सुनील सक्सेना
किंशुक गुप्ता की कहानी “मछली के कांटें” हंस पत्रिका में मैंने पढ़ी थी । दो समलैंगिक दोस्तों की कहानी थी । बोले तो “गे” मित्रों के भावनात्मक और यौन संबंधों की दास्तान । कहानी का विषय थोड़ा हट कर और अलग मिजाज का था, तो आप इसे “बोल्ड” कह सकते हैं । वैसे आजकल “बोल्ड सबजेक्ट” जैसा कुछ बचा नहीं है । इन दिनों आसपास जो भी रचा-बसा है, घटित हो रहा है, सब कुछ बोल्ड ही है । वेबसीरिज में गालियां, अंतरंग हॉट सीन, हीरो की टॉपलेस सिक्स पैक बॉडी, नायिकाओं की बदन उघाड़ू पोशाकें । लिवइन रिलेशनशिप । जरूरत से ज्यादा आचार-विचार में खुलेपन ने “बोल्ड” शब्द की गर्माहट को खत्म कर दिया है । एक समय था जब परिवारों में क्या लड़के क्या लड़की, हरेक को थोड़ा “बोल्ड” बनो नहीं तो “दब्बू” ही रह जाओगे, के जुमले सुनने को मिलते थे । बोल्ड एंड ब्यूटिफुल, बोल्ड एंड डेशिंग कॉम्बीनेशन वाली पर्सनाल्टीज महफिलों का आकर्षण होती थीं । “बोल्डनेस” के अतिरेक ने हमको भटका दिया है ।
लेखन में लीक से हटकर विषयों का चुनाव करना, उन पर लिखना और फिर ऐसा लिखना कि पाठक उसे पढ़ते वक्त पूरे समय बंधा रहे, लेखक के लिए तो चुनौती है ही, पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों के लिए भी ऐसी रचनाओं को छापना बड़े कलेजे का काम है । किंशुक के इस कहानी संग्रह “ये दिल है कि चोर दरवाज़ा” में आठ कहानियां हैं । समलैंगिक संबंध, यौन उत्पीड़न , बाल यौन शोषण, आध्यात्म के नाम पर नारी का शोषण जैसे अलहदा पृष्ठभूमि पर लिखीं उनकी ये कहानियां देश की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में शाया हुई हैं । इनकी चर्चा भी खूब हुई । देखते ही देखते भीड़ से अलग किंशुक की इन कहानियों जबरदस्त धूम मचा दी । साहित्य के क्षेत्र में वे उभरते सितारे बन गए । सेमीनार, लिटरेचर फेस्टीवल, पॉडकास्ट, सोशल मीडिया हर जगह किंशुक छा गए । उनकी कहानियों का संकलन किताबों के बाजार में “हॉट केक” की तरह हाथों हाथ लिया गया ।
हमारा भारतीय समाज पुरूष और स्त्री यानी विपरीत लिंगों के प्रेम को ही मान्यता देता है । आदमी और औरत के बीच प्रेम संबंधों के इतर अन्य सारे संबंध वर्जित हैं । समाज की दृष्टि में ऐसी दोस्ती, प्यार, रिश्ते अपराध हैं । अवैध है । किंशुक अपनी कहानियों में समलैंगिकता को पूरी विश्वसनियता के साथ जैविक यौन प्रवृत्ति के रूप में स्थापित करते हुए दिखते हैं ।
“बीमार जुगनुओं की शाम” कहानी में मध्यम वर्गीय परिवार का युवा बेरोजगार सोमिल है । वो फिल्म राइटर बनना चाहता है । पिता की दोनों किडनियां खराब हैं । किडनी ट्रांसप्लांट खर्चीला है । आर्थिक हालत बदतर है । एक फिल्म प्रोडयूसर उसकी कहानी पर फिल्म बनाने को तैयार हो जाता है । लेकिन “वाइकेरियस प्लेजर” का शौकीन गैर मर्दों में रूचि रखने वाला फिल्म प्रोड्यूसर सोमिल को अपनी न्यूड फोटो भेजने के लिए कहता है । किंशुक समाज में विचर रहे ऐसे विद्रुप चरित्रों को ढूंढकर खोजकर अपनी कहानियों में लाते हैं ।
“तितलियों की तलाश में” शीर्षक की ये कहानी बाल यौन शोषण पर है । बच्चे को चॉकलेट का लालच देकर उसके साथ दैहिक संबंध बनाना, बच्चे की मानसिक स्थिति को इस स्तर पर ले जाता है कि कोई भी उसे चॉकलेट देता है तो वो अपना पेंट उतार देता है । इस ट्रॉमा से बच्चा गुजरता है । मां परेशान होती है । संदेह की सुइयां घर में काम करने वाली बाई, झूलाघर का स्टाफ, स्कूल के बस ड्राइवर पर घूमती हुई अंत में बच्चे के पिता पर आकर टिकती है । ये कहानी का चौंकानेवाला क्लाइमेक्स है । हमारे आसपास, हमारे नजदीकी जो यौन विकृतियों से ग्रस्त होते हैं, मौजूद रहते हैं लेकिन हम उन्हें पहचान नहीं पाते । बच्चों के साथ भावनात्मक यौनिक दुर्व्यवहार की ये कहानी पाठक को अंदर तक हिला देती है । झकझोर देती है ।
