ललित गर्ग
भारतीय राजनीति का एक ऐसा स्वर्णिम पृष्ठ है चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जो उस युग के नहीं, बल्कि किसी भी युग के महान् व्यक्तियों की गिनती में आते हैं। अपनी जिन्दगी में उन्होंने सत्य, राष्ट्रीयता एवं ज्ञान के प्रचार का काम किया, जिनसे एक सशक्त जननायक, स्वप्नदर्शी राजनायक, आदर्श चिन्तक, दार्शनिक के साथ-साथ युग को एक खास रंग देने की महक उठती है। उनके व्यक्तित्व के इतने रूप हैं, इतने आयाम हैं, इतने रंग है, इतने दृष्टिकोण हैं, जिनमें वे व्यक्ति और नायक हैं, दार्शनिक और चिंतक हैं, प्रबुद्ध और प्रधान है, वक्ता और नेता हैं। उनकी उपलब्धियों के वैराट्य को देखते हुए उनको दी गयी ‘राजाजी’ की उपाधि उचित है। उन्हें भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष कहा जाता है। वे प्रसिद्ध वकील, लेखक और दार्शनिक थे। वे पहले भारतीय गर्वनर जनरल थे। महान् स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, गांधीवादी राजनीतिज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को आधुनिक भारत के इतिहास का ‘चाणक्य’ माना जाता है। सत्य को अपने आचरण में जीने वाले लोग सदियों से धरती पर न सही, लेकिन इतिहास में सदा अमर रहे हैं और राजगोपालाचारी उन्हीं में से एक थे।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर 1878 को तमिलनाडु के सेलम जिले के होसूर के पास धोरापल्ली नामक गांव में हुआ। वैष्णव ब्राह्मण परिवार में जन्मे चक्रवर्तीजी के पिता नलिन चक्रवर्ती थे, जो सेलम न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर कार्यरत थे। राजगोपालाचारी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई। इंटरमीडिएट परीक्षा बंगलौर के सेंट्रल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने वकालत भी की। योग्यता और प्रतिभा के बल पर उनकी गणना सेलम के प्रमुख वकीलों में की जाने लगी। चक्रवर्ती पढ़ने-लिखने में तेज तो थे ही, देशभक्ति और समाजसेवा की भावना भी उनमें स्वाभाविक रूप से विद्यमान थी। वकालत के दिनों में वे स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित हुए और वकालत के साथ समाज सुधार के कार्यों में सक्रिय रूप से रुचि लेने लगे। उनकी समाजसेवा की भावना को देखते हुए जनता ने उन्हें सेलम की म्युनिसिपल कॉर्पाेरेशन का अध्यक्ष चुन लिया। सेलम में पहली सहकारी बैंक की स्थापना का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। वे शब्दों के जादूगर और ज्ञान के भंडार थे तो उनका मजाकिया अंदाज भी खूब था।
बीसवीं शताब्दी के भारत के महान् सपूतों की सूची में कुछ नाम हैं जो अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, उनमें राजाजी का नाम प्रथम पंक्ति में है, वे राजनीति में एक रोशनी बने और वह रोशनी अनेक मोड़ों पर नैतिकता का, राष्ट्रीयता का सन्देश देती है कि राजनीति में घाल-मेल से अलग रहकर भी जीवन जीया जा सकता है। निडरता से, शुद्धता से, स्वाभिमान से, स्वतंत्र सोच से। महान् दार्शनिक राजगोपालाचारीजी का जीवन उनके आदर्शों एवं सिद्धान्तों का सजीव उदाहरण है। उन्होंने दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता को जैसे फलक से उतारकर धरती पर स्थापित किया था। उनकी चेतना में इतनी सृजन क्षमता थी कि वे आगे की पीढ़ियों तक अपनी धारा को चला सके। निश्चित ही वे एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे, उनकी बुद्धि चातुर्य और दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, और सरदार पटेल जैसे अनेक उच्चकोटि के कांग्रेसी नेता भी उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। विलक्षण प्रतिभा, राजनीतिक कौशल, कुशल नेतृत्व क्षमता, बेवाक सोच, निर्णय क्षमता, दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता के कारण कांग्रेस के सभी नेता उनका लोहा मानते रहे। कांग्रेस से अलग होने पर भी यह अनुभव नहीं किया गया कि वह उससे अलग हैं। वे गांधीवादी सिद्धान्तों पर जीने वाले व्यक्तियों की श्रृंखला के शिखर पुरुष थे।
वर्ष 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर आए और देश के स्वतंत्रता संग्राम को गति देने में जुट गए। 1919 में गांधीजी ने रोलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया। इसी समय राजगोपालाचारी गांधीजी के संपर्क में आए और उनके राष्ट्रीय आंदोलन के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। राजागोपालाचारी को महात्मा गांधी ने अपना ‘कॉनशंस कीपर’ यानी विवेक जागृत रखने वाला कहा था। राजाजी के राजनीति में आने की वजह गांधी ही बने। पहली ही मुलाकात में गांधीजी ने उन्हें मद्रास में सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व करने का आह्वान किया। इस दौरान वे जेल भी गए। जेल से छूटते ही वे अपनी वकालत और तमाम सुख-सुविधाओं को त्याग, पूर्ण रूप से स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हो गए और खादी पहनने लगे। चक्रवर्ती देश की राजनीति और कांग्रेस में इतना ऊंचा कद प्राप्त कर चुके थे कि गांधीजी भी प्रत्येक कार्य में उनकी राय लेने लगे थे। गांधीजी जब जेल में होते तो उनके द्वारा संपादित पत्र यंग इंडिया का संपादन चक्रवर्ती ही करते थे। वे गांधीजी के समधी भी थे। राजाजी की पुत्री लक्ष्मी का विवाह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी से हुआ था।
