जितनी आबादी उतना हक -राहुल अपनी ही पार्टी से शुरुआत क्यों नहीं करते?

अनु जैन रोहतगी

जितनी आबादी उतना हक , राहुल गांधी की यह राजनीति क्या सचमुच उनकी और
कांग्रेस आलाकमान की वास्तविक सोच है या फिर सत्ता में वापस आने के लिए
देश को जाती के आधार पर बांटकर वोट पाने की एक बड़ी चाल। एक बड़ा प्रश्न
है और कुछ बातों पर गौर करें तो साफ लगता है कि राहुल गांघी का यह जुमला
देश में होने वाले पांच चुनावों और 2024 में लोकसभा चुनावों में ज्यादा
से ज्यादा सीट लाने की एक सोची -समझी राजनीतिक चाल है।

हाल ही में कांग्रेस ने टिकट बंटवारे की कवायद शुरू कर दी है और अगर अनकी
लिस्ट में उम्मीदवारों के नाम देखे जाएँ तो ना ही उनमें अति पिछड़े वर्ग
ना ही दलित और ना ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व है। अगर राहुल जितनी आबादी
उतने हक की बात करते हैं तो देश में आधी आबादी महिलाओं की है, पिछड़ा
वर्ग भी ज्यादा है तो राहुल ने अभी से उम्मीदवारों की घोषणा करते समय
इनका ध्यान क्यों नहीं रखा। मतलब साफ है खाने के दांत ओर हैं और दिखाने
के ओर ।

यहां यह भी सोचने वाली बात है कि क्या राहुल कांग्रेस के पूर्व नेताओं और
अपने ही पिता , दादी, परदादा के विचारों के विपरीत जाकर राजनति करेंगे।
क्योंकि पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांघी सभी ने अपने
समय में जातीवाद का विरोध किया था। नेहरू ने तो कहा था कि जब हम जाती की
बात करते हैं तो कहीं ना कहीं योगयता को पीछे छोड़ देते हैं। इंदिरा
गांधी तक मानती थी कि हमारे देश से जाती शब्द बाहर होना चाहिए , यह हमारी
कमजोरी है जो हमें पीछे की ओर ले जा रही है। यही नहीं संसद में मंडल
कमीशन की रिपोर्ट का विरोध करते हुए राजीव गांघी ने यह तक कह दिया था कि
यह तो अंग्रेजों की तरह देश को विभाजित कर राज करने की राजनीति है।

इन सब के बीच राहुल जातीवाद को हवा दे रहे हैं तो मकसद साफ लगता है कि
सत्ता में वापसी का उनके हाथ एक दमदार हथियार लग गया है क्योंकि देश में
आज भी नेतागण जाती , धर्म , वर्ग के आधार पर वोटों का विभाजन कर बड़ी
आसानी से अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

वैसे दूसरों को समानता का पाठ पढ़ाने वाले राहुल अपनी पार्टी में ही झांक
लें , जहां कांग्रेस कार्यसमिति समिति पार्टी में पूर्णकालिक सदस्यों की
संख्या 39 है जिसमें केवल दो दलित और एक मुसलमान हैं बाकी सब सवर्ण जाती
से ही हैं। राज्यों में भी लगभग यही हाल दिखने को मिलता है। जहां
सत्तर प्रतिशत से ज्यादा पार्टी प्रमुख उच्च जाति से हैं। ऐसी ही स्थिति
संसदीय और विधान मंडल दलों की भी है। फिर देश के लोग कांग्रेस के दलित
नेता सीताराम केसरी का अपमान नहीं भुला सकते हैं , सोनिया गांधी को
अध्यक्ष बनाने के लिए कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने केसरी पर अध्यक्ष पद
छोड़ने के लिए जबरदस्त दबाव डाला था, उनका बुरी तरह से अपमान किया था।

और जानकार मानते हैं कि जितनी आबादी उतना हक का जो नारा राहुल ने दिया
है उसपर राजनीति में अमल करना इतना आसान नहीं होगा । अभी से ही पार्टी
के भीतर ही इसके खिलाफ दबे स्वर में आवाज उठनी शुरू हो गई है। ये आवाजें
हैं पार्टी में दशकों से विराजमान स्वर्ण वर्ग से ताल्लुक रखते कांग्रेस
ने बड़े बड़े नेताओं की। राहुल की राजनीति उन्हें रास नहीं आ रही है
क्योंकि इससे उनका सता में काबिज रहने का सपना तार-तार हो सकता है।
फिलहाल तो कांग्रेस में ज्यादा फेरबदल दिख नहीं रहा लेकिन हो सकता हैं
2024 के चुनावों से पहले कांग्रेस वोटों के चक्कर में स्वर्ण नेताओं के
टिकट काटकर दलितों, महिलाओं को देती है तो ऐसे में कांग्रेस में ही
विभाजन होने का खतरा बढ़ सकता है।

इसलिए जब राहुल पिछड़ों, दलितों को समान अधिकार देने की बात करते हैं जो
बहुत ज्यादा हास्पपद लगता है। राहुल जातीगत राजनीती के बल पर जितना उछल
रहें हैं ये डगर इतनी आसान नहीं है। देश की जनता कांग्रेस के नेताओं और
कांग्रेस में दशकों से स्वर्ण नेताओं के वर्चस्व को पहचानती है और साथ
ही राहुल को अपने इस नारे से अपनी ही पार्टी के बहुत से दिग्गज नेताओं की
नाराजगी भी मिल सकती है। अब देखना यही है कि अचानक दलित, पिछड़े वर्ग के
हिमायती बने राहुल अपनी इस राजनीति से देश की जनता के साथ साथ अपनी
पार्टी के नेताओं को कैसे प्रभावित करते हैं। राहुल का नारा कांग्रेस के
वोट बैंक बढ़ाता है या कम करता है ये तो बहुत जल्द यानी 3 दिसंबर को
पता चल जाएगा, जब बेल्ट बोक्स का ढक्कन खुनेगा। वाला समय तय कर देगा।