रावेल पुष्प
वो इक धुंद थी ,अंधेरे का मंज़र था
क्या बताऊं किस किस के हाथ में खंजर था
वो क्या जमाना था ,न कोई सयाना था
तख़्ते-दिल्ली पर बादशाह था, या कंजर था
उसी दौरे- हिंदोस्तां के पांच दरियाओं से
निकला वो कोई मोती था या मानक था –
फैला था आबो- हवा में ख़ुशबू का पैकर
हां वो नानक था ,वो नानक था ,वो नानक था
वही नानक गया इक दिन दरिया की जानिब
उसी में गहरा उतरा, फिर जाने खो गया
गोताखोरों ने छाना दरिया का पानी –
गांव फूट रोया , क्या कहर बरपा हो गया
बीते थे तीन दिन ,फिर निकला था नानक
चेहरे पे उसके वो कैसा जलाल था
लगता था वाहेगुरु से मिलके वो आया
जपुजी से दुनिया को कर दिया निहाल था
कहीं तार दिया भागो को, लालो को
कहीं तारा कौडा, कहीं वली कंधारी
आज उसी कलयुग में बैठे हैं हम भी
आस लगाये हमारी कब आएगी बारी
दुनिया में देखो जुल्म कितने हो रहे
कुछ तो तरस करो ,प्रकट पड़ो अचानक
फिर से खिल उठें ,हर सूं मोहब्बत के फूल
गूंज उठे कायनात -आ गया नानक…
विशेष: ये कविता गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा आयोजित साउथ एशियन पोएट्री फेस्टिवल में पढ़ी गई.