जीवन में प्रेरणा का दीपक जलाता पुस्तक “ऊर्जस्वी”

डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना

जिस क्षण व्यक्ति प्रज्ञा पथी होने लगता है या ज्ञान की गंगा में डुबकियां लेने लगता है, उसके अंतःस्थल में उपस्थित भाव-पक्ष निरंतर जागृत होने लगता है और उसकी दृष्टि एक ओर वैज्ञानिक चिंतन तो दूसरी ओर आध्यात्मिक ऊर्जा से उर्जित होने लगती है। इसी मनःस्थिति में “उर्जस्वी” जैसी कृति का अवतरण होता है। महान दार्शनिक सुकरात ने कहा है-“जीवन का आनंद स्वयं को साधने और जानने में है। वे लोग जो अपने योग्यताओं और प्रतिभा के बल अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, वे ही सर्वदा श्लाघ्य होते हैं। उनकी लेखनी के आलोक में जीवन-पथ प्रशस्त होने लगता है, जो स्वयं के साथ दूसरों को भी और उर्जस्वी बनाने लगता है। ऐसे ही एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का नाम है-नृपेंद्र अभिषेक “नृप”।

पुस्तकों के शब्द-सागर में गोते लगाते-लगाते वह व्यक्ति कब एक चिंतक, विचारक और प्रतिष्ठित लेखक तथा कवि हो जाता है, ज्ञात ही नहीं होता। भारतीय प्रशासनिक सेवा की लिखित परीक्षा में चयनित किंतु अन्तर्वीक्षा में थोड़ी चूक और उसे पुनः प्राप्त करने की अनवरत साधना में लीन व्यक्ति हैं नृप जी। जब प्रतिभा, प्रज्ञा और स्थितप्रज्ञ भाव से परिपूर्ण व्यक्ति की लेखनशक्ति एक नई दिव्यता से आलोकित होने लगती है फिर तो नवीन कृतियों का सृजन होना अवश्यंभावी है।

“उर्जस्वी” उसी क्षमता का एक उपहार है जिसमें 32 आलेख उपस्थित हैं। एक-एक आलेख प्रेरणास्पद और ज्ञान का ऊर्जा स्रोत है, जिनमें लेखक की प्रतिभा, विज्ञता, गहन अध्ययन और चिंतन का समावेश है। तुलसी के पत्तों की भांति पवित्र भावाव्यक्ति साथ ही वैज्ञानिक चिंतन से समृद्ध यह कृति नृप जी का एक विशिष्ट प्रयास ही तो है।

“असफलता से सीखना सफ़लता ही तो है ”, “अंधेरा, अंधेरे से दूर नहीं होता”, “बदले की भावना का परित्याग”, स्वार्थसाधन हेतु न बने अनैतिक”, “अहंकारी नहीं गुणवान बने”, “समय मूल्यवान है”, “सत्य की महत्ता”, “नैतिक मूल्यों का महत्व”, “सफल होने के लिए अनुशासन” आदि अनेकानेक आलेख मात्र शब्दों के संयोजन नहीं हैं, जीवन दर्शन हैं, जिनका अध्ययन हमारे पथ को आलोकित करने वाला साधन है, पाथेय है।

संपूर्ण पुस्तक में नृप जी का चिंतनशील व्यक्तित्व उपस्थित है। सभी रचनाओं में लेखक की विभिन्न विचारधाराओं का परिचय मिलता है। लेखक की दृष्टि में उसके आलेख केवल कल्पना विलास नहीं बल्कि जीवन को मथ कर निकाला हुआ सार है। बुद्ध का कथन है-“जीवन में हजारों लड़ाइयां जीतने से बेहतर है स्वयं पर विजय प्राप्त करना।” उनका मानना है कि बुराई को बुराई से पराजित नहीं किया जा सकता। नृप जी के अनेक आलेख बुद्ध के विचारों की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं।

किसी रचना का चिंतन जितना ही सरगर्भित होता है उसकी दृष्टि उतनी ही विशाल होती जाती है। किसी भी रचनाकार की कृति में उसके भीतर का व्यक्ति अभिव्यक्त होता है और वहां से जो साहित्य सृजन होता है वहीं उसका संघर्ष और कर्मशीलता प्रकट होती है, जो नियति का बंद द्वार खोलने में सक्षम होती है।

नृप जी के अधिकारपूर्ण भाषा में यथावांछित विविधता है, जिसमें जीवन का सत्य भी है और भविष्य की योजना भी। किसी निबंध या आलेख में भाषा वह विश्वसनीय तत्व है जो किसी युग के लिए परिवर्तनीय प्रतिमान को सबसे पहले निर्देशित कर देती है। यहां भी प्रत्येक आलेख में लेखक का आत्मचिंतन प्रत्येक के लिए अनुकरणीय बनता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसमें एक वैश्विक चिंतन है और चेतना भी। तभी तो कहा गया है-
“अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्॥”

दोपहर की चिलचिलाती धूप में तपना, झुलसना और श्रम-स्वेद में नहाना, यही वे प्रक्रियाएं हैं जिनसे निसृत भाव ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
लेखक ने अपने लेखकीय चिंतन में सफलता के लिए अनुशासन के महत्व को दर्शाया है। लेखक मानता है कि असफलता ही सफलता की जननी है। अतः असफल होने से निराश होने की आवश्यकता नहीं सतत प्रयासरत होने की ज़रूरत है। महर्षि विवेकानंद के अनुसार-
“किसी भी असफलता के पीछे हमारे द्वारा अधूरे मन से किए गए कार्यों का परिणाम झलकता है।”

नृपेंद्र अभिषेक नृप की यह कृति उसमें सन्निहित आलेख जहां जीवन की सफलता के लिए आवश्यक हैं, आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणा भी हैं, वहीं प्रशासनिक सेवा के विद्यार्थियों के लिए मार्गदर्शक भी हैं, जिनका अध्ययन उन्हें निबंध और भाषा विषय में उच्च अंक लाने में सहायक होगा। मैं “ऊर्जस्वी” के रचनाकार प्रज्ञापथी नृपेंद्र अभिषेक नृप की इस कृति की सफलता के लिए सर्वदा आग्रही हूँ। पाठकों के बीच यह कृति बहुत लोकप्रिय होगी इसी आशा के साथ में लेखक के उज्ज्वल भविष्य की सदकामना करता हूँ और उन्हें अशेष बधाइयां देता हूँ। वे भविष्य में ऐसी और कृतियों का लेखन कर साहित्य भंडार को समृद्ध करते रहें।

समीक्षक: डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना
पुस्तक: ऊर्जस्वी
लेखक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
प्रकाशन: स्वेतवर्णा प्रकाशन, नयी दिल्ली
मूल्य: 199 रुपये
पृष्ठ- 115 पेज