- भारत के महान और अजेय योद्धा महाराजा सूरजमल
गोपेन्द्र नाथ भट्ट
राजस्थान के ऐतिहासिक भरतपुर जिले का अतीत अनगिनत संघर्षो तथा साहस और पराक्रम की गाथाओं से भरा रहा है। यहां के लोगों ने कभी भी किसी के सामने अपना सिर नही झुकाया और नही किसी की अधीनता स्वीकार की। भरतपुर के अजेय होने के दो प्रमुख कारण रहे । पहला इसकी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और विलक्षण बनावट तथा दूसरा भरतपुर रियासत के संस्थापक महाराजा सूरजमल का मानव धर्म की रक्षा तथा देश की स्वतंत्रता का दृढ़ संकल्प । भरतपुर को भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में महाराजा सूरजमल का विशेष योगदान रहा है।
भरतपुर की जनता स्वाधीनता को अक्षुण्य रखने के लिए सदैव हर प्रकार के संघर्ष और बलिदान के लिए हमेशा तन-मन-धन से तत्पर रही तथा हर चुनौती के मुकाबले के लिए यहां के लोगों ने अपने तत्कालीन शासकों को भरपूर सहयोग दिया। भरतपुर के शौर्य, पराक्रम, बलिदान तथा स्वाभिमान से जीने की यह परम्परा स्वाधीनता के अनन्य उपासकों की ख्याति से किसी तरह उन्नीस नही रही है।
महाराजा सूरजमल भरतपुर राज्य के दूरदर्शी जाट महाराजा थे। भारत में महाराजा सूरजमल का नाम बड़ी श्रेष्ठ एवं गौरव से लिया जाता है। वे कुशल प्रशासक, दूरदर्शी एवं कूटनीतिज्ञ महाराजा थे। उन्होंने युवावस्था में ही कई युद्ध फतह कर अपनी अलग ही पहचान बनाई। महाराजा सूरजमल ने अपने जीवन में जितने भी युद्ध लड़े उनमें वे कभी कोई युद्ध नही हारे। मुगलों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर भारत में जिन राजाओं की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें महाराजा सूरजमल जाट का नाम बड़ी श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। महाराजा सूरजमल की महान और अद्वितीय उपलब्धि यह रही कि उन्होंने भारतीय इतिहास की सबसे अस्थिर और डांवाडोल शताब्दी में परस्पर लड़ने वाले जाट गुटों को मिला कर एक किया । महाराजा सूरजमल ने भारत को विखंडित होने से भी बचाया । उनका जन्म 13 फरवरी, 1707 में हुआ था। वे राव बदनसिंह के पुत्र थे। उन्हे पिता की ओर से वैर की जागीर मिली थी।
बताते है कि उन्होंने 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढ़ी पर हमला कर विजय प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने 1743 में उसी स्थान पर भरतपुर नगर की नींव रखी तथा 1753 में वहां आकर रहने लगे। राव बदन सिंह ने डीग को सबसे पहले अपनी राजधानी बनाया था। मुगल शासक औरंगजेब की मृत्यु के बाद जयपुर के महाराजा जयसिंह ने राव बदनसिंह को 19 नवम्बर 1722 को डीग का राजा बनाया । राव बदनसिंह के शासनकाल में कुम्हेर, डीग व भरतपुर के दुर्गों का निर्माण और वैर व दिल्ली के आस-पास ऐतिहासिक मन्दिरों और भवनों का निर्माण कराया । बताते है कि राव बदनसिंह की मृत्यु 1756 में हुई परन्तु उन्होंने 25 वर्ष पहले ही सूरजमल को राज्यभार सौंप दिया था। हालांकि बदनसिंह की मृत्यु के बाद 7 जून, 1756 को ही सूरजमल डीग के औपचारिक महाराजा बने। महाराजा सूरजमल ने 1740 से 1763 तक शासन किया। हमाम-सादात के लेखक ने महाराजा सूरजमल के विषय में लिखा है कि राजस्व और सिविल मामलों के संचालन और प्रबन्ध में उसकी निपुणता,योग्यता तथा बुध्दिमानी की समता सिवाय निजाम आसफजाह बहादुर के कोई भी भारतीय प्रतापी व्यक्ति नही कर सका। साहस, शक्ति, समझदारी, अदम्य चेतना और कूटनीति में उनका मुकाबला कोई नहीं कर पाया।