राजगोपालाचारी आजादी से पहले एवं आजादी की बाद की सरकारों में अनेक सर्वाेच्च पदों पर रहे। 1946 में देश की अंतरिम सरकार बनी। उन्हें केंद्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाया गया। 1947 में देश के पूर्ण स्वतंत्र होने पर उन्हें बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया। 1950 में वे पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लिए गए। इसी वर्ष सरदार पटेल की मृत्यु के पश्चात वे केंद्रीय गृहमंत्री बनाए गए। कुछ वर्षों बाद कांग्रेस की नीतियों के विरोध में उन्होंने मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस दोनों को ही छोड़ दिया और अपनी पृथक स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की। सन् 1937 में हुए काँसिलो के चुनावों में चक्रवर्ती के नेतृत्व में कांग्रेस ने मद्रास प्रांत में विजय प्राप्त की। उन्हें मद्रास का मुख्यमंत्री बनाया गया। 1939 में ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के बीच मतभेद के चलते कांग्रेस की सभी सरकारें भंग कर दी गयी थीं। चक्रवर्ती ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसी समय दूसरे विश्व युद्ध का आरम्भ हुआ, कांग्रेस और चक्रवर्ती के बीच पुनः ठन गयी। इस बार वह गांधीजी के भी विरोध में खड़े थे। गांधीजी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में मात्र नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजाजी का कहना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए। यह मतभेद इतने बढ़ गये कि राजाजी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब भी वह अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार होकर जेल नहीं गये। इस का अर्थ यह नहीं कि वह देश के स्वतंत्रता संग्राम या कांग्रेस से विमुख हो गये थे।
राजाजी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। एक समय हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने की पैरवी करने वाले राजाजी के विचार 60 के दशक में भले ही बदल गए। फिर भी तमिलभाषी राजगोपालाचारी हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए आजीवन संघर्षशील रहे। सबसे पहले गैर-हिंदीभाषी राज्यों में से एक तत्कालीन मद्रास प्रांत में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य कराने का श्रेय उन्हें जाता है। उनका मानना था कि हिंदी ही एकमात्र भाषा है, जो देश को एक सूत्र में बांध सकती है। विश्व में परमाणु हथियारों की होड़ को लेकर वे बेहद चिंतित थे और सबसे बड़ी बात जो उन्हें कचोटती थी, वह थी देश में कांग्रेस पार्टी का विकल्प न होना। राजगोपालचारी ने भारतीय जात-पात के आडंबर पर भी गहरी चोट की। कई मंदिरों में जहां दलित समुदाय का मंदिर में जाना वर्जित था, इन्होंने इस नियम का डटकर विरोध किया। इसके कारण मंदिरों में दलितों का प्रवेश संभव हो सका। 1938 में इन्होंने एग्रीकल्चर डेट रिलीफ एक्ट कानून बनाया ताकि किसानों को कर्ज से राहत मिल सके।
राजाजी ने द्विपार्टी सिद्धान्त पर बल दिया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की सफलता के लिए मजबूत विपक्ष का होना नितांत आवश्यक है। उनका कहना था कि बिना विपक्ष के सरकार ऐसी है मानो गधे की पीठ पर एक तरफ ही बोझ रख दिया है। मजबूत विपक्ष लोकतंत्र के भार को बराबर रखता है। राजाजी का मानना था कि किसी पार्टी में भी दो विचारधाराएं होनी चाहिए और ऐसा न होने की सूरत में पार्टी का मुखिया एक तानाशाह की भांति बर्ताव करता है। उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व को भी स्वीकार किये जाने की बात कही। वर्ष 1954 में भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले राजाजी को भारतरत्न से सम्मानित किया गया। जो गहराई और तीखापन उनके बुद्धि चातुर्य में था, वही उनकी लेखनी में भी था। वे तमिल और अंग्रेजी के बहुत अच्छे लेखक थे। गीता और उपनिषदों पर उनकी टीकाएं प्रसिद्ध हैं। नशाबंदी और स्वदेशी वस्तुओं विशेषकर खादी के प्रचार-प्रसार में उनका योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है। अपनी वेशभूषा से भारतीयता के दर्शन कराने वाले इस महापुरुष का 28 दिसंबर 1972 को देहांत हो गया।