आर.के. सिन्हा
मिर्जा मोहम्मद असादुल्लाह बेग खान यानी मिर्जा गालिब एक से बढ़कर एक कालजयी शेर कहते हैं। कौन सा हिन्दुस्तानी होगा जिन्हें गालिब साहब के कहे “हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसीं, कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले…” और “हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त, लेकिन, दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है…” जैसे शेरों को सुन-सुनकर आनंद ना मिलता हो।
गालिब अपनी शायरी में वे सारे दुख, तकलीफ और त्रासदियों का जिक्र करते हैं जिससे वे महान शायर बनते हैं। लगता है कि गालिब में भी एक आम आदमी की कई कमजोरियाँ थीं। ग़ालिब ने अपने जीवन में भी कई दुःख देखे। उनके सात बच्चे थे लेकिन सातों की मृत्यु हो गई थी। उनकी माली हालत तो कभी बहुत बेहतर नहीं रही। वे जीवनभर किराए के घर में ही रहे। दिल्ली-6 में जहाँ गालिब की यादगार बनी है, वे वहां पर ही वे एक किराए के घर में रहते थे। वे मशहूर तो अपने जीवनकाल में हो गए थे, पर पर्याप्त पैसा उनके पास नहीं था। खैर, मिर्ज़ा ग़ालिब वर्ष 1827 में दिल्ली से कोलकाता गए थे। वे दिल्ली से कोलकाता जाते वक्त कानपुर, लखनऊ, बाँदा, इलाहाबाद होते हुए बनारस पहुँचे। वे बनारस में छह महीने ठहरे। वहां गालिब ने दिल्ली और दिल्ली के अपने दोस्तों को भी बड़ी शिद्दत के साथ याद किया। ग़ालिब लिखते हैं कि जब से क़िस्मत ने उन्हें दिल्ली से बाहर निकाल दिया है, उनके जीवन में एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है। अब न कोई उनका हमदर्द है न ही उनका कोई वतन है। अपने उसी बनारस प्रवास के दौरान ग़ालिब ने बनारस के बारे में फ़ारसी में एक प्रसिद्ध मसनवी की रचना की, जिसे ‘चिराग़-ए-दैर’ के नाम से जाना जाता है। मसनवी उर्दू कविता का ही एक है रूप जिसमें कहानी क़िस्से रचे जाते हैं। ग़ालिब ने अपनी इस मसनवी में बनारस के तमाम रंगों और विविध छटाओं को बखूबी उकेरा है। गालिब 29 नंवबर 1829 को वापस अपने शहर दिल्ली आ गए। उसके बाद उनके बल्लीमरान के घर में फिर से दोस्तों आना-जाना चालू हो गया। उनका शेष जीवन दिल्ली की गलियों में ही गुजरा। उर्दू शायरी गालिब के बिना अधूरी है।“उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है…” अब भी गालिब की शायरी के शैदाई इस शेर को बार-बार पढ़ते हैं। उनका एक और शेर पढ़ें। “रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए…धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए…”।गालिब के कुल 11 हजार से अधिक शेर जमा किये जा सके हैं। उनके खतों की तादाद 800 के करीब थी। वे फक्कड़ शायर थे। गालिब के हर शेर और शायरी में कुछ अपना सा दर्द उभरता है।
पर गालिब तब लगभग चुप क्यों थे जब दिल्ली में पहली जंगे आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी। 11 मई, 1857 को मेरठ में अंग्रेजों को रौंदने के बाद बागी सिपाही पहले हिंडन और फिर यमुना नदी को नावों से पार करके सलीमगढ़ के रास्ते भोर में ही दिल्ली में दाखिल हो गए थे। इनके निशाने पर यहां पर काम कर रहे गोरे और ईसाई बन गए हिन्दुस्तानी थे। ये सब उस दौर में दिल्ली के दिल दरियागंज में काफी संख्या में रहते थे। बागियों ने जामा मस्जिद के उर्दू बाजार में स्थित दिल्ली बैंक को लूटा। कश्मीरी गेट की सेंट जेम्स चर्च को भी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त किया। उस समय हर ओर दिल्ली में अव्यवस्था का आलम था। बागियों ने बहादुरशाह ज़फर को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और इसके साथ ही दिल्ली उनके कब्जे में थी। गालिब खुद मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के पास ही काम करते थे। यानी गालिब ने1857 में भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध अपनी आँखों के सामने से देखा था।
गालिब जहां निर्विकार भाव से उस गदर को देख रहे थे, तब दिल्ली के एक पत्रकार- संपादक मौलाना मोहम्मद बकर को 1857 में गोरी सरकार ने गदर को कुचलने के बाद फांसी पर लटका दिया था। वे शिया मुसलमान थे। बकर साहब का जुर्म इतना भर था कि वे गोरी सरकार के खिलाफ निर्भीकता से लिखते थे। वे “देहली उर्दू” अखबार के संपादक थे। आजादी की जंग के खत्म होते ही बकर साहब को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 14 दिसंबर, 1857 को फांसी पर लटका दिया गया। देहली उर्दू अखबार 1836 में चालू हुआ था। वह न केवल दिल्ली बल्कि सारे उत्तर भारत से छपने वाला पहला उर्दू का अखबार माना जाता है। वह हर हफ्ते छपता था। तो जब 1857 का गदर हुआ उस दौर में मिर्जा गालिब सारी स्थितियों को करीब से देख रहे थे। उन्होंने कभी देहली उर्दू अखबार के लिए कुछ लिखा हो, इसकी जानकारी नहीं मिलती है। यह अखबार चार पन्नों का छपता था। हरेक पन्ने में दो कॉलम और 32 लाइनें रहती थीं। इसमें ही मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर सार्वजनिक सूचनाएं छपवाते थे। ये लगभग 21 सालों तक छपा। ये शिक्षा के महत्व पर लगातार लिखता था। इसमें दिल्ली के सामाजिक और सियासी हालातों को सही से कवर किया जाता था। जहां पर गोरों को शिकस्त मिलती थी, उसे ‘दिल्ली उर्दू अखबार’ प्रमुखता से छापता था। इसमें क्रांतिकारी कविताएं भी छपती थीं। इससे पहले दिल्ली में कुछ फारसी के अखबार भी छपते थे। देहली उर्दू अखबार का कॉलम ‘हजूर ए वाला’ को पाठक बहुत पसंद किया करते थे।
मुमकिन है कि गालिब कत्लेआम को देखकर अंदर से बहुत डरे हुए हों। कहने वाले यह भी कहते हैं कि वे इनाम, वजीफे, पेंशन और उपाधियों के लिए अंग्रेजों के पीछे भागते थे। क्या यही वजह रही कि उन्होंने कभी अंग्रेज़ों के बारे में कुछ भी कठोर नहीं लिखा, ताकि उन्हें अंग्रेज़ों से पेंशन जैसे फायदे मिल सके?
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)