संजय सक्सेना
लोकसभा चुनाव के लिए जातीय जनगणना और ओबीसी वोटर एक-दूसरे के पूरक बन गये है.एक तरफ गैर बीजेपी दल ओबीसी वोटरों को रिझाने के लिए जातीय जनगणना कराये जाने के लिए मोदी सरकार पर दबाव डाल रहे हैं,वहीं इसकी काट के लिए बीजेपी ओबीसी नेताओं की अपने वहां फौज खड़ी करने में लगी है.अब तो बीजेपी के चाणक्य और गृह मंत्री अमित शाह ने भी कह दिया है कि उन्हें जातीय जनगणना कराये जाने से कोई परेशानी नहीं है,लेकिन वह इस पर सियासत के खिलाफ हैं.पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव से पूर्व अमित शाह का उक्त बयान सियासी मोर्चे पर विपक्ष की काट के तौर पर देखा जा रहा है.जातीय जनगणना पर पॉजिटिव रूख अख्तियार करने के साथ बीजेपी पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की मौजूदगी में पिछड़े वर्ग के चेहरों के साथ पिछड़ों को साधने के उपायों पर मंथन भी कर रहे हैं.इसी क्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष के साथ चर्चा में तय किया गया कि 2024 के लोकसभा चुनाव में 2019 के मुकाबले पिछड़ों को टिकट में ज्यादा भागीदारी दी जाएगी. 2019 में बीजेपी ने 28 ओबीसी प्रत्याशी उतारे थे.अबकी यह आकड़ा 35 तक पहुंच सकता है.इससे पार्टी को तो फायदा होगा ही इसके अलावा अन्य पार्टियों पर भी दबाव बनेगा कि वह भी अधिक से अधिक ओबीसी प्रत्याशियों को मैदान में उतारें.
बीजेपी आलाकमान ने तय किया गया कि 2019 के लोकसभा चुनाव की तरह 2024 के आम चुनावों में भी प्रत्येक जिले में पिछड़ों की अलग-अलग जातियों के सम्मेलन किए जाएंगे. यूपी में पिछड़ों के महाकुंभ भी कराये जायेगें. यह सम्मेलन दीपावली के बाद से शुरू होंगे. इसके बाद पिछड़े वर्ग की अलग-अलग रैलियां भी होंगी. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि बिछले दिनों बीजेपी की बैठक में पिछड़ों की भागीदारी को लेकर चिंता जताई गई थी. फिर अलग-अलग राज्यों से इसकी काट खोजने पर बात हुई थी. सूत्र बताते हैं यूपी में प्रदेश स्तर पर पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए जल्द बड़ा अभियान चलाया जाएगा. इसके लिए प्रदेश स्तर पर कोर कमिटी बनाई जाएंगी. कमेटी बीजेपी की ओर से करवाए जा रहे सर्वे के हिसाब से तय करेगी कि किस लोकसभा में किस पिछड़ी जाति के चेहरे को चुनाव लड़वाया जा सकता है.जहां जिस जाति के लोगों की बहुलता होगी, वहां उसके चेहरे को प्रत्याशी बनाया जा सकता है.इसके लिए पिछले चुनावों के आंकड़ों को परखा जाएगा, फिर तीन नाम छांटकर केंद्रीय चुनाव समिति को भेजे जाएंगे.
बहराल,चिंताजनक बात यह है कि कांग्रेस पर कास्ट सेंसस के बहाने ’बांटो और राज करो’ की राजनीति करने का आरोप लगाने वाली बीजेपी अब खुद कहने के लिए मजबूर हुई है कि वह कभी भी कास्ट सेंसस के विरोध में नहीं रही. छत्तीसगढ़ के लिए पार्टी के मैनिफेस्टो को जारी करने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि बीजेपी ने कभी भी जातिगत जनगणना के विचार का विरोध नहीं किया लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि पार्टी जल्दबाजी में कोई फैसला करे. इस पर बहुत सोच समझकर फैसला लिया जाएगा।जातिगत जनणना की वकालत करने लगी बीजेपी की मजबूरी यह है कि कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ के लिए जिन 17 गारंटियों का चुनावी वादा किया है, उसमें कास्ट सेंसस कराना भी शामिल है.इसीलिये बीजेपी ने जातिगत जनगणना के पक्ष में बयान देकर बढ़त बनाने की कोशिश की है.
खैर,इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जाति भारतीय राजनीति की कड़वी हकीकत है. कई क्षेत्रीय दलों का तो वजूद ही सिर्फ जाति की राजनीति पर टिका है. जातियों में सबसे बड़ा शेयर ओबीसी का है. यही वजह है कि ओबीसी वोट 2024 के लिए काफी अहम हैं.हर राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा ओबीसी वोट को अपने पाले में खींचने की जुगत में हैं क्योंकि ये उनके लिए सत्ता की सीढ़ी का काम कर सकती हैं. देश की कुल आबादी में करीब आधा तो सिर्फ ओबीसी हैं। नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (छैैव्) के मुताबिक, देश की कुल आबादी में ओबीसी की हिस्सेदारी 42 प्रतिशत है और मंडल कमिशन के मुताबिक ये आंकड़ा 52 प्रतिशत है। यह आंकड़ा ही ये बताने के लिए काफी है कि राजनीतिक दलों में ओबीसी को लुभाने की होड़ क्यों मची रहती है।
बीजेपी की नजर केंद्र की सत्ता में हैटट्रिक लगाने पर है। आंकड़े गवाह हैं कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसकी प्रचंड जीत की कुंजी कहीं न कहीं ओबीसी वोट के हाथ में थी। सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के मुताबिक, 1996 में बीजेपी को महज 19 प्रतिशत ओबीसी वोट मिले थे लेकिन 2014 में यह बढ़कर 34 प्रतिशत और 2019 में तो 44 प्रतिशत पर जा पहुंचा। पिछड़ा वर्ग पर कभी कांग्रेस की मजबूत पकड़ हुआ करती थी, लेकिन मंडल-कमंडल की राजनीति ने उसकी पकड़ को बेहद कमजोर कर दिया. 2014 और 2019 में कांग्रेस को महज 15 प्रतिशत ओबीसी वोट मिलेत्र 90 के दशक के बाद से 2014 के लोकसभा चुनाव तक ओबीसी वोटों में 50 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सेदारी क्षेत्रीय दलों की थी. गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी दलों के खाते में आधे से अधिक ओबीसी वोट जाया करते थे. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी इस तिलिस्म को तोड़ने में कामयाब हुई। पहली बार गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेस दलों का ओबीसी वोट में शेयर 50 प्रतिशत से घटकर 41 प्रतिशत पर आ गया था. बीजेपी की इस कामयाबी के पीछे हिंदुत्व और पिछड़ों को साधने वाली खास सोशल इंजीनियरिंग है। उसने ओबीसी में उन जातियों को खास तवज्जों दी जिनका सियासी दबदबा नहीं था.उसने इस नैरेटिव के जरिए उन्हें लुभाने की कामयाब कोशिश की कि नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी को उनके वाजिब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हक और हिस्सेदारी नहीं मिल रही है.