भरतपुर को राजपूताना ही नहीं वरन भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में महाराजा सूरजमल का विशेष योगदान है। बताते है कि उनकी दूरदर्शिता और कुशल नेतृत्व के कारण ही 1732 में हुए अश्वमेघ यज्ञ में आमेर नरेश महाराजा सवाई जयसिंह ने सूरजमल को विशेष सम्मान दिया।राजकुमार ईश्वरीसिंह को आमेर की गद्दी पर बिठाने का श्रेय भी सूरजमल को ही जाता है। उनकी वीरता से प्रभावित होकर बूंदी के राजकवि सूर्यमल ने महाराजा सूरजमल को सूर्य की संज्ञा दी थी। सूरजमल की जयपुर के महाराजा जयसिंह से अच्छी मित्रता थी। महाराजा जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके बेटों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह में गद्दी के लिए झगड़ा हुआ। बताते है कि महाराजा सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह के पक्ष में थे, जबकि उदयपुर के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्रा माधोसिंह के पक्ष में थे। मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरीसिंह की जीत हुई। आगे चलकर मराठा, सिसौदिया, राठौड़ आदि सात प्रमुख राजा माधोसिंह के पक्ष में हो गये। ऐसे में सूरजमल ने 1748 में 10,000 सैनिकों सहित ईश्वरीसिंह का साथ दिया और उसे फिर विजय मिली। इससे सूरजमल का डंका सारे भारत में बजने लगा।
बताते है कि 10 मई 1753 को दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन को हरा कर सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला पर अधिकार कर लिया था। दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने फिर मराठों को भड़का दिया जिस पर मराठों ने 1754 में कई माह तक भरतपुर और कुम्हेर किले को घेरे रखा। यद्यपि वे पूरी तरह उस पर कब्जा नही कर पाये और इस युद्ध में मल्हारराव का बेटा खांडेराव होल्कर मारा गया। आगे चलकर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की सहायता से मराठों और महाराजा सूरजमल में संधि करा दी। उन दिनों महाराजा सूरजमल और जाट शक्ति अपने चरमोर्त्कष पर थी। कई बार तो मुगलों ने भी सूरजमल की सहायता ली। मराठा सेनाओं के अनेक अभियानों में उन्होंने ने बढ़-चढ़कर भाग लिया पर किसी कारण से सूरजमल और सदाशिव भाऊ में मतभेद हो गये। इससे नाराज होकर वे वापस भरतपुर चले गये।
बताते है कि 14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तियों का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस भौगोलिक क्षेत्र की उन्हे विशेष जानकारी थी। यदि सदाशिव भाऊ के महाराजा सूरजमल से मतभेद न होते, तो इस युद्ध का परिणाम भारत के लिए निश्चित रूप से शुभकारी होता। इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने अपनी मित्राता निभाई। उन्होंने शेष बचे घायल सैनिकों के अन्न, वस्त्र,धन और चिकित्सा का प्रबंध किया। महारानी किशोरी ने जनता से अपील कर अन्न आदि एकत्र किया। ठीक होने पर वापस जाते हुए हर सैनिक को रास्ते के लिए भी कुछ धन, अनाज तथा वस्त्र दिये। अनेक सैनिक अपने परिवार को साथ लाए थे। उनकी मृत्यु के बाद महाराजा सूरजमल ने उनकी विधवाओं को अपने राज्य में ही बसा लिया। उन दिनों उनके क्षेत्राधिकार में भरतपुर के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव और मथुरा आदि भी सम्मिलित थे। मराठों की पराजय के बाद भी महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक और झज्जर को जीता।
25 दिसम्बर, 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हुए युद्ध में गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर महाराजा सूरजमल ने वीरगति पायी। उनके युद्धों एवं वीरता का वर्णन सूदन कवि ने ‘सुजान चरित्र’ नामक रचना में बहुत खुबसूरत ढंग से किया है। बताते है कि 1763 में उनकी मृत्यु के समय उनका राज्य विस्तार-भरतपुर,अलवर, धौलपुर, आगरा, बुलंदशहर, सहारनपुर, मथुरा, होडल,पलवल, गुड़गाँव, बल्लभगढ़, रेवाड़ी, अलीगढ़, हाथरस,मैनपुरी तथा दिल्ली के आसपास का पूरा क्षेत्र था। पूरे हिन्दुस्तान में उनका राज्य ही ऐसा स्थान था जहाँ शांति तथा सुरक्षा थी। बताते है कि मराठा सदाषिवराव भाऊ ने यदि उसकी सलाह मान ली होती तो 1761 में पानीपत में मराठों की हार न होती, उन्होंने कहा था कि अपनी महिलाओं, साज सामान और मोटी तोपों को चंबल के पार भेज दो और गुरिल्ला युध्द की योजना से युध्द करो । सूरजमल,भाऊ द्वारा दीवाने आम की चांदी की छत को जलाने और पिघलाने से बहुत रूष्ट थे । सूरजमल दिल्ली से भरतपुर चले गये क्योंकि भाऊ ने उनके सुझाव को ठुकरा दिया था। पानीपत की पराजय के बाद महाराजा सूरजमल ने एक लाख मराठों, उनकी महिलाओं-बच्चों को एक महीने तक भरतपुर और डीग मेंआश्रय दिया और सकुशल महाराष्ट्र पहुँचाया और एक सच्चे विशाल हृदय महाराजा का परिचय दिया।
सूरजमल ने हाडल के सरदार की बेटी किशोरी से शादी की थी। अपने पति की मृत्यु के बाद भी रानी किशोरी ने भरतपुर के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किए। महाराजा सूरजमल की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र जवाहर सिंह भरतपुर केे महाराजा बने ।
बलिदान दिवस
25 दिसम्बर का दिन को महाराजा सूरजमल के बलिदान दिवस के रूप में याद किया जाता है। सूरजमल राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी महाराजा थे। महाराजा सूरजमल 25 दिसम्बर 1763 को नजीब खां की सेना से लड़ते हुए हिंडन नदी के किनारे शाहदरा (दिल्ली) में देश के लिए शहीद हो गये थे। वे सभी धर्मों को साथ लेकर चलते थे। उनका चरित्र बहुत उत्कृष्ट था। उन्हे कला एवं संस्कृति से बहुत प्यार था। वे महान भवन निर्माता भी थे, जिसका नमूना डीग का बेजोड़ किला है। उनके व्यक्तित्व में हमेशा दृढ़ता, साहस, शौर्य, वीरता झलकती थी। महाराजा सूरजमल के ऐतिहासिक युद्धों में उनकी महारानी किशोरी का योगदान भी उल्लेखनीय रहा। वे हमेशा उनके साथ रहती थी। बताते है कि जिस समय महाराजा सूरजमल की मृत्यु हुई थी उस समय उनके राज्य के अधीन आगरा, अलीगढ़, बल्लभगढ़ बुलंदशहर, धौलपुर, एटा, हाथरस, मेरठ, मथुरा, अलवर, रोहतक, होडल, गुडगांव, नारनौल, फर्रूखाबाद, मेवात और रेवाड़ी आदि इलाके भी शामिल थे। इस राज्य की लम्बाई 200 मील और चौड़ाई 100 मील थी। भरतपुर उस समय देश का सबसे बड़ा साम्राज्य था और देश में सबसे ज्यादा धनी राज्य भी था। महाराजा सूरजमल के शासन के अंतिम पांच-छः वर्षो में उसकी वार्षिेक आय करीब 175 लाख रूपये से थी तथा कुल वार्षिक खर्चे 60 और 65 लाख रूपये के मध्य थे।
आज कृतज्ञ राष्ट्र अपने ऐसे महान महाराजा के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा पूर्वक नमन कर रहा हैं।