लेस्बियन रिश्तों की कहानी है “रहस्यों के खुरदरे पठार” । गौरी का अपनी सहेली शालिनी के प्रति आकर्षण गौरी के परिवार से अलगाव की वजह बन जाता है । गौरी परिवार से कट जाती है । गौरी अच्छे पद पर बढि़या कमाने वाली स्त्री है । वो परिवार की आर्थिक मदद के साथ मॉरल सपोर्ट भी करती है । लेकिन उसकी ये सारी अच्छाइयां व्यर्थ हो जाती हैं, उसके समलैंगिक रिश्ते के कारण । मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि समलैंगिक रिश्तों के पनपने की एक महत्वपूर्ण वजह है अपने ही परिवार में, अपने ही विपरीत लिंगियों से प्रेम का न मिलना । फलस्वरूप व्यक्ति सम लिंगी की ओर आकर्षित हो जाता है ।
कोरोना त्रासदी के दौरान छीजते मानवीय रिश्तों की कहानी है “मिसेज रायजादा की करोना डायरी” । ये कहानी डायरी की शक्ल में लिखी गई है । धनाड्य घराने की कोरोना से पीडि़त मिसेज रायजादा अस्पताल में भर्ती हैं । बेटा सार्थक है जो अपने दोस्त जैकब के साथ दस साल से रिलेशनशिप में है । कोरोना संक्रमण के खौफ से आक्रांत मिसेज रायजादा का पति उनकी कोई खोज खबर नहीं लेता है । मिसेज रायजादा का एक मात्र संबंल है, अस्पताल का डॉक्टर शिवेश जो उनकी तीमारदारी में नियुक्त है । शिवेश से वो अपना सुख-दुख अस्पताल में बांटती है । किंशुक सचेत जागरूक रचनाकार हैं । उनकी नजर समाज के उन गोशों में सहजता से पहुंच जाती है जहां अमूमन कोई झांकने की सोचता भी नहीं है ।
ये कहानियां समलैंगिता को अपराध, बीमारी या विकार मानकर खारिज कर देने वाले लोगों को अपनी सोच पर पुनर्विचार करने को प्रेरित करती हैं । समाज से बहिष्कृत-तिरस्कृत इनकी पीड़ा, इनकी आवाज को आखिर कौन सुनेगा ? हम कब तक अपने ही खून के रिश्तों से गुरेज करते रहेंगे । इन्हें भी समाज में गरिमापूर्ण जीवन जीने का हक है । समलैंगिकता बीमारी नहीं जीवन की सच्चाई है जिसे हमें स्वीकार करना होगा । समाज को उन परिवारों के प्रति संवेदनशील होकर सोचना होगा जिनके अपने ही ऐसे रिश्तों में रह रहे हैं । “गे” या “लेस्बियन” रिश्तों को पाप मान कर उन्हें अकेला छोड़ देना इस समस्या का समाधान नहीं है । किंशुक की इन कहानियों में समाज को अपना रवैया बदलने की सार्थक पहल नजर आती है ।
कहानियों में आज की जनरेशन की बोलचाल की भाषा है, शब्दावली है, प्रसंगों का समावेश है । किंशुक की कल्पनाशीलता, प्रयोगशीलता, समृद्ध और पानीदार प्रवाहमय भाषा, संग्रह की हर कहानी को पठनीय बना देती है । पाठक चमत्कृत हो जाता है । किंशुक पेशे से डॉक्टर हैं । उनकी प्राय: हर कहानी में कहीं न कहीं अस्पताल मौजूद है । बीमारियां हैं । मेडिकल टर्मीनालॉजी का वे बखूबी इस्तेमाल करते हैं । हॉस्पिटल के दृश्यों की डिटेलिंग इतनी बारीकी से करते हैं कि आंखों के सामने एक-एक चीज सजीव हो उठती है । कहानी के विस्तार में उनके डॉक्टर प्रोफेशन की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है । इसका वे भरपूर एडवांटेज अपनी सृजनात्मकता में उठाते हैं ।
इन कहानियों की सबसे अहम और प्रशंसनीय बात ये है कि समलैंगिकता, यौनिकता के इर्दगिर्द ये रची गई हैं, पर कहीं भी अश्लील, सनसनी पैदा करने वाली या उत्तेजना जगाने वाली, सेड्यूसिव नहीं लगती हैं । किंशुक अपनी बात गंभीरता, शालीनता और मार्यादा के भीतर रहकर कहने का हुनर जानते हैं । बस डर है तो एक चीज का कि किंशुक की ये कहानियां एक ही “जॉनर” की हैं । उन्हें “टाइप कास्ट” होने से बचना होगा, कुछ अलग सबजेक्ट पर कहानियां लिखकर । “समथिंग डिफरेंट” की चाह रखने वाले पाठकों को किंशुक गुप्ता का ये कहानी संग्रह निराश नहीं करेगा ।
- पुस्तक – ये दिल है कि चोर दरवाज़ा
- (कहानी संग्रह)
- लेखिक – किंशुक गुप्ता
- प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
- मूल्य – रू 399/-