीय विषय क्या होने चाहिए, जो मुख्य रुप से वैश्विक सौहार्द, शांतिपूर्ण व्यवस्था और विकास के लिए सबसे ज्यादा जरुरी हैं ? अकाट्य रुप से इसके जवाब में वैश्विक मानवता, वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था, निष्पक्ष, सैद्धांतिक और व्यवहारिक प्रभावशाली मानवाधिकार व्यवस्था और वर्तमान विश्व का सबसे बड़ा संकट बहुरुपीय आतंकवाद जैसे विषय तो विमर्श के केंद्र में आवश्यक रुप से होंगे ही । इसलिए जरुरी है कि हम समय रहते, वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र, मानवाधिकार और आतंकवाद जैसे विषयों पर वर्तमान और भविष्य की विहंगम, प्रभावशाली और सफलतादायी दृष्टि और मति से ना सिर्फ गंभीर चिंतन और विमर्श करें बल्कि उसके निष्कर्ष पर यथाशीघ्र आगे बढ़ने का हर संभव आवश्यक और सफल प्रयास भी करें । यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक रुप से करना जरुरी है कि ऐसे वैश्विक विमर्श, विमर्श के निष्कर्ष से निकले सुझाव, सुझाव के तहत बनाए जाने वाले आवश्यक नीति-नियम और नीति नियमों के प्रयासों की सफलता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा और चुनौति विश्व के गरीब, पिछड़े और अविकसित राष्ट्र नहीं, कुछ विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र ही होंगे । जो सबसे पहले तो इन जरुरी विषयों पर पुनर्विचार, पुनर्मूल्यांकन और अत्यंत जरुरी संशोधन हेतु समग्र, मानवीय, निष्पक्ष, आवश्यक और ईमानदार वैश्विक विमर्श के लिए तैयार ही नहीं होंगे और यदि हो भी गए तो निष्कर्ष और उसके क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा सिद्ध होंगे ! कैसे ? आइए, इसे समझने का आंशिक प्राथमिक प्रयास करते हैं क्योंकि पूर्ण प्रयास तो उनसे जुड़े उनके सारे राष्ट्रीय नीति नियमों, उनकी मंशागत और षड्यंत्रकारी नीतिगत कमजोरियों, त्रुटियों को गहनता से जाने बिना असंभव है ।

गौरतलब है कि वर्तमान विश्व में कोई भी लोकतांत्रिक राष्ट्र पूर्णतः लोकतांत्रिक नहीं है । ना ही दुनिया का कोई राष्ट्र मानवाधिकार की रक्षा कर पाने में समर्थ है और ना ही कोई राष्ट्र आतंकवाद से मुक्ति को लेकर पूरी तरह सजग, संवेदनशील, सक्रिय और सक्षम हो सका है । यह पढ़कर आपके साथ किसी भी व्यक्ति में आश्चर्य और असहमति का भाव तथा विचार आना स्वाभाविक है । पर अगले ही पल थोड़ा सा गंभीर चिंतन और मंथन आपमें स्वतः इस स्वीकृति की सहमति भर देगा कि यह शत-प्रतिशत सच है । वास्तव में लोकतंत्र, मानवाधिकार और आतंकवाद को लेकर जो व्याप्त वैश्विक त्रुटियां, कमियां और कमजोरियां हैं वह इनके प्रति विश्व की सामुहिक चेतना, निर्भीकता और प्रतिबद्धता की कमियों का परिणाम है । आगे बढ़ने से पहले यह जानना समझना आवश्यक है कि आखिर क्यों वर्तमान विश्व में कोई भी लोकतांत्रिक राष्ट्र पूर्ण रूपेण लोकतांत्रिक नहीं है ? क्यों कोई भी राष्ट्र मानवाधिकार की रक्षा कर पाने में असमर्थ है ? और क्यों कोई भी राष्ट्र आतंकवाद से मुक्ति में पूरी तरह खुद को सक्षम नहीं कह सकता है ? इन ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर में बहुत संक्षिप्त में कहा जाए तो वर्तमान विश्व में सबसे पहले लोकतंत्र और लोकतांत्रिक होने की परिभाषा को उस बड़े सुुुधार के साथ पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है जो लोकतंत्र को वैश्विक सुरक्षा, समुचित, समावेशी, सर्वांगीण विकास की ऐसी शत-प्रतिशत त्रुटिहीन मानवीय व्यवस्था के रूप में परिभाषित और विकसित करे जो ना सिर्फ इसकी वैश्विक स्वीकार्यता के लिए पूर्णतः उचित हो अपितु मानवीय, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संवैधानिक व्यवस्थाओं के लिए बाध्यकारी भी हो । बाध्यकारी इसलिए कि जैसे किसी सभ्य परिवार, समाज और राष्ट्र में सबके लिए एक समान नीति-नियम और अधिकार होते हैं, ठीक वैसे ही संपूर्ण विश्व में भी सबके लिए एक समान नीति-नियम और कानून का होना आवश्यक है । वैश्विक लोकतंत्र का अर्थ वैश्विक अर्थात पूरे विश्व के लिए होता है । वैश्विक लोकतंत्र ऐसा हो जो उत्कृष्टता के आधार पर शून्य रुप से त्रुटिहीन और सौ प्रतिशत उचित हो । एक महत्वपूर्ण बात यह कि प्रत्येक राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था और वहां के संविधान में राष्ट्रीय व्यवस्था के कर्तव्यों और मानवीय अधिकारों और दोनों के ( लोक तथा तंत्र के ) दायित्वों तथा उनके द्वारा किए जाने वाले अपराधों के लिए दंड व्यवस्था में किसी भी तरह का कोई भेद और अत्यधिक सख्ती या आंशिक नरमी का कोई प्रावधान ना हो । अत्यंत कमजोर, पिछड़े, शोषित तथा प्राकृतिक रुप से अविकसित, मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग मनुष्यों के लिए उनके विकास हेतु अधिक सहयोग और सुविधा का वैश्विक लोकतंत्र में लचीला ( क्षमतानुसार सहयोग का ) प्रावधान होना चाहिए पर उसके तहत किसी भी राष्ट्र में उनके द्वारा किए गए अपराध पर दिए जाने वाली दंड व्यवस्था में कोई असमानता ना हो और ना ही उसमें अंश मात्र भी छूट का कोई प्रावधान हो । वैश्विक लोकतंत्र पर चर्चा करते हुए विश्व भर के सभी राष्ट्रों में एक समान लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संविधान और उसकी वैश्विक बाध्यता की बात इसलिए कि तेजी से बदलते विश्व अर्थात भूमंडलीकरण के इस दौर में अब विश्व सचमुच एक परिवार और समाज बन चुका है ।

लगभग पूरे विश्व में शिक्षा और ज्ञान के प्रचार-प्रसार और विस्तार ने मनुष्य जाति को जाति-धर्म, रंग-रूप, उंच-निच, अमीर-गरीब और छुआछूत जैसी अमानवीय भावनाओं और रीति-रिवाजों से उपर उठा दिया है । अतः भेदभाव की अज्ञानता से मुक्त होते वैश्विक समुदाय के लिए अब एक समान लोकतांत्रिक व्यवस्था होनी चाहिए । जो अभी नहीं है । जिसका लाभ कई राष्ट्र के देशी-विदेशी अपराधी नागरिक उठाते हैं । साधारण अपराध से लेकर बड़े आर्थिक अपराध और आतंकवाद की घटनाओं में लिप्त अपराधियों और आतंकवादियों तक को वैश्विक संरक्षण दिए जाने के घोर अमानवीय, निंदनीय और अक्षम्य अपराध आज कई देश अपने महान लोकतांत्रिक राष्ट्रीय व्यवस्था की आड़ में बड़ी नैतिक जिम्मेवारी के पापी आवरण के साथ कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय तथा वैश्विक व्यवस्था की जिम्मेवार संस्थाएं उस पर चुप हैं !! परिणामस्वरूप अपने भिन्न लोकतांत्रिक नियम कानूनों की आड़ में या उसका लाभ उठाकर दूसरे राष्ट्र पहले अपने स्वार्थ या शत्रुता को साधने के लिए वहां सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अपराध करवाते हैं और फिर जब कभी उसके अपराध सामने आते हैं तब उसे अपनी लोकतांत्रिक, संवैधानिक भिन्नता का लाभ उठाकर उसे संरक्षण देने का अपराध करते, करवाते हैं । गौरतलब है कि इस वैश्विक लोकतांत्रिक भिन्नता का या सच कहें तो वैश्विक लोकतांत्रिक अपराध का लाभ उठाकर आज भारत के कई आर्थिक अपराधी पश्चिमी देशों के सम्मानित शरणार्थी नागरिक बने हुए हैं तो कई देशी-विदेशी खुंखार आतंकवादी, अपराधी हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और कनाडा जैसे देशों में पूरे सरकारी संरक्षण में वैभवशाली जीवन जी रहे हैं ! अमेरिका में आतंकवाद का कहर बरपाने वाले लादेन को वर्षों तक अपने सैन्य क्षेत्र में संरक्षण देने का काम पाकिस्तान ने किस तरह किया था यह अब जगजाहिर सत्य है । आश्चर्य की बात है कि ये तमाम घोर अमानवीय अक्षम्य वैश्विक अपराध विकसित होती इक्कीसवीं सदीं के विश्व में पूरी नैतिकता के साथ वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था की आड़ में हो रहे हैं !

यह त्रुटिपूर्ण वैश्विक लोकतांत्रिक भिन्नता का परिणाम है । जो अकाट्य रुप से वास्तव में घोर अमानवीय, अक्षम्य वैश्विक अपराध है । यह सच सभी लोकतांत्रिक राष्ट्र जानते हैं, पर चुप हैं या फिर विवश हैं ! इस चुप्पी और विवशता का अंत अब होना चाहिए । अब बात कई राष्ट्रों में लोकतंत्र की भिन्नता और अस्वीकार्यता के साथ किसी भी राष्ट्र के पूर्ण रूपेण लोकतांत्रिक नहीं होने की, तो इसके लिए यहां इस तथ्य और सत्य को समझना जरुरी है कि एक पूर्ण रूपेण सफल और समृद्ध लोकतंत्र उसे कहा जा सकता है, जिसके हर एक नागरिक के पास समान रुप से उसके अपने शांतिपूर्ण जीवन को जीने के स्वतंत्र और व्यवधान मुक्त अधिकार और उसके योग्य सामाजिक तथा राष्ट्रीय न्यायिक व्यवस्था हो । उसके शिक्षित संस्कारित और कर्तव्यनिष्ठ मानवीय जीवन में ना कोई संवैधानिक नियम कानून बाधा बने और ना ही उसे किसी असभ्य, अपराधी व्यक्ति अथवा बिरादरी से कोई संकट हो । ऐसे तमाम विघ्न और संकटों से पूर्णतः मुक्ति का अधिकार और दायित्व राष्ट्रीय व्यवस्था का हो ! वह राष्ट्रीय व्यवस्था अपने यहां रहते सभी नागरिकों को ऐसा जीवन सुलभ कराए । गौरतलब है कि वर्तमान समय में किसी भी राष्ट्र की व्यवस्था अथवा उसके आम नागरिकों की शांति, संपत्ती और जीवन की सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा संकट कुछ राष्ट्रों के द्वारा बनाए गए त्रुटिपूर्ण, त्रासद मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नियम कानून हैं । कुछ स्वार्थी और षड्यंत्रकारी लोगों और समूहों के द्वारा आए दिन मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इन विसंगतिपूर्ण नियम कानूनों की आड़ में बहुतायत लोगों की शांति भंग करने के साथ उनकी संपत्ति और उनके जीवन तक को संकटग्रस्त कर दिया जाता है । मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या फिर लोकतंत्र के नाम पर किसी भी उचित या अनुचित मांग के लिए, न्याय और अन्याय के पक्ष या विरोध में एकाकी या सामुहिक जीवन और व्यवस्था के विरुद्ध उग्र, हिंसक विरोध करना और देश विरोधी वक्तव्य देना, षड्यंत्र रचना सर्वथा गलत और कठोर दंडनीय अपराध है और होना चाहिए । जिसे ना तो मानवाधिकार के नाम पर सहन किया जा सकता है और ना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर । अतः इसमें त्वरित सुधार होना ही चाहिए ।

वर्तमान विश्व में कुछ शक्तिशाली राष्ट्रों ने एक षड्यंत्र के तहत लोकतंत्र का अभिप्राय किसी राष्ट्र में उसके प्रत्येक नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार की आधी-अधूरी त्रुटिपूर्ण परिभाषा को प्रचलित कर इसे अपनी वैश्विक ताकत और दादागिरी के साथ किसी भी राष्ट्र में पूर्णतः अवैध हस्तक्षेप का औजार बना लिया है । जो ना सिर्फ गलत है बल्कि वैश्विक मानवीय और व्यवस्थागत दृष्टिकोण से असहनीय दंडनीय अपराध भी है । इसे वर्तमान विश्व अर्थात विश्व के हर एक राष्ट्र को हर हाल में जानने समझने की जरूरत है । लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ और उसकी वैश्विक संक्षिप्त परिभाषा एक ही होनी चाहिए – ” किसी भी राष्ट्र में उसके संविधान और व्यवस्था के द्वारा उसके हर एक नागरिक को जीवन और सुरक्षा, सत्ता, शासन, न्याय तथा विकास के बाधा मुक्त समान अधिकार देकर कानून का राज स्थापित करना लोकतंत्र है ” । दुर्भाग्य से विश्व के कुछ शक्तिशाली राष्ट्रों ने एक षड्यंत्र के तहत लोकतंत्र की मूल परिभाषा को विसंगतिपूर्ण बनाते हुए उसे अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के नियमों पर ज्यादा केंद्रित कर दिया है । जिस पर वे अक्सर पाखंड करते और शोर मचाते रहते हैं । यहां यह जानना समझना बाध्यता के साथ आवश्यक है और होना चाहिए कि किसी भी मनुष्य के मानवाधिकार की रक्षा या उसके नागरिक अधिकार के लिए किसी भी कीमत पर किसी दूसरे मनुष्य के मानवाधिकार और उसकी व्यवस्था को नष्ट अथवा संकटग्रस्त नहीं किया जा सकता और ना ही किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उसे अपने या किसी दूसरे व्यक्ति, समूह या राष्ट्र की अस्मिता के विरुद्ध कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी सकती है !

त्रुटिपूर्ण नियम और सिद्धांत ना सिर्फ लोकतांत्रिक राष्ट्र की राह में सबसे बड़े बाधक और संकट हैं बल्कि ये मानवाधिकार की रक्षा और आतंकवाद से पूर्ण मुक्ति की राह के भी सबसे बड़े रोड़े हैं । जो इस तथ्य और तर्क से असहमत हों और इसके विरोध में कुतर्क गढ़ने अथवा देने की षड्यंत्रकारी और घोर अमानवीय चतुराई, धृष्टता और दुषप्रवृति से ग्रसित हों, क्या वे बता सकते हैं कि क्या किसी राष्ट्र में जन्म लेने, उसकी सारी व्यवस्थागत सुख सुविधाओं को भोगने वाले लोगों का यह लोकतांत्रिक अधिकार होना चाहिए कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक अधिकारों के बूते कहीं भी अपने राष्ट्र, राष्ट्रीय व्यवस्था अथवा राष्ट्र के लोगों और उनके धर्म, धार्मिक मान्यताओं, सभ्यता संस्कृति के खिलाफ कोई भी अमर्यादित, भड़काऊ और निंदनीय शब्दों अथवा भाषा का प्रयोग करें ? क्या मात्र मानवीय शरीर होने के कारण ही आचरण से असमाजिक, अपराधी, देश विरोधी और दानव तक बन चुके किसी व्यक्ति को भी मानवाधिकार का अधिकारी माना जा सकता है ? उसे सामाजिक और राष्ट्रीय व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का अधिकार दिया जा सकता है ? उसे यह मानवाधिकार दिया जा सकता है कि वह निर्दोष मनुष्यों की हत्या कर दे ? किसी भी मासूम बच्ची या महिला के साथ दुष्कर्म कर दे ? उसके साथ कोई भी अमानवीय अत्याचार, अपराध करे ? जवाब बिल्कुल स्पष्ट है – नहीं । ऐसा व्यक्ति ना सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार का अपराधी है बल्कि ऐसे अपराधी को सजा देते समय उसके मानवाधिकार पर कोई विचार करना भी घोर अन्याय और अपराध है ।

अब सवाल यह उठता है कि इन वैश्विक कमियों, विसंगतियों, बुराईयों और षड्यंत्रों के प्रति वैश्विक चेतना, निर्भीकता और प्रतिबद्धता का पूर्ण प्रभावी विकास हो तो आखिर कैसे हो ? जवाब अत्यंत सरल और स्पष्ट है – इसके लिए एक पूर्ण लोकतांत्रिक नियामक न्यायिक नियंत्रक सशक्त वैश्विक संस्थान का होना जरुरी है, बजाय हर मुद्दे पर किसी एक या दो-चार राष्ट्रों द्वारा दी जाने वाली अनाधिकार प्रतिक्रिया और उस पर नीजि स्वार्थ साधने वाली उनकी स्वनिर्मित, पोषित कुछ संस्थाओं के द्वारा उनके विरुद्ध विश्लेषण जारी कर करवाकर उस पर कार्रवाई करने कराने और उन्हें दोषी बता उनकी प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता और विकास के विरुद्ध संकट खड़े करने की । वास्तव में विश्व के किसी भी राष्ट्र में हो रहे अनैतिक, अमानवीय, असंवैधानिक, हिंसक, आतंकवादी या फिर वैश्विक नियम कानून की अवहेलना पर बोलने, प्रतिक्रिया देने या फिर अंतिम बाध्यता के रुप में कुछ ठोस कार्रवाई करने का अधिकार या तो स्वंय पीड़ित उस राष्ट्र का है या फिर उसकी उन गतिविधियों से पीड़ित राष्ट्र और वैश्विक संस्थान को । पर हो बिल्कुल उलट रहा है । कुछ राष्ट्र खुद को वैश्विक सुरक्षा और उसकी व्यवस्था को सिर्फ और सिर्फ अपने नीजि स्वार्थों के हिसाब से अपनी दादागिरी से संचालित करने के आदी बन बैठे हैं, जो सरासर गलत और वैश्विक दृष्टिकोण से घोर निंदनीय अपराध भी है । दुर्भाग्य से वैश्विक व्यवस्था को संचालित करने वाली किसी समर्थ, सशक्त और प्रभावशाली संस्था के अभाव में लंबे समय से ऐसा होता आ रहा है । जिससे गरीब, अभावग्रस्त, पीड़ित, पिछड़े और विकासशील राष्ट्र तक विवशतापूर्ण स्थिति में हैं । इसका एकमात्र समाधान वैश्विक एकजुटता के साथ एक सशक्त वैश्विक लोकतांत्रिक संविधान और उसके नियंत्रक संस्थान का निर्माण ही है । इसके लिए वैश्विक समुदाय को अब एकजुट होने की जरूरत है । भारत को वैश्विक भलाई और विकास के लिए इस दिशा में आगे बढ़कर इस मुहिम की अगुवाई करनी चाहिए